उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

खिलौना सोच

कुछ लोग बडे़
तो हो जाते हैं
पर खिलौनों से
खेलने के अपने
बचपन के दिन
नहीं भूल पाते हैं
खिलौनों में चाभी
भर कर भालू
को नचाना
बार्बी डौल में
बैटरी डाल कर
बटन दबाना
आँखे मटकाती
गुड़िया देख कर
खुश हो जाना
उनकी सोच से
निकल ही
नहीं पाता है
सामने किसी के
आते ही उनको
अपना बचपन
याद आ जाता है
खिलौना प्रेम पुन:
एक बार और
जागृत हो जाता है
खिलौनों की तरह
करता रहे कोई
उनके आगे या पीछे
कहीं भी कभी भी
तब तक वो
दिखाते हैं ऎसा
जैसे उनको कुछ
मजा नहीं आता है
जरा सा खिलौनापन
को छोड़ कर कोई
अगर कुछ अलग
करना चाहता है
तुरंत उनको समझ
में आ जाता है
अब उनका खिलौना
उनके हाथ से
निकल जाता है
सोच कर कि अब
आगे तो नहीं
कोई उनसे कहीं
बढ़ जाता है
फटाफट वो कुछ
ऎसा काम ढूँढ कर
ले आते है
खिलौने तो क्या
अच्छे भले आदमी
जो नहीं कर पाते है
फिर तो जब
उनका खिलौना
आदमी वाला काम
नहीं कर पाता है
तो वो ऎसा
दिखाते है
जैसा कि
खिलौने तो
उनको बिल्कुल
भी पसंद
नहीं आते हैं ।

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

बात की बात

बात पहले भी
निकलती थी
दूर तलक
भी जाती थी
बहुत समय
नहीं लगता था
पता नहीं कैसे
फैल जाती थी
साधन नहीं थे
आज के जैसे
बात तब भी
उछल जाती थी
आज भी बहुत
बात होती है
बात कभी तो
बाद में होती है
उससे पहले किसी
ना किसी के
पास होती है
कोई किसी से
नहीं पूछता है
अपने आप ही
आ जाती है
आज की बात में
वो बात पर नजर
नहीं  आती है
बात बडी़ बडी़
बातों के बीच में
कहीं खो जाती है
बहुत मुश्किल से
कोई बात का होना
बता पाता है
बात का ठिकाना
भी खोज लाता है
दबी हुई जबान से
बातों के बीच से
बात को निकाल
कर लाता है
उस बात की बात
लोग बस बनाते
ही चले जाते हैं
गाँधी जो क्या हैं 
कोई यहाँ जो
बात कहते कहते
देश को आजाद
कर ले जाते हैं
बात वैसे ही
कच्ची निकला
करती है अभी भी
लेकिन अब बात
को पहले लोग
पूरा पकाते हैं
मसाले नमक
मिर्च साथ में
मिलाते  हैं
जब बात के
होने का मतलब
निकल जाता है
बात बनाने वाला
खतरे को पार कर
अपने को बचा
ले जाता है
बात को तरीके से
सजाया जाता है
मौका देख कर
पूरा का पूरा
फैलाया जाता है ।

बुधवार, 19 सितंबर 2012

महापुरुष

बहुत कुछ कहें
या सब कुछ
कोई फर्क
नहीं होता है
एक महापुरुष
के पास जितना
अपना होता है
कहीं भी नहीं
उतना होता है
लिखना शुरु हो जाये
भरते चले जाते हैं
गागर सागरों से
जाते जाते अगर
लिख भी जाता है
जीवनवृतांत
कुछ नदियाँ नीर भरी
नीली नीली सी
फैल जाती हैं
गागर फिर भी
छलकता हुआ ही
नजर आता है
बचा हुआ भी इतना
ज्यादा होता है
एक दूसरा शख्स
उसपर उसकी
आत्मकथा लिख
ले जाता है
पन्ने दर पन्ने
किताब से किताब
होता हुआ वो कहीं
से शुरु होता हुआ
कहीं भी खत्म
नहीं हो पाता है
आज हर शख्स
अपने में एक
महापुरुष पाता है
एक पन्ना लिखना
भी चाहे तो भी
पूरा नहीं कर पाता है
महापुरुषों की
श्रेणी में फिर भी
आने का जुगाड़
लगाने का कोई
भी मौका नहीं
गवाना चाहता है ।

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

फेसबुक पर मिले एक संदेश का जवाब: बकवास रहने दीजिये कविता मत कहिये जनाब

S.k. SrivastavaJoshi ji ajkal apki kavitayen nahi aa rahi hai.



हाँ 
वो
आजकल 
नहीं आ रही है
जो बकवास आपको
कविता नजर आ रही है 

पता ही 
नहीं लग पा रहा है 
कहाँ जा रही है 

रोज ही 
कुछ ना कुछ 
देने आ जाती थी 
कुछ दिन से लग रहा है 
सब नहीं दे जाती थी 
कुछ कुछ छुपा भी ले जाती थी 

वैसे वो
आये 
या ना आये 
बहुत अंतर नहीं आता है 

आती है तो 
कोई ना कोई 
कुछ ना कुछ कह जाता है 
नहीं आती है 
तब भी खाना पच ही जाता है 

अब
जब 
आपने कहा 
वो आजकल नहीं आ रही है 
हमे भी लगा 
वाकई वो नहीं आ रही है 

फिर अगर
वो 
नहीं आ रही है 
तो पता तो लगना ही चाहिये 
कि वो 
कहाँ जा रही है 

अब 
आप ही
पता 
लगा दीजिये ना 
कुछ हमारा भी भला हो जायेगा 
कुछ होगा या नहीं 
ये बाद में फिर देखा जायेगा 

कम से कम 
आप की तरह कोई मेहरबान 
उसको पकड़ कर
वापिस 
मेरे पास ले आयेगा 

वापिस आ गयी 
फिर से
आने 
जाने लग जायेगी 
जैसे पहले 
आया जाया कर रही थी 
करना शुरु हो जायेगी 

फिर 
आप भी नहीं कह पायेंगे 
वो आजकल 
क्यों नहीं आ रही है 

क्या करें कैसे लिखें
बकवास ही सही
जब वो 
हमको ही आजकल
कुछ 
नहीं बता रही है

'उलूक' की बकवास 
कविता
कही जा रही है
बिना बात इतरा रही है।

चित्र साभार: 
https://sites.google.com/

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

'ए' लो चाहे 'यू' लेलो

जल्दी बहुत वो
ऎसा कानून
लेकर आयेगी
कोई भी बात
अब खुले आम
नहीं कही जायेगी
एक एक को देखना
मनमोहन कृष्ण
बना ले जायेगी
कैसी भी बात हो
खुले आम बिल्कुल
नहीं कही जायेगी
कहने लायक है
या नहीं है
एक कमेटी बतायेगी
हर काम के
अलग अलग सेंसर
बोर्ड बनायेगी
बात पहले तराजू में
तुलवाई जायेगी
हल्की और भारी
अलग अलग
बताई जायेगी
कोई 'ए' तो कोई 'यू'
श्रेंणी में रखी जायेगी
उसी हिसाब का
प्रमाणपत्र पायेगी
श्रीमति जी को
लिखी चिट्ठी भी
पहले उनको खोल
कर दिखलाई जायेगी
प्रियतम लिखें
प्रिय लिखें
या ऎ जी लिखें
सरकारी कमेटी
ये सब बतायेगी
जनता आदतों को
बदल अगर नहीं पायेगी
इन्सान की तरह
अगर रह जायेगी
पूँछ हिलाना नहीं
कुछ सीख पायेगी
कमेटी के सामने
एक बुलवाई जायेगी
पूँछ कटी हुई एक
हाथ में दे दी जायेगी
कहने में साफ बात
हमको भी शर्म आयेगी
लेकिन फिर भी
इशारों में बताई जायेगी
एक पूँछ वाला जीव
बना दी जायेगी
अपने माथे पर 'यू'
चिपका हुआ पायेगी ।