उलूक टाइम्स: रायता
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शनिवार, 12 अक्टूबर 2019

शब्द बच के निकल रहे होते हैं बगल से फैली हुयी स्याही के जब कोई दिल लगा कर लिखने के लिये कलम में स्याही भर रहा होता है




लिखा
हुआ भी
रेल गाड़ी
होता है

कहीं
पटरी पर
दौड़
रहा होता है

कहीं
बेपटरी हुआ
औंधा
गिरा होता है

लिखते लिखते
कितनी दूर
निकल
गया होता है

उसे
खुद पता
नहीं होता है

मगर
कलम
जानती है

बहुत
अच्छी तरह से
पहचानती
है

स्याही सूखे
इससे पहले
हमेशा
शब्दों को
अपने
हिसाब से
छानती है

लिखे हुऐ के
कौऐ भी
उड़ते हैं

उड़ते उड़ते
कबूतर
हो लेते हैं

क्या
फर्क पड़ता है
अगर

सफेद
के ऊपर
काला
लिखा होता है

कौन
देखता है

समय
के साथ
लिखा लिखाया
हरे से पीला
हो लेता है

किताबें
पुरानी
हो जाती हैं

लिखाई
से
आती महक

उसकी उम्र
बता जाती है

लिखा हुआ
अकेला
भी होता है

मौके बेमौके
स्टेशन से
रेल पहुँचने
के बाद
निकली भीड़ के
अनगिनत
सिर हो लेता है

शब्द
शब्दों के ऊपर
चढ़ने
शुरु हो जाते हैं

भगदड़
हो जाना
कोई
अजूबा
नहीं होता है

कई शब्द
शब्दों के
जूतों के नीचे
आ कर
कुचल जाते हैं

लाल खून
कहीं
नहीं होता है

ना ही
कहीं के
अखबार रेडियो
या
टी वी
चिल्लाते हैं

कोई
दंगा फसाद
जो क्या
हुआ होता है

सिरफिरे
‘उलूक’ का
रात का
काला चश्मा
सफेद
देख रहा होता है

लिखते लिखते
लिखना लिखाना

घिसी हुई
एक कलम से
फैला हुआ
कुछ रायता सा
हो रहा होता है

शब्द बच के
निकल रहे होते हैं
बगल से
फैली हुयी स्याही के

हर
निकलने वाला
थोड़ी दूर
पहुँच कर

घास
के ऊपर
अपना जूता

साफ
करने के लिये
घिस रहा होता है ।

http://hans.presto.tripod.com



शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

कुछ भी लिख और सोच ले इसी लिखे से शेयर बाजार चढ़ रहा है




ना तो
तू शेर है

ना ही
हाथी है 

फिर
किस लिये
इच्छा
करता है

दहाड़ने की
और
चिंघाड़ने की 

तेरी मर्जी
कैसे
चल सकती है

हिम्मत है
तुझे

फर्जी होने की 

जंगल में होना
और
शिकार करना 

नंगे होना
साथ में
तीर तलवार
होना

कोई
पाषाण युग

थोड़े ना
चल रहा है 

दर्जी है
खुद ही
खुदगर्जी
सिल रहा है

ऊल जलूल
लिखने से
अलग
नहीं
हो जाती है
लेखनी

बहुत से हैं
जानते हैं
पहचानते हैं

चिढ़
के मारे
जान बूझ कर

फजूल
लिख रहा है 

अलग
रह कर

आदमी
अलग नहीं
हो जाता है 

इच्छायें
तो
भीड़ की
जैसी ही हैं

बस
हिम्मत की
कमी है

किस लिये
ठंडा ठंडा
कूल
दिख रहा है 

सीख
क्यों
नहीं लेता है

वायदा कर लेना

फायदा
बहुत है

पैसे
वसूल
हो जाते हैं

दिखाई
देना चाहिये

हर
फटे कोने से
एक उसूल
दिख रहा है

रायता
फैल जाता है

फैलाना
जरूरी है

यही
एक कायदा
होता है
आज के समय में

‘उलूक’

गाँधी
बहुत पहले
बेच दिया गया था

जमाना
विवेकानंद
के
शेयरों पर

आज
नजर रख रहा है

एक
वही है
 जो
सबसे ज्यादा
प्रचलन में है

और
नारों में

खूबसूरत
नजारों में

नाचता
सामने सामने
दिख रहा है ।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com


गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

रात का गंजा दिन का अंधा ‘उलूक’ बस रायता फैला रखा है

बहुत कुछ
कहना है
कैसे
कहा जाये
नहीं कहा
जा सकता है

लिखना
सोच के
हिसाब से
किसने
कह दिया
सब कुछ
साफ साफ
सफेद लिखा
जा सकता है

सब दावा
करते हैं
सफेद झूठ
लिखते हैं

सच
लिखने वाले
शहीद हो
चुके हैं
कई जमाने
पहले
ये जरूर
कहा जा
सकता है

लिखने
लिखाने
के कोर्ट
पढ़े लिखे
वकील
परिपक्व
जज
होते होंगे
बस इतना
कहा जा
सकता है

सबको पता
होता है
सब ही
जानते है
सबकुछ
कुछ
कहते हैं
कुछ कुछ
पढ़ते हैं
कुछ
ज्यादा
टिप्पणी
नहीं देते हैं
कुछ
दे देते हैं
यूँ ही
देना है
करके कुछ
कुछ
अपने अपने
का रिश्ता
अपने अपने
का धंधा
लिखने
लिखाने
ने भी
बना रखा है

‘उलूक’
खींच
अपने बाल
किसी ने
रोका
कहाँ है
बस मगर
थोड़ा सा
हौले हौले

जोर से
खींचना
ठीक नहीं
गालियाँ
खायेंगे
गालियाँ
खाने वाले
कह कर
दिन की
अंधी एक
रात की
चिड़िया को
सरे आम
गंजा बना
रखा है।

चित्र साभार: Dreamstime.com

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

कुछ भी लिख देना लिखना नहीं कहा जाता है


एक बात पूछूँ

पूछ
पर पूछने से पहले ये बता 
किस से पूछ रहा है पता है 

हाँ पता है 
किसी से नहीं पूछ रहा हूँ 

आदत है पूछने की 
बस यूँ ही
ऐसे ही 
कुछ भी कहीं भी पूछ रहा हूँ 

तुमको
कोई परेशानी है 
तो मत बताना 
बताना
जरूरी नहीं होता है 

कान में
बता रहा हूँ वैसे भी 
कोई 
 कुछ नहीं बताता है 
पूछने से ही
गुस्सा हो जाता है 
गुर्राता है 

कहना
शुरु हो जाता है 

अरे तू भी पूछने वालों में 
शामिल हो गया 
मुँह उठाता है 
और पूछने चला आता है 

ये नहीं कि 
वैसे ही हर कोई
पूछने में लगा हुआ होता है 

एक दो पूछने वालों के लिये 
कुछ जवाब सवाब ही कुछ
बना कर क्यों नहीं ले आता है 

हमेशा 
जो दिखे वही साफ साफ बताना 
अच्छा नहीं माना जाता है 

रोटी पका सब्जी देख दाल बना 
भर पेट खा

खाली पीली अपनी थाली 
अपने पेट से बाहर 
किसलिये फालतू में 
झाँकने चला आता है 

‘उलूक’ 
समाज में रहता है 

क्यों नहीं 
रोज ना भी सही कुछ देर के लिये 
सामाजिक क्यों नहीं हो जाता है 

पूछने गाछने के चक्कर में 
किसलिये प्रश्नों का रायता 
इधर उधर फैलाता है ।

चित्र साभार: serengetipest.com