उलूक टाइम्स

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

फैसले के ऊपर चढ़ गई अधिसूचना एक पैग जरा और खींच ना

उच्च न्यायालय
राष्ट्रीय राज मार्ग
शटर गिराये
शराब की दुकानें
पता नहीं क्यों
अबकि बार

शहर की
बदनाम गली
गली से सटी
स्कूल की
चाहरदीवार


दोनों के बीच
में फालतू में
तनी खड़ी
बेकार
बेचती बाजार

बाजार में
फड़बाजों का शोर

आलू बीस के
ढाई किलो
आलू बीस
के तीन किलो
ले लो जनाब ले लो

मौका हाथ से
निकल जायेगा
कल तक सारा
आलू खत्म
हो जायेगा
फिर भी गरीब
खरीदने को
नहीं तैयार

शराब की
किल्लत की मार

सड़क पर
लड़खड़ाते
शाम के समय
घर को वापस जाते
दिहाड़ी मजदूर

जेब पहले से
ज्यादा हलकी
चौथाई के पैसे
की जगह
पूरे के पैसे
देने को मजबूर

चुनाव में पिया
धीरे धीरे
उतरता हुआ नशा
पहाड़ के जंगलों में
जगह जगह बिखरी
खाली बोतलें
पता नहीं चला
अभी तक
पिलाने वाले
और पीने वाले
में से कौन फंसा

पुरानी सरकार
की पुरानी बोतलों
का पुराना पानी
नयी सरकार की
नयी बोतलों
की चढ़ती जवानी

अभी अभी पैदा
हुये विकास की
दौड़ती
कड़क सड़क
को भड़कते हुऐ
लचीला करती
अधिसूचना

राष्ट्रीय राजमार्गों
के खुद के
रंगीन कपड़ों को
उनका
खुद ही नोचना

जीभ से अपने ही
होंठों को खुद ही
तर करता

शराफत की मेज
में खुली विदेशी
सोचता ‘उलूक’

चार स्तम्भों को
एक दूसरे को
नोचता हुआ
आजकल सपने
में देखता ‘उलूक’

चित्र साभार: The Sanctuary Model

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

खेल भावना से देख चोर सिपाही के खेल

वर्षों से
एक साथ
एक जगह
पर रह
रहे होते हैं

लड़ते दिख
रहे होते हैं
झगड़ते दिख
रहे होते हैं

कोई गुनाह
नहीं होता है
लोग अगर
चोर सिपाही
खेल रहे होते हैं

चोर
खेलने वाले
चोर नहीं हो
रहे होते हैं
और
सिपाही
खेलने वाले भी
सिपाही नहीं
हो रहे होते हैं

देखने वाले
नहीं देख
रहे होते हैं
अपनी आँखें

शुरु से
अंत तक
एक ही लेंस से
उसी चीज को
बार बार

अलग अलग
रोज रोज
सालों साल
पाँच साल

कई बार
अपने ही
एंगल से
देख रहे
होते हैं

खेल खेल में
चोर अगर कभी
सिपाही सिपाही
खेल रहे होते है

ये नहीं समझ
लेना चाहिये
जैसे चोर
सिपाही की
जगह भर्ती
हो रहे होते हैं

खेल में ही
सिपाही चोर
को चोर चोर
कह रहे होते है

खेल में ही
चोर कभी चोर
कभी सिपाही
हो रहे होते हैं

खबर चोरों के
सिपाहियों में
भर्ती हो जाने
की अखबार
में पढ़कर

फिर
किस लिये
‘उलूक’
तेरे कान
लाल और
खड़े हो
रहे होते हैं

खेल भावना
से देख
खेलों को
और समझ
रावणों में ही
असली
रामों के
दर्शन किसे
क्यों और कब
हो रहे होते हैं

ये सब खेलों
की मायाएं
होती हैं

देखने सुनने
पर न जा
खेलने वालों
के बीच और
कुछ नहीं
होता है
खेल ही हो
रहे होते हैं ।

चित्र साभार: bechdo.in

बुधवार, 29 मार्च 2017

चल शुरू हो जा


लिखना जरूरी है
पढ़ने वालों के लिये मत रुक ना
लिख कुछ भी
काम तमाम कर ना
चल शुरू हो जा

जाड़े निकल चुके हैं गरमी शुरु हो चुकी है
अब फैल कर लिख ना 
चल शुरू हो जा

जितना सिकुड़ना था जिसको
वो सिकुड़ चुका है
जितना उखड़ना था जिसको
वो उखड़ चुका है

मन करता है तेरा उड़ने का
तो किसने रोका है उड़ ना
चल शुरू हो जा

सबके वो पहुँच चुके हैं वहाँ
जहाँ पहुँचना था उनको 
अब किसका क्या होगा
खाली पीली में गिनती मत गिन ना

सपने उनके तुझे देखने हैं किसलिये
दिन में तारे गिन ना
चल शुरू हो जा

सबकी अपनी ढपली है सबके अपने राग हैं 
किसी को लगती है मिर्ची
किसी को लगती आग है
सारे ठंडे कूल कूलों को गिन ना
चल शुरू हो जा

कुछ कर मत 
बस पूरे दिन
सुबह से लेकर शाम तक
जप मंत्र किसी मनुष्य के
वीडियो बना कर फेस बुक में डाल कर
लाईक गिन ना
चल शुरू हो जा

विद्वानों को सलाम कर
मूर्खों का कत्ले आम कर
जरूरी होता है देखना प्रमाणपत्र विद्वता का
किसने दिया होता है रहने दे ना
अपना काम कर
मूर्ख बनने का अपना मजा है बन ना
चल शुरू हो जा

बहुत कुछ समझाते हैं बहुत कुछ
बहुत जगह पर बहुत सारे लोग 
अपनी अपनी खुजली
सबको खुजलानी होती है
तू भी अपनी खुजला अपना काम कर ना
चल शुरू हो जा ।

चित्र साभार: http://www.clipartkid.com/owl-writing-clipart-writing-owl-teacher-DiXTNs-clipart/

बुधवार, 22 मार्च 2017

बेशरम होता है इसीलिये बेशर्मी से कह भी रहा होता है

शायद
पता नहीं
होता है
दूर देखने
की आदत
नहीं
डाल रहा
होता है

देख भी
नहीं रहा
होता है


गिद्ध होने
का बहुत
ज्यादा
फायदा
हो रहा
होता है

आस पास
के कूड़े
कचरे को
सूँघता ही
फिर रहा
होता है

खुश्बुओं की
बात कभी
थोड़ी सी भी
नहीं कर
रहा होता है

लाशों के
बारे में
सोचता
फिर रहा
होता है

कहीं भी
कोई भी
मरा भी
नहीं
होता है

हर कोई
जिंदा
होता है
घूम रहा
होता है

सब कह
रहे होते हैं
सब को बता
रहे होते हैं
सब कुछ
ठीक हो
रहा होता है

बेशरम
बस एक
‘उलूक’
ही
हो रहा
होता है

रात को
उठ रहा
होता है
फटी आँखों
से देख
रहा होता है

बेशरम
हो रहा
होता है
बेशर्मी से
कहना
नहीं कहना
सारा
सभी कुछ
कह रहा
होता है ।

चित्र साभार: Tumblr

शनिवार, 18 मार्च 2017

निगल और निकल यही रास्ता सबसे आसान नजर आता है

कभी कभी
सब कुछ
शून्य हो
जाता है
सामने से
खड़ा नजर
आता है


कुछ किया
नहीं जाता है
कुछ समझ
नहीं आता है


कुछ देर
के लिये
समय सो
जाता है


घड़ी की
सूंइयाँ
चल रही
होती है
दीवार पर
सामने की
हमेशा की तरह

जब कभी
डरा जाता है
उस डर से

जो हुआ ही
नहीं होता है
बस आभास
दे जाता है
कुछ देर
के लिये

ऐसे
समय में
बहुत कुछ
समझा
जाता है

समय
समझाता है
समझाता
चला जाता है
समय के साथ
सभी को

कौन याद
रख पाता है
कहाँ याद
रहती हैं
ठोकरें
किसी को
बहुत लम्बे
समय तक

हर किसी
की आदत
नहीं होती है

हर कोई
सड़क पर
पड़े पत्थर को
उठा कर
किनारे
कहाँ
लगाता है

कृष्ण भी
याद ऐसे ही
समय में
आता है

ऐसे ही समय
याद आती है
किताबें

किताबों में
लिखी इबारतें

नहीं समझी
गई कहावतें

जो हो रहा
होता है
सामने सामने
सत्य बस
वही होता है

पचता
नहीं भी है
फिर भी
निगलना
जरूरी
हो जाता है

‘उलूक’
चूहों की दौड़
देखते देखते
कब चूहा हो
लिया जाता है

उसी समय
पता समझ
में आता है

जब टूटती है
नींद अचानक

दौड़
खत्म होने
के शोर से

और कोई
खुद को
अपनी ही
डाल पर

चमगादड़ बना
उल्टा लटका
हुआ पाता है ।

चित्र साभार: www.gitadaily.com