उलूक टाइम्स: अधूरी
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बुधवार, 24 अप्रैल 2019

बन्द कर ले दिमाग अपना, एक दिमाग करोड़ों लगाम सपना खूबसूरती से भरा है, किस बात की देरी है

मजबूरी है

बीच
बीच में
थोड़ा थोड़ा

कुछ
लिख देना
भी जरूरी है

उड़ने
लगें पन्ने

यूँ ही
कहीं खाली
हवा में

पर
कतर देना
जरूरी है

हजूर
समझ ही
नहीं पाते हैं

बहुत
कोशिश
करने के
बाद भी

कि यही
जी हजूरी है

फितूरों से
भरी हुयी है

दुनियाँ
यहाँ भी और वहाँ भी

कलम
लिखने वाले की
खुद ही फितूरी है

उलझ
लेते हैं फिर भी
पढ़ने पढ़ाने वाले

जानते हुऐ

टिप्पणी
ही यहाँ

बस
एक लिखे लिखाये
की मजदूरी है

आदत
नहीं है
झेलना
जबरदस्ती
फरेबियों को

रोज देखते हैं
समझते हैं

रिश्तेदार
उनके ही जैसे
आस पास के

टटपूँजियों से
बनानी दूरी है

‘उलूक’
दिमाग अपना
खोलना ही क्यूँ है

लगी
हुयी है भीड़
आँखे कान नाक
बन्द करके

इशारे में
कहीं भी
किसी
अँधे कूँऐं में
कूद लेने
की तैयारी

किस
पागल ने
कह दिया
अधूरी है ।

चित्र साभार: https://free.clipartof.com/details/1833-Free-Clipart-Of-A-Controlling-Puppet-Master

सोमवार, 19 जून 2017

बे सिर पैर की उड़ाते उड़ाते यूँ ही कुछ उड़ाने का नशा हो जाता है

सबके पास
होती हैं
कहानियाँ
कुछ पूरी
कुछ अधूरी

अपंग
कहानियाँ
दबी होती है
पूरी कहानियोँ
के ढेर के नीचे

कलेजा
बड़ा होना
जरूरी
होता है
हनुमान जी
की तरह
चीर कर
दिखाने
के लिये

आँखे
सबकी
देखती हैं
छाँट छाँट
कर कतरने
कहानियोँ
के ढेर
में अपने
इसके उसके

कुछ
कहानियाँ
पैदा होती हैं
खुद ही
लकुआग्रस्त

नहीं चाहती हैं
शामिल होना
कहानियों
के ढेर में
संकोचवश

इच्छायें
आशायें
रंगीन
नहीं भी सही
काली नहीं
होना चाहती हैं

अच्छा होता है
धो पोछ कर
पेश कर देना
कहानियोँ को
कतरने बिखेरते
हुऐ सारी
इधर उधर

कहानियों की
भीड़ में छुपी
लंगडी
कहानियाँ
दिखायी ही
नहीं देती
के बहाने से
अपंंग
कहानियों से
किनारा करना
आसान हो जाता है

‘उलूक’
कहानियों
के ढेर से
एक लंगड़ी
कहानी
उठा कर
दिखाने वाला
जानता है

कहानियाँ
बेचने वाला
ऐसे हर
समय में

दूसरी तरफ
की गली से
होता हुआ
किसी और
मोहल्ले की ओर
निकल जाता है।

चित्र साभार: https://es.123rf.com

बुधवार, 31 जुलाई 2013

बाहर के लिये अलग बनाते है अंदर की बात खा जाते हैं !

मुड़ा तुड़ा कागज का एक टुकड़ा
मेज के नीचे कोने में पड़ा मुस्कुराता है

लिखी होती है कोई कहानी अधूरी उसमें
जिसको कह लेना
वाकई आसान नहीं हो पाता है

ऎसे ही पता नहीं कितने कागज के पन्ने
हथेली के बीच में निचुड़ते ही चले जाते हैं

कागज की एक बौल होकर
मेज के नीचे लुढ़कते ही चले जाते हैं

ऎसी ही कई बौलों की ढेरी के बीच में बैठे हुऎ लोग
कहानियाँ बनाने में माहिर हो जाते हैं

एक कहानी शुरु जरूर करते हैं
राम राज्य का सपना भी दिखाते हैं
राजा बनाने के लिये किसी को भी
कहीं से ले भी आते हैं

कब खिसक लेते हैं बीच में ही और कहाँ को
ये लेकिन किसी को नहीं बताते हैं

अंदर की बात को कहना
इतना आसान कहाँ होता है
कागजों को निचोड़ना नहीं छोड़ पाते हैं

कुछ दिन बनाते हैं कुछ और कागज की बौलें
लोग राम और राज्य दोनो को भूल जाते हैं

ऎसे ही में कहानीकार और कलाकार
नई कहानी का एक प्लॉट ले
हाजिर हो जाते हैं ।