उलूक टाइम्स

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

बिल्ली जब जाती है दिल्ली चूहा बना दिया जाता सरदार है



नदी है नावें है बारिश है बाढ़ है
नावें पुरानी हैं छेद है पानी है
पतवार हैं हजार हैं
पार जाने को हर कोई भी तैयार है

बैठने को पूछना नहीं है कुर्सियों की भरमार है

गंजे की कंघी है
सपने के बालों को रहा संवार है

लाईन है दिखानी है
पीछे के रास्ते पूजा करवानी है
बारी का करना नहीं इंतजार है

नियम हैं कोर्ट है
कचहरी है वकील हैं
दावे हैं वादे हैं वाद हैं परिवाद हैं
फैसला करने को न्यायाधीश तैयार है

भगवान है पूजा है मंत्र हैं पंडित है 
दक्षिणा माँगने का भी एक अधिकार है

पढ़ना है पढ़ाना है स्कूल जरुरी जाना है
सीखने सिखाने का बाजार गुलजार है

धोती है कुर्ता है झोला है लाठी है
बापू की फोटो है 
मास्साब तबादले के लिये
पीने पिलाने को खुशी खुशी तैयार है

‘उलूक’ के पास काम नहीं कुछ
अड़ोस पड़ोस की चुगली का
बना लिया व्यापार है ।

सोमवार, 25 अगस्त 2014

गलतफहमी में ही सही लेकिन कभी कोई ऐसे ही कुछ समझ चुका है जैसा नजर आने लगता है थोड़ी देर के लिये ही सही

कुछ तो
अच्छा ही
लगता होगा

एक
गूँगे बहरे को

जब

उसे
कुछ देर
के लिये
ही सही

महसूस
होता होगा

जैसे
उसके
इशारों को
थोड़ा थोड़ा

उसके
आस पास के

सामान्य
हाथ पैर
आँख नाक कान
दिमाग वाले

समझ
रहे हों
के जैसे
भाव देना
शुरु करते होंगे

समझ में
आता ही होगा

किसी
ना किसी को

कि एक
छोटी सी
बात को
बताने के लिये

उसके पास
शब्द कभी भी
नहीं होते होंगे

कहना
सुनना बताना
सब कुछ
करना होता होगा उसे

हाथ की
अँगुलियों से ही

या कुछ कुछ
मुँह बनाते हुऐ ही

बहुत
खुशी
झलकती होगी
उसके चेहरे पर

बहुत सारे
लोग नहीं भी

बस
केवल एक ही
समझ लेता होगा
उसकी बात को
उसके भावों को

या
दर्द और खुशी
के बीच की

उसकी
कुछ यात्राओं को

सोच भी
कभी कभी
एक ऐसा
बहुत छोटा
सा बच्चा
हो जाती है

जो एक
टेढ़ी मेढ़ी
लकड़ी को

एक
खिलौना
समझ कर
ताली बजाना
शुरु कर देता हो

कुछ भी
कैसे भी कहा जाये

सीधे सीधे
ना सही
कुछ इशारों
में ही सही

जरूरी नहीं है

अपनी
बात को
कहने के लिये
एक कवि या
लेखक हो जाना
हमेशा ही

लेकिन
बिना पूँछ के
बंदर के नाच पर भी

कभी
किसी दिन
देखने वाले
जरूर ध्यान देते हैं

अगर
वो रोज
नाचता है

‘उलूक’

किसी
दिन तुझे

इस तरह
का लगने
लगता है
कुछ कुछ
अगर

खुश
हो
लिया कर
तू भी
थोड़ी देर
के लिये
ही सही ।

रविवार, 24 अगस्त 2014

आईने के पीछे भी होता है बहुत कुछ सामने वाले जिसे नहीं देख पाते हैं

कहा जाता
रहा है

आज
से नहीं
कई सदियों से

सोच
उतर आती है
शक्ल में

दिल की बातें
तैरने लगती हैं
आँखों के पानी में

हाव भाव
चलने बोलने से
पता चल जाता है

किसी
के भी ठिकाने
का अता पता

बशर्ते
जो बोला या
कहा जा रहा हो
वो स्वत: स्फूर्त हो

बस
यहीं पर
वहम होना
शुरु हो जाता है

दिखने
लगता है
पटेल गाँधी सुभाष
भगत राजगुरु
और
कोई ऐसी ही
शख्सियत

उसी तरह
जैसे बैठा हो कोई
किसी सनीमा हॉल में

और
चल रही हो
पर्दे पर कोई फिल्म

हो रही हो
विजय सच की
झूठ के ऊपर

वहम
वहम बने रहे
तब तक सब कुछ
ठीक चलता है

जैसे
रेल चल रही
होती है पटरी पर

लेकिन
वहम टूटना
शुरु होते ही हैं

आईने
की पालिश
हमेशा काँच से
चिपकी नहीं
रह पाती है

और
जिस दिन से
काँच के आर पार
दिखना शुरु
होने लगता है

काँच
का टुकड़ा
आईना ही
नहीं रहता है

काँच
का टुकड़ा
एक सच होता है

जो
आईना कभी भी
नहीं हो सकता है

उसे
एक सच
बनाया जाता है

एक
काँच पर
पालिश चढ़ा कर

बहुत
कम होते हैं
लेकिन होते हैं
कुछ बेवकूफ लोग

जो
कभी भी
कुछ नहीं
सीख पाते हैं

जहाँ
समय के साथ
लगभग सभी लोग
थोड़ा या ज्यादा
आईना हो ही जाते हैं

उनके
पार देखने की
कितनी भी कोशिश
कर ली जाये

वो
वही दिखाते हैं
जो वो होते ही नहीं है

और
ऐसे सारे आईने
एक दूसरे को
समझते बूझते हैं

कभी
एक दूसरे के
आमने सामने
नहीं आते हैं

जहाँ
भी देखिये
एक साथ

एक
दूसरे के लिये
कंधे से कंधा
मिलाये
पाये जाते हैं ।

शनिवार, 23 अगस्त 2014

खुद को भी पता कहाँ कुछ भी होता है कहाँ किस समय कौन क्या किस के लिये इस तरह भी कह देता है

यूँ ही कुछ भी
कहीं भी
कहने वाला
नहीं कह देता है
हर किसी की
आदत सब कुछ
हर किसी से
कह देने की भी
नहीं होती है
कुछ कहने के
बारे में किसी से
कुछ पूछ लेना
कहने से पहले भी
बहुत जरूरी
नहीं होता है
फिर भी मन
करता है कह
लेना सब कुछ
सब से चिल्ला
चिल्ला कर
पर कौन कितना
बहरा होता है
देखने से कुछ भी
पता नहीं होता है
सब सामान्य
सा दिखता है
सामने वाला भी
अपने जैसा ही
आम लगता है
किसी का भी
होता होगा आदमी
लेबल लगा कर
कोई भी बेवकूफ
जनता के बीच
खड़ा नहीं होता है
इतना तो पक्का
ही होता है
घाव छोटा हो
या कुछ बड़ा भी
किसी ना किसी
के पास कहीं ना कहीं
जरूर बना होता है
बात उसी की
लेकर कहने के लिये
ही खड़ा होता है
माईक के सामने
शुरु करते ही
सब कुछ भूल कर
अपनी नहीं किसी
बड़ी तूफानी
शैतानी आत्मा
को जामा अच्छाई
का औढ़ा कर
अपनी सोच में
ओहदा भगवान
का दे देता है
अपनी बात किसी
और दिन कहने
के लिये रख कर
सबको पागल
बनाने वाले पागल
को भगवान तक
कह ही देता है
आज सोच बैठा
था ‘उलूक’ भी
कहने की सब कुछ
सब से यहाँ आकर
नहीं कह सका
रोज की तरह
सब को पता है
कुछ नहीं कहता है
बस कुछ कुछ
यूँ ही हमेशा
इसी तरह से
आ आ कर
कहने की सूचना
जरूर दे देता है
कुछ भी कहीं भी
यूँ ही कभी भी
किसी से भी
तो नहीं कह
देना होता है ।
 
   

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

आभासी असली से पार पा ही जाता है

असली दुनियाँ अपने
आस पास की
निपटा के आता है
लबादे एक नहीं
बहुत सारे
प्याज के छिलकों
की तरह के कई कई
रास्ते भर उतारता
चला जाता है
घर से चला होता है
सुबह सुबह
नौ बजे का
सरकारी सायरन
जब भगाता है
कोशिश ओढ़ने की
एक नई
मुस्कुराहट
रोज आईने
के सामने
कर के आता है
शाम होते धूल
की कई परतों
से आसमान
अपने सिर
के ऊपर का
पटा पाता है
होता सब वही है
साथ उसके
जिसके बारे में
सारी रात
और सुबह
हिसाब किताब
रोज का रोज
बिना किसी
कापी किताब
और पैन के
लगाता है
चैन की बैचेनी से
दोस्ती तोड़ने की
तरकीबें खरीदने
के बाजार अपनी
सोच में सजाता है
रोज होता है शुरु
एक कल्पना से
दिन हमेशा
संकल्प एक नया
एक नई उम्मीद
भी जगाता है
लौटते लौटते
थक चुकी होती है
असली दुनियाँ
हर तरफ आभासी
दुनियाँ का नशा
जैसे काँच के
गिलास ले कर
सामने आ जाता है
लबादे खुल चुके
होते हैं सब
कुछ गिर चुके होते हैं
कब कहाँ अंदाज
भी नहीं सा कुछ
आ पाता है
जो होता है
वो हो रहा होता है
और होता रहेगा
उसी तरह असली
के हिसाब से
नकली होने का
मजा आना शुरु
होते ही आभासी
का सुरुर चारों
तरफ छा जाता है ।