उलूक टाइम्स: रोज
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शनिवार, 5 जुलाई 2014

रस्म है एक लिखना लिखाना जो लिखना होता है वो कभी नहीं लिखना होता है



रोज लिखना जरूरी है क्या
क्यों लिखते हो रोज
ऐसा कुछ जिसका कोई मतलब नहीं होता है

कभी देखा है
लिखते लिखते लेखक खुद के लिखे हुऐ का
सबसे पुराना सिरा
बहुत पीछे कहीं खो देता है

क्या किया जा सकता है

वैसे तो एक लिखने वाले ने
कुछ कहने के लिये ही
लिखना शुरु किया होता है

लिखते लिखते कलम
बहुत दूर तक चली आती है
कहने वाली बात
कहने से ही रह जाती है

सच कहना कहाँ इतना आसान होता है
कायर होता है बहुत कहने वाला
कुछ कहने के लिये बहुत हिम्मत
और एक पक्का जिगर चाहिये होता है

लगता नहीं है
खुद को इस नजर से देखने में
उसे कहीं कोई संकोच होता है
उसे बहुत अच्छी तरह से पता होता है
सच को सच सच लिख देने का क्या हश्र होता है

किसी का उसी के अपने ही पाले पौसे
उसके ही चारों ओर रोज मडराने वाले
चील कौओं गिद्धों के नोच खाये जाने की
खबर आने में कोई संदेह नहीं होता है

बाकी जोड़ घटाना गुणा भाग जो कुछ भी होता है
इस आभासी दुनियाँ में
सब कुछ आभासी लिखने तक ही अच्छा होता है

सच को देखने सच को समझने
और सच को सच कहने की इच्छा
रखने वाला ‘उलूक’
तेरे जैसे की ही बस सोच तक ही में कहीं होता है

उसके अलावा अगर
ऐसा ही कोई दूसरा कहीं ओर होता है
तो उसके होने से कौन सा कहीं कुछ गजब होता है

लिखना लिखाना तो चलता रहता है
जो कहना होता है
वो कौन कहाँ किसी से
सच में कह रहा होता है ।

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

किसी दिन तो कह मुझे कुछ नहीं है बताना

वही
रोज रोज 
का रोना 
वही
संकरी 
सी गली 
उसी गली का अंधेरा कोना 

एक
दूसरे को 
टक्कर मार कर निकलते हुऐ लोग 

कुछ कुत्ते 
कुछ गायें कुछ बैल 

उसी से 
सुबह शाम गुजरना 
गोबर में जूते का फिसलना 

मुंह बनाकर 
थूकते हुऐ 
पैंट उठा कर संभलते हुऐ 
उचक उचक कर चलना 

कुछ सीधे
कुछ 
आड़े तिरछे लोगों का
उसी 
समय मिलना 

इसी सब का 
दस के सरल से पहाड़े की तरह
याद 
हो जाना 

इसी
खिचड़ी 
को
बिना 
नमक तेल मसाले के 
रोज का रोज 
बिना पूछे 
किसी के सामने परोस आना 

एक दो बार 
देखने के बाद 
सब समझ में आ जाना 

खिचड़ी 
खाना तो दूर 
उसे देखने भी नहीं आना 

पता ही नहीं 
चल पाना 
गली का रोम रोम में घुस जाना

एक
चौड़ी 
साफ सुथरी 
सड़क की कल्पना का सिरा
गली 
में ही खो जाना 

गली के
एक 
कोने से दूसरी ओर 
उजाले में निकलने से पहले ही अंधेरा हो जाना 

समझ में 
आने तक बहुत देर हो जाना
गली का 
व्यक्तित्व में ही शामिल हो जाना 

गली का 
गली में जम जाना 

उस दिन 
का इंतजार 
कयामत का इंतजार हो जाना 
पता चले जिस दिन 

छोड़ दिया 
है
तूने भी 'उलूक'
अब 
उस गली से  आना जाना ।

चित्र साभार: https://www.alamy.com/

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

'मोतिया' कहीं लिखता नहीं पर मेरा जैसा कैसे हो जाता है


बहुत सालों से 
सड़क पर
कहीं ना कहीं रोज टकराता है

एक आदमी
जैसा था तीस साल पहले
अभी भी वैसा ही नजर आता है

बस थोड़ा सा पके हुऐ बाल
अस्त व्यस्त कपड़े

चाल में थोड़ा सा
सुस्ती सी दिखाई देती है

लेकिन
सोचने का ढंग वही पुराना
अब तक वैसा ही नजर आता है

उसी मुद्रा में
आज भी
अखबारों की कतरनों को
बगल में दबाता है

अभी भी
जरूरत होती है उसे
बस एक रुपिये के सिक्के की

जिसका आकार अब
अठन्नी से चवन्नी का होने को आता है

वो आज भी
किसी से कुछ नहीं कहने को जाता है

अपनी ही धुन में रहता है

कहीं कुछ नहीं बोलते हुऐ भी 
बहुत कुछ यूं ही कह जाता है

सामने से उसके आने वाला
समझ जाता है

समझ गया है
बस ये ही नहीं कभी बताता है

उसके हाव भाव इशारों से
आज भी ऐसा महसूस
कुछ हो जाता है

जैसे
रोज का रोज कुछ ना कुछ
दीवार पर लिखने 
कोई यहां बेकार में चला आता है

बहुत से लोगों का उसको जानने से 
कुछ भी नहीं हो जाता है

एक शख्स मेरे शहर की
एक ऐसी ही पहचान हो जाता है

जिस के सामने से
हर कोई उसी तरह से निकल जाता है

जिस तरह से
यहां की भीड़ में कभी कभी
अपने आप को ही ढूंंढ ले जाना
एक टेढ़ी खीर हो जाता है ।

शनिवार, 11 मई 2013

फिर देख फिर समझ लोकतंत्र



रोज एक
लोकतंत्र समझ में आता है
तू फिर भी लोकतंत्र समझना चाहता है 

क्यों तू
इतना बेशरम हो जाता है 
बहुमत को
समझने में सारी जिंदगी यूँ ही गंवाता है

बहुमत
इस देश की सरकार है
क्या तेरे भेजे मेंये नहीं घुस पाता है 

देखता नहीं
सबसे ज्यादा 
मूल्यों की बात उठाने वाला ही तो 
मौका आने पर
अपना बहुमत अखबार में छपवाता है 
मौसम मौसम दिल्ली सरकार 
और उसके लोगों को
कोसने वालों की भीड़ का झंडा उठाता है 

अपनी गली में
उसी सरकार के झंडे के परदे का
घूँघट बनाने से बाज नहीं आता है 

मेरे देश की हर गली कूँचे में 
एक ऎसा शख्स जरूर पाया जाता है 
जो अपना उल्लू
सीधा करने के लिये
लोकतंत्र की धोती को
सफेद से गेरुआँ रंगवाता है 
तिरंगे के रंगो की टोपियाँ बेचता हुआ 
कई बार पकड़ा जाता है

ऎसा ही शख्स
कामयाबी की बुलंदी छूने की मुहिम में
इस समाज के बहुमत से
दोनो हाथों में उठाया जाता है

और एक तू बेशरम है
सब कुछ देखते सुनते हुऎ 
अभी तक दलाली के पाठ को नहीं सीख पाता है
तेरे सामने सामने कोई तेरा घर नीलाम कर ले जाता है

'उलूक'
जब तू अपना घर ही नहीं बेच पाता है 
तो कैसे तू
पूरे देश को नीलाम करने की तमन्ना के
सपने पाल कर 
अपने को भरमाता है । 

चित्र साभार: https://www.pravakta.com/what-the-poor-in-democracy/