कुछ
बक बका दिया कर
हर समय नहीं भी
कभी
किसी रोज
चाँद
निकलने से पहले
या सूरज डूबने के बाद
किसने
देखना है समय
किसने सुननी है बकबास
जमीन में बैठे ठाले
मिट्टी फथोड़ने वाले से
उबलते दूध के उफना के
चूल्हे से बाहर कूदने के
समीकरण बना
फिर देख
अधकच्चे
फटे छिलकों से झाँकते
मूंगफलियों के दानों की
बिकवाली में उछाल
सब समझ में
आना भी नहीं चाहिए
पालतू कौए का
सफेद कबूतर से
चोंच लड़ाना भी गणित ही है
चोंच लड़ाना भी गणित ही है
वो बात अलग है
किताब में
सफेद और काले पन्नों की गिनतियाँ
अलग अलग रंगों से नहीं गिनी जाती हैं
इसलिए
उजाले में ही सही निकल कोटर से
दांत
ना भी हों फिर भी
छील कुछ
कुछ दिखा
हाथी के ही सही
‘उलूक’
मर गया और मरा हुआ
दो अलग अलग बातें हैं |
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 10 जुलाई 2025 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
मर गया और मरा हुआ
जवाब देंहटाएंदो अलग अलग बातें हैं |
सटीक
वंदन
बेहतरीन सटीक, सार्थक हमेशा की तरह उत्तम रचना
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पंक्तियाँ, बहुत सुंदर रचना 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत गहरे कटाक्ष
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन । सादर नमस्कार सर !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और सटीक रचना
जवाब देंहटाएंवाह जोशी जी, क्या खूब लिखा कि ''उबलते दूध के उफना के
जवाब देंहटाएंचूल्हे से बाहर कूदने के
समीकरण बना,
फिर देख...'' वाह
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंspasht aur satik
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंवो बात अलग है
किताब में
सफेद और काले पन्नों की गिनतियाँ
अलग अलग रंगों से नहीं गिनी जाती हैं
क्या बात...
लाजवाब👌👌
दांत
जवाब देंहटाएंना भी हों फिर भी
छील कुछ
कुछ दिखा
हाथी के ही सही
‘उलूक’
मर गया और मरा हुआ
दो अलग अलग बातें हैं |
—वाह:
बहुत बढ़िया
यार, क्या कमाल का उलझा-सा सीधा ताना मारा है इस कविता में! पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगा जैसे कोई बेतुकी बातें नहीं, बल्कि अपने ही रोज़मर्रा की खीझ, ठहराव और अंदर का खुराफाती मन बोल रहा हो। कहीं मूँगफली, कहीं दूध, कहीं सफेद-काला, सब कुछ जैसे एक बेमेल मेल में गूंज रहा हो।
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