ना तो
तू शेर है
ना ही
हाथी है
तू शेर है
ना ही
हाथी है
फिर
किस लिये
इच्छा
करता है
दहाड़ने की
और
चिंघाड़ने की
तेरी मर्जी
कैसे
चल सकती है
हिम्मत है
तुझे
फर्जी होने की
जंगल में होना
और
शिकार करना
नंगे होना
साथ में
तीर तलवार
होना
कोई
पाषाण युग
थोड़े ना
चल रहा है
दर्जी है
खुद ही
खुदगर्जी
सिल रहा है
ऊल जलूल
लिखने से
अलग
नहीं
हो जाती है
लेखनी
बहुत से हैं
जानते हैं
पहचानते हैं
चिढ़
के मारे
जान बूझ कर
फजूल
लिख रहा है
अलग
रह कर
आदमी
अलग नहीं
हो जाता है
इच्छायें
तो
भीड़ की
जैसी ही हैं
बस
हिम्मत की
कमी है
किस लिये
ठंडा ठंडा
कूल
दिख रहा है
सीख
क्यों
नहीं लेता है
वायदा कर लेना
फायदा
बहुत है
पैसे
वसूल
हो जाते हैं
दिखाई
देना चाहिये
हर
फटे कोने से
एक उसूल
दिख रहा है
रायता
फैल जाता है
फैलाना
जरूरी है
यही
एक कायदा
होता है
आज के समय में
‘उलूक’
गाँधी
बहुत पहले
बेच दिया गया था
जमाना
विवेकानंद
के
शेयरों पर
आज
नजर रख रहा है
एक
वही है
जो
सबसे ज्यादा
प्रचलन में है
और
नारों में
खूबसूरत
नजारों में
नाचता
सामने सामने
दिख रहा है ।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com