उलूक टाइम्स: दर्जी
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शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

कुछ भी लिख और सोच ले इसी लिखे से शेयर बाजार चढ़ रहा है




ना तो
तू शेर है

ना ही
हाथी है 

फिर
किस लिये
इच्छा
करता है

दहाड़ने की
और
चिंघाड़ने की 

तेरी मर्जी
कैसे
चल सकती है

हिम्मत है
तुझे

फर्जी होने की 

जंगल में होना
और
शिकार करना 

नंगे होना
साथ में
तीर तलवार
होना

कोई
पाषाण युग

थोड़े ना
चल रहा है 

दर्जी है
खुद ही
खुदगर्जी
सिल रहा है

ऊल जलूल
लिखने से
अलग
नहीं
हो जाती है
लेखनी

बहुत से हैं
जानते हैं
पहचानते हैं

चिढ़
के मारे
जान बूझ कर

फजूल
लिख रहा है 

अलग
रह कर

आदमी
अलग नहीं
हो जाता है 

इच्छायें
तो
भीड़ की
जैसी ही हैं

बस
हिम्मत की
कमी है

किस लिये
ठंडा ठंडा
कूल
दिख रहा है 

सीख
क्यों
नहीं लेता है

वायदा कर लेना

फायदा
बहुत है

पैसे
वसूल
हो जाते हैं

दिखाई
देना चाहिये

हर
फटे कोने से
एक उसूल
दिख रहा है

रायता
फैल जाता है

फैलाना
जरूरी है

यही
एक कायदा
होता है
आज के समय में

‘उलूक’

गाँधी
बहुत पहले
बेच दिया गया था

जमाना
विवेकानंद
के
शेयरों पर

आज
नजर रख रहा है

एक
वही है
 जो
सबसे ज्यादा
प्रचलन में है

और
नारों में

खूबसूरत
नजारों में

नाचता
सामने सामने
दिख रहा है ।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com


मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

जितनी जोर की टर्र टर्र करेगा टर्राना उतनी दूर से दिखेगा बात है बस ताड़ कर निशाना लगाने की

उदघोषणा जैसे ही हुयी 

बरसात के मौसम के जल्दी ही 
आने की 

मेंंढक दीवाने सारे लग गये तैयारी में 
ढूढना शुरु कर दिये दर्जी 
अपने अपने 

होड़ मच चुकी है नजर आने लगी 
पायजामे बिना इजहार के सिलवाने की 

टर्र टर्र 
दिखने लगी हर जगह 
इधर भी उधर भी 

आने लगी घर घर से आवाज 

करने की रियाज 
टर्राने की 

फुदकना 
शुरु हो गये मेंढक 

अपने अपने 
मेंढकों को लेकर मेढ़ पर कूओं के 

जल्दी मची 
दिखने लगी अपनी छोड़ 
दूसरे की पकड़ नैया पार हो जाने की 

कलगी 
लग गयी देख कर 
कुछ मेढकों के सर पर 

दिखने लगे 
कुछ नोचते हुऐ बाल अपने 

खबर छपनी 
शुरु हो गयी अखबारों में 
कुछ के बाल नोचने की 
कुछ के गंजे हो जाने की 

छूटनी शुरु हो गयी पकड़ 
कुओं की मुडेरों पर अपने 

नजर आने लगी 
खूबसूरती दूसरों की 
नालियों धारों की पाखानों की 

बरसात का 
भरोसा नहीं 
कब बादल चलें कब बरसें 

कब 
नाचें मोर भूल चुके कब से 
जो आदत 
अपने पंख फैलाने की 

‘उलूक’ 
छोटे उत्सव मेंढकों के 
जरूरी भी हैं 

बहुत बड़ी 
नहर में तैरने कूदने को जाने की बारी 

किस की 
आ जाये अगली बरसात 
से पहले ही 

बात ही तो है 
तिकड़म भिड़ाने की 

आये तो सही किसी तरह 

हिम्मत थोड़ी सी 
शरम हया छोड़ 
हमाम तोड़ कर अपना 

कहीं बाहर निकल कर 
खुले में नंगा हो जाने की । 

चित्र साभार: https://www.prabhatkhabar.com