उलूक टाइम्स

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

‘उलूक’ उवाच पर काहे अपना सर खपाता है

किसी को
कुछ 
समझाने के लिये कुछ नहीं लिखा जाता है

हर कोई 
समझदार होता है
जो आता है अपने हिसाब से ही आता है

लिखे हुऐ पर अगर 
बहुत थोड़ा सा ही
लिखा हुआ नजर आता है

आने वाला 
किसने कह दिया
कुछ लिखने लिखाने के लिये ही आता है

इतनी बेशर्मी होना 
भी तो अच्छी बात नहीं होती है
नहीं लिखने पर किसी के कुछ भी
नाराज नहीं हुआ जाता है

तहजीब का देश है
पैरों के निशान तो होते ही हैं
मिट्टी उठा कर थोड़ी सी सर से लगाया ही जाता है

कोयले का ही एक 
प्रकार होता है हीरा भी
कोयले से कम से कम नमस्कार तो किया जाता है

‘उलूक’ मत 
उठाया कर ऐसे अजीब से सवाल
जवाब देना चाहे कोई तो भी नहीं दिया जाता है

ठेकेदारी करने 
के भी उसूल होते हैं
समझ लेना चहिये
लिखने लिखाने के टेंडर कहा होते हैं
कहाँ खोले जाते हैं
हर बात बताने वाला
एक मास्टर ही हो ऐसा जरूरी भी नहीं है
और माना भी जाता है ।

चित्र साभार: www.mycutegraphics.com

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

एक दिमाग कम खर्च कर के दिमाग को दिमागों की बचत कराता है

बुद्धिजीवी
की एक
खासियत
ये होती है

वो अपने
दिमाग को
कम काम
में लाता है

जानता है बचाना
खर्च होने से
दिमाग को

एक समूह
में उनके
एक समय में
एक ही अपने
दिमाग को
चलाता है

पता होता है
चल रहा है दिमाग
किसका किस समय

उस समय
बाकी सब
का दिमाग
बंद हो जाता है

पढ़ना लिखना
जितना ज्यादा
किया होता है जिसने

उसका दिमाग
उतना अपने को
बचाना सीख जाता है

सबसे ज्यादा
दिमाग बचाने
का तरीका

सबसे बड़े स्कूल के
मास्टर को ही आता है

एक छोड़ता है
राकेट एक

किसी ऐसी बात का
जिसके छूटते ही
उसके नहीं
होने का आभास
सबको हो ही जाता है

कोई कुछ
नहीं कहता है
हर कोई
बंद कर दिमाग

राकेट के
मंगल पर
कहीं उतरने
के खयालों में
खो जाता है


पढ़ने पढ़ाने वाले

सबसे बड़े स्कूल के
मास्टरों के
इस खेल को
देखकर
छोटे मोटे स्कूलों

के मास्टरों का
वैसे ही
दम
फूल जाता है


मास्टरों के
बंद दिमाग

होते देखकर
पढ़ने लिखने
वाला
मौज में आ जाता है


जब पिता ही
चुप हो जाये

किसी समाज में
बेटे बेटियों के
बोलने के लिये

क्या कुछ कहाँ
रह जाता है


वैज्ञानिक
सोच का ही

एक कमाल
है यह भी


एक दिमाग
बुद्धिजीवी का

कितने दिमागों
का
फ्यूज
इस तरह
उड़ाता है


दिमाग ही

दिमागी खर्च

बचा बचा कर

इस तरह

बिना दिमाग का

एक
नया
समाज बनाता है ।


चित्र साभार: www.clipartpanda.com

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

हैरान क्यों होना है अगर शेर बकरियों के बीच मिमियाने लगा है


पत्थर
होता होगा
कभी किसी जमाने में 
इस जमाने में
भगवान कहलाने लगा है 

कैसे
हुआ होगा ये सब 
धीरे धीरे
कुछ कुछ अब
समझ में आने लगा है 

एक साफ
सफेद झूठ को
सच बनाने के लिये 
जब से कोई
भीड़
अपने आस पास बनाने लगा है 

झूठ के
पर नहीं होते हैं
उसे उड़ना भी कौन सा है 
किसी
सच को दबाने के लिये 
झूठा
जब से जोर से चिल्लाने लगा है 

शक
होने लगा है
अपनी आँखों के
ठीक होने पर भी कभी 
सामने से
दिख रहे खंडहर को
हर कोई
ताजमहल बताने लगा है 

रस्में
बदल रही हैं
बहुत तेजी से इस जमाने की
‘उलूक’
शर्म को बेचकर
बेशर्म होने में 
तुझे भी अब
बहुत मजा आने लगा है 

तेरा कसूर
है या नहीं इस सब में
फैसला कौन करे 
सच भी
भीड़ के साथ जब से
आने जाने लगा है ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

परीक्षा उत्तर पुस्तिका की आत्मा की कथा यानी उसके भूत की व्यथा

मास्टर होने
के कारण
कभी कभी
अपने हथियारों
पर नजर
चली ही
जाती है
पेन पेंसिल
किताब कापी
चौक ब्लैक बोर्ड
आदि में सबसे
महत्वपूर्ण
छात्र छात्राओं
की परीक्षा
उत्तर पुस्तिका
ही बस एक
नजर आती है
और जैसे ही
किसी दिन
अखबार या
दूरदर्शन में
कोई कापी
की खबर
सामने से
आ जाती है
अपनी ही
दुखती रग
जैसे
उधड़ कर
दुखना शुरु
हो जाती है
उत्तर पुस्तिका
तेरी कहानी
भी कोई
छोटी मोटी
नहीं होती है
तेरे छपने
के ठेके से
शुरु होती है
मुहर लग कर
सजा सँवर कर
लिखने वाले
तक पहुँचती है
लिखता भी है
लिखने वाला
पहरे में
डाकू जैसे
कक्ष निरीक्षकों
के सामने
दो से लेकर
तीन सौ
मिनट लगा कर
उसे कहाँ
पता होता है
किसी
मूल्याँकन केंद्र
नामक ठेके
पर जा कर
बड़ी संख्या में
बड़े पैसे में
बिकती है
किस्मत होती
है उसकी
अगर कोई
मास्टर उसे
जाँच पाता है
देखिये
जरा कुछ जैसे
आज का
एन डी टी वी
चपरासियों
और बाबुओं
से उनको
कहीं जाँचता
हुआ अपने
देश में ही
कहीं
दिखाता है
लोग बात
करते हैं
भ्रष्ठ होने
दिखने वाले
लोगों की
असली
सफेदपोश
इसी तरह के
शिक्षा के काले
व्यापार करने
वालों को
समाज लेकिन
भूल जाता है
जूते की माला
पहनने लायक
अपनी काली
करतूतों को
अपने मूल्यों
के भाषणों की
खिसियाहट में
छिपा ले जाता है
देखिये
इधर भी
कुछ जनाब
देश के
कर्णधार
हैं आप ही
करोंड़ों
अरबों के
इस काले धंधे
के व्यापार में
बिना सबूतों के
क्या क्या कर
दिया जाता है ।

चित्र साभार: examination paper : owl and pencil

रविवार, 12 अप्रैल 2015

जय हो जय हो कह कह कर कोई जय जय कार कर रहा था

पहले दिन की खबर
बकाया चित्र के साथ थी
पकड़ा गया था एक
सरकारी चिकित्सक
लेते हुऐ शुल्क मरीज से
मात्र साढ़े तीन सौ रुपिये
सतर्क सतर्कता विभाग के
सतर्क दल के द्वारा
सतर्कता अधिकारी था
मूँछों में ताव दे रहा था
पैसे कम थे पर खबर
एक बड़ी दे रहा था
दूसरे दिन वही
चिकित्सक था
लोगों की भी‌ड़ से
घिरा हुआ था
अखबार में चित्र
बदल चुका था
चिकित्सक था मगर
मालायें पहना हुआ था
न्यायधिकारी से
डाँठ खा कर
सतर्कता अधिकारी
खिसियानी हँसी कहीं
कोने में रो रहा था
ऐसा भी अखबार
ही कह रहा था
दो दिन की एक
ही खबर थी
लिखे लिखाये में
कुछ इधर का
उधर हो रहा था
कुछ उधर का
इधर हो रहा था
‘उलूक’ इस सब पर
अपनी कानी आँख से
रात के अंधेरे में
नजर रख रहा था
उसे गर्व हो रहा था
कौम में उसकी
जो भी जो कुछ
कर रहा था
बहुत सतर्क हो
कर कर रहा था
सतर्कता से
करने के कारण
साढ़े तीन सौ का
साढ़े तीन सौ गुना
इधर का उधर
कर रहा था
चित्र, अखबार,
उसके लोगों का
खबर के साथ
खबरची हमेशा
भर रहा था
सतर्क सतर्कता
विभाग के
सतर्क दल का
सतर्क अधिकारी
पढ़ाना लिखाना
सिखाने वालों के
पढ़ने पढ़ाने को
दुआ सलाम
कर रहा था
पढ़ने पढ़ाने के
कई फायदे में से
असली फायदे का
पता चल रहा था
कोई पाँव छू रहा था
कोई प्रणाम कर रहा था
ऊपर वाले का गुणगाँन
विदेश में जा जा कर
देश का प्रधान कर रहा था ।

चित्र साभार: www.clipartheaven.com