रोज एक
लोकतंत्र समझ में आता है
लोकतंत्र समझ में आता है
तू फिर भी लोकतंत्र समझना चाहता है
क्यों तू
इतना बेशरम हो जाता है
बहुमत को
समझने में सारी जिंदगी यूँ ही गंवाता है
समझने में सारी जिंदगी यूँ ही गंवाता है
बहुमत
इस देश की सरकार है
क्या तेरे भेजे मेंये नहीं घुस पाता है
देखता नहीं
सबसे ज्यादा मूल्यों की बात उठाने वाला ही तो
मौका आने पर
अपना बहुमत अखबार में छपवाता है
मौसम मौसम दिल्ली सरकार
और उसके लोगों को
कोसने वालों की भीड़ का झंडा उठाता है
कोसने वालों की भीड़ का झंडा उठाता है
अपनी गली में
उसी सरकार के झंडे के परदे का
घूँघट बनाने से बाज नहीं आता है
मेरे देश की हर गली कूँचे में
एक ऎसा शख्स जरूर पाया जाता है
जो अपना उल्लू
सीधा करने के लिये
सीधा करने के लिये
लोकतंत्र की धोती को
सफेद से गेरुआँ रंगवाता है
सफेद से गेरुआँ रंगवाता है
तिरंगे के रंगो की टोपियाँ बेचता हुआ
कई बार पकड़ा जाता है
ऎसा ही शख्स
कामयाबी की बुलंदी छूने की मुहिम में
इस समाज के बहुमत से
दोनो हाथों में उठाया जाता है
दोनो हाथों में उठाया जाता है
और एक तू बेशरम है
सब कुछ देखते सुनते हुऎ
अभी तक दलाली के पाठ को नहीं सीख पाता है
तेरे सामने सामने कोई तेरा घर नीलाम कर ले जाता है
'उलूक'
जब तू अपना घर ही नहीं बेच पाता है
तो कैसे तू
पूरे देश को नीलाम करने की तमन्ना के
सपने पाल कर
पूरे देश को नीलाम करने की तमन्ना के
सपने पाल कर
अपने को भरमाता है ।
चित्र साभार: https://www.pravakta.com/what-the-poor-in-democracy/
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 10 सितम्बर 2020 को साझा की गयी है............ पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह लाजवाब सृजन ।
जवाब देंहटाएंवाह!!सर ,बेहतरीन !
जवाब देंहटाएंओह बेचारे आम जन ...बेशर..
जवाब देंहटाएंसटीक!!
सटीक व्यंगात्मक रचना
जवाब देंहटाएंदेखते हैं, जीव की सांस से लौह कब भस्म होता है
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