लालिमा सुबह की
चमकती सफेद चाँदी के रंग में
या फिर
या फिर
स्वर्ण की चमक से ढले हुऐ हिमालय
कवि सुमित्रानंदन की तरह सोच भी बने
क्या जाता है सोच लेने में
वरना दुनियाँ ने कौन सी सहनी है
हँसी मुस्कुराहट
किसी के चेहरे की बहुत देर तक
किसी के चेहरे की बहुत देर तक
कहते हैं
समय खुद को ही बदल चुका है
और बढ़ी है भूख भी बहुत
पर
लगता कहाँ है
सारे के सारे
गली मुहल्ले से लेकर
शहर की पौश कौलोनी के
शहर की पौश कौलोनी के
उम्दा ब्रीड के कुत्तों के मुँह से टपकती लार
उनके भरे हुऐ पेटों के आकार से भी प्रभावित कभी नहीं होती
सभी को नोचते चलना है माँस
सूखा हो या खून से सना
पुराना हो सड़ गया हो या ताजा भुना हुआ
बस खुश नहीं दिखना है कोई चेहरा
मुस्कुराता हुआ बहुत देर तक
क्योंकि
जो सिखाया पढ़ाया जा रहा है
वो सब
किताब कापियों तक सिमट कर रह गया
किताब कापियों तक सिमट कर रह गया
और
नहीं तैयार हुई कुछ ममियाँ
नहीं तैयार हुई कुछ ममियाँ
नुची हुई
मुस्कुराहटों के चेहरों के साथ
मुस्कुराहटों के चेहरों के साथ
समय और इतिहास
माफ नहीं करेगा इन सभी भूखों को
जो तैयार हैं
नोचने के लिये कुछ भी कहीं भी
अपनी बारी के इंतजार में
सामने रखे हुऐ कुछ सपनों की लाशों को
दुल्हन बना कर सजाये हुऐ।
चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/
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