बेताल
फिर फिर पेड़ पर
लौट कर जाता रहा है
तुझे
हमेशा खुशफहमी
होती रही है
तेरा बेताल
तुझे छोड़ कर
कहीं भी नहीं
जा पा रहा है
पेड़ पर
लटकता है
जाकर जैसे ही वो
तू अपनी आदत से
बाज नहीं आ रहा है
समय के साथ
जब बदलते रहे हैं मिजाज
विक्रमादित्य के भी
और बेताल के भी
तू खुद तो
उलझता ही है
बेताल को भी
प्रश्नों में
प्रश्नों में
उलझाता जा रहा है
बदल ले
अपनी सोच को
और अपने बेताल को भी
नहीं तो
हमेशा ही कहता
चले जायेगा उसी तरह
बेताल
फिर फिर लौट
के पेड़ पर जा कर
लटक जा रहा है
देखता नहीं
कितना
तरक्की पसंद हो चुके हैं
लोग तेरे आस पास के
हर कोई
अपने बेताल से
किसी और के बेताल
के लिये
थैलियाँ
थैलियाँ
पहुँचा रहा है
तू इधर
प्रश्न बना रहा है
उसी सड़क से ही
रोज आता है
रोज आता है
जहाँ से बरसों से
जाता रहा है
दुख इस बात का
ज्यादा हो जा रहा है
ना तो तू अपना
भला कर पा रहा है
तेरा बेताल भी
बेचारा आने जाने में
बूढ़ा तक भी
नहीं हो पा रहा है
आदमी लगा है
अपने
काम निकालता
चला जा रहा है
उसका बेताल
यहाँ जो भी करे
वहाँ तो मेरा भारत
महान बना रहा है
तेरे बेताल की
किस्मत
ही फूटी हुई है
तेरे प्रश्नों
की रस्सी से
फाँसी भी नहीं
लगा पा रहा है
तू बना
संकलन
‘ज्यादातर पूछे गये प्रश्न “
कोई
उत्तर लेने देने
को नहीं आ रहा है
आज
फिर उसी तरह
दिख रहा है दूर से
तेरा बेताल
अपने
अपने
सिर के बाल
नोचता हुआ
उसी
पेड़ पर
लटकने को
चला जा रहा है
जहाँ
तू
उसे जमाने से
यूँ ही
लटका रहा है ।
चित्र साभार: https://www.storyologer.com/
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज सोमवार (08-07-2013) को मेरी 100वीं गुज़ारिश :चर्चा मंच 1300 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय ||
बहुत उम्दा प्रस्तुति,,,
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