उलूक टाइम्स

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

लिखा होता है कुछ और ही और इशारे कुछ और जैसे दे रहा होता है

कारवाँ कुछ ऐसे
जिनके शुरु होने
के बारे में पता
नही होता है
ना ही पता होता है
उनकी मंजिल का
बस यूँ ही होते होते
महसूस होता है
शामिल हुआ होना
किसी एक ऐसी
यात्रा में जहाँ कहीं
कुछ नहीं होता है
आसपास क्या
कहीं दूर दूर
बहुत दूर तक
घने जंगल के बीच
पेड़ों के बीच से
आती रोशनी की
किरणों से बनते
कोन या फिर
सरसराती
हवाओं का शोर
गिरते पानी की
छलछलाहट
या फिर झिंगुरों
की आवाज
सबका अलग
अलग अपना
अस्तित्व
समझने की
जरूरत कुछ भी
नहीं होती है
फिर भी अच्छा सा
महसूस होता है
कभी कभी गुजर
लेना कुछ दूर तक
बहुत सारे चलते
कारवाओं के बीच
से चुपचाप
बिना कुछ कहे सुने
लिखते लिखते
बन चुके शब्दों के
कारवाओं के बीच
निशब्द कुछ शब्द
भी यही करते हैं
मौन रहकर कुछ
कहते भी हैं और
नहीं भी कहते हैं
समझने की कोशिश
करना हमेशा जरूरी
भी नहीं होता है
कभी कभी किसी का
लिखा कुछ नहीं भी
कह रहा होता है
पढ़ने वाला बस
एक नजर कुछ
देर बिना पढ़े
लिखे लिखाये
को बस देख
रहा होता है
समझ में कुछ
नहीं भी आये
फिर भी एक
सुकून जैसा कहीं
अंदर की ओर
कहीं से कहीं को
बह रहा होता है
महसूस भी कुछ
हो रहा होता है ।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com

बुधवार, 24 सितंबर 2014

बहुत कुछ है तेरे पास सिखाने के लिये पुराना पड़ा हुआ कुछ नई बाते नये जमाने की सिखाना भी सीख


सीख क्यों नहीं लेता 
बहुत कुछ है सीखने के लिये सीखे सिखाये से इतर भी 
कुछ इधर उधर का भी सीख 

ज्यादा लिखी लिखाई पर
भरोसा करना ठीक नहीं होता 
जिसे सीख कर
ज्यादा से ज्यादा 
माँगना शुरु कर सकता है भीख 

भीख भी
सबके नसीब में नहीं होती मिलनी 
पहले कुछ इधर भी होना सीख 

इधर आकर सीखा जायेगा बहुत कुछ इधर का 
उसके बाद इधर से उधर होना भी कुछ सीख 

बेनामी आदमी हो लेना उपलब्धि नहीं मानी जाती 
किसी नामी आदमी का खास आदमी होना भी सीख 

लाल हरी नीली गेरुयी पट्टियाँ ही अब होती हैं पहचान 
कुछ ना कुछ होने की सतरंगी सोच से निकल 
किसी एक रंग में खुद को रंगने रंगाने की सीख 

रोज गिरता है अपनी नजरों से 
लुटेरों की सफलता की दावतें देख कर 
कभी सब कुछ अनदेखा कर
अपनी चोर नजर उठाना भी सीख 

जो सब सीख रहे हैं सिखा रहे हैं 
कभी कभी उन की शरण में जाना भी सीख 

अपना भला हो नहीं सकता तुझसे 
तेरे सीखे हुऐ से किसी और का भला 
उनकी सीख को सीख कर ही कर ले जाना सीख 

कितना लिखेगा
कब तक लिखेगा इस तरह से ‘उलूक’ 
कभी किसी दिन खाली सफेद पन्नों को
थोड़ी सी साँस लेने के लिये भी
छोड़ जाना भी सीख । 

चित्र साभार: http://www.clipartpal.com/

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

सब कुछ सब की समझ में आना जरूरी नहीं पर एक भोगा हुआ छाँछ को फूँकने के लिये हवा जरूर बनाता है

मकड़ी की
फितरत है
क्या करे

पेट भरने के लिये
खून चूस लेती है

उतना ही खून
जितनी उसकी
भूख होती है

मकड़ियाँ मिल कर
जाल नहीं बुनती हैं

ना ही शिकार को
घेरने के लिये कोई
षडयंत्र करने की
उनको कोई
जरूरत होती है

हर आदमी मकड़ी
नहीं होता है
ना ही कभी होने
की ही सोचता है

कुछ आदमी जरूर
मकड़ी हो जाते हैं
खून चूसते नहीं है
खून सुखाते हैं

शायद ये सब उन्हे
उनके पूर्वजों के
खून से ही
मिल जाता है

विज्ञान का सूत्र भी
कुछ ऐसा ही
समझाता है

खून सुखाने के लिये
कहीं कोई यंत्र
नहीं पाया जाता है

एक खून सुखाने वाला
दूसरे खून सुखाने वाले
की हरकतों से उसे
पहचान जाता है

सारे खून सुखाने वाले
एक दूसरे के साथ
मिल जुल कर
भाई चारा निभाते हैं

हजारों की भीड़ भी हो
कोई फर्क नहीं पड़ता है

अपने बिछुड़े हुऐ
खून की गंध बहुत
दूर से ही पा जाते हैं

अकेले काम करना
इनकी फितरत में
नहीं होता है

किसी साफ खून वाले
को सूँघते ही जागरूक
हो कर शुरु हो जाते हैं

यंत्र उनका
एक षडयंत्र होता है
पता ही नहीं चलता है
खून सूखता चलता है

क्या ये एक गजब
की बात नहीं है

‘उलूक’ भी
ये सब
देख सुन कर
सोचना शुरु करता है

ऐसा कारनामा
जिसमें
ना जाल होता है
ना मक्खी फंसती है
ना खून निकलता है

मकड़ी और मक्खी
आमने सामने होते हैं
मकड़ी मुस्कुराती है
मक्खी के साथ बैठी
भी नजर आती है

खून बस सूख जाता है
किसी को कुछ भी
पता नहीं चल पाता है

मकड़ियाँ कब से
पकड़ रही हैं
मक्खियों को

और इससे ज्यादा
उनसे कई जमानों तक
और कुछ नया जैसा
नहीं हो पाता है

पर उनका सिखाया
पाठ आदमी के लिये
वरदान हो जाता है

होता हुआ कहीं कुछ
नजर नहीं आता है
लाठी भी नहीं टूटती है
और साँप भी मर जाता है ।

चित्र साभार: http://faredlisovzmesy.blogspot.in

सोमवार, 22 सितंबर 2014

सब कुछ नीचे का ही क्यों कहा जाये जब कभी ऊपर का भी होना होता है

ऊपर
पहुँचने पर

अब
ऊपर
कहने पर

पूछ
मत बैठना

कौन सा ऊपर

वही ऊपर
जहाँ से ऊपर

सुना है
कुछ भी
नहीं होता है

बचा कुचा
बाकी जो
भी होता है

सब
उस ऊपर
के नीचे
ही होता है

हाँ
तो उस ऊपर

अब
मुझे ही
कुछ संशय
यहाँ होना
यहीं से
शुरु होता है

ऊपर
अगर पहुँच
भी गया तो

कहाँ
भेजा जायेगा

दो जगह

यहाँ
नीचे वालों को
समझाई
गई होती हैंं 

जिंदा
रहते रहते

एक
ऊँची जगह
पर स्वर्ग

और
एक
नीची जगह
पर नरक
होता है

अब
ऐसी बात
पूछी भी
किससे जाये

पता नहीं
किस किस को
उस ऊपर
के बारे में

क्या क्या
पता होता है

यहाँ के
हिसाब से
इस जमाने में
सही ही
सही होता है

और
सही का ही
बहुमत होता है

अल्पमत वाला
हमेशा ही
गलत होता है

सही को
देख देख कर
खुंदक में
कुछ ना कुछ
कहता रहता है

उसी को
कहना होता है
उसी कहने को
उसी को
सुनना भी होता है

याद
ना रह जाये कहीं
बहुत दिनों तक

इसलिये
लिख लिखा के
कहीं पर
रख देना होता है

इस सब
लिखे लिखाये
के
हिसाब किताब
पर ही

ऊपर
जा कर के
कर देना होता है

‘उलूक’
नीचे के सारे
स्वर्गवासियों के साथ

जिसे
नहीं रहना होता है

उसे
ऊपर जाकर भी

ऊपर के
नीचे वाले में
ही रहना होता है ।

चित्र साभार: http://theologyclipart.com/

रविवार, 21 सितंबर 2014

बीमार सोच हो जाये तो एक मजबूत शब्द भी बीमार हो जाता है

शब्दों का
भी सूखता
है खून
कम हो
जाता है
हीमोग्लोबिन

शब्द भी
हमेशा
नहीं रह
पाते हैं
ताकतवर

झुकना शुरु
हो जाते हैं
कभी
लड़खड़ाते हैं
कई बार
गिर भी
जाते हैं

बात इस
तरह की
कुछ पचती
नहीं है
अजीब सी
ही नहीं
बहुत ही
अजीब सी
लगती है

पर क्या
किया जाये
कई बार
सामने वाले
के मुँह से
निकलते
मजबूत
शब्द भी
मजबूर
कर देते हैं
विवश
कर देते हैं
सोचने के लिये
कि
बोलने वाला
बहुत ही
खूबसूरत
होता है
सभ्य भी
दिखता है
उम्र पक
गई होती है
और
सलीका
इतना कि
जूते की
सतह में
सामने
वाले का
अक्स
दिखता है

फिर भी
बोलना
शुरु करता
है तो
गिरना
शुरु हो
जाते हैं
वो शब्द भी
जो बहुत
मजबूत
शब्द माने
जाते हैं

इतिहास
गवाह
होता है
किसी एक
खाली धोती
पहनने वाले
शख्स के
द्वारा
मजबूती से
पूरी देश
की जनता
से बोले
जाते हैं

सुनने वाले
को देते
हैं उर्जा
बीमार
से बीमार
को खड़े
होने की
ताकत
दे जाते हैं
और
 वही शब्द
निकलते
ही किसी
के मुँह से
खुद ही
बीमार
हो जाते हैं
लड़खड़ाने
लगते हैं
और
कभी कभी
गिरना
भी शुरु
हो जाते हैं

एक
शब्द ही
जैसे खुद
अपनी ऊर्जा
को पचा
जाता है
अर्थी के
साथ चल
रहे लोगों के
मुँह से
निकलता
 ‘राम नाम सत्य है’
जैसा हो
जाता है ।

चित्र साभार: http://expresslyspeaking.wordpress.com/