उलूक टाइम्स: सैलाब
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बुधवार, 10 सितंबर 2014

सुबह की सोच कुछ हरी होती है शाम लौटने के बाद पर लाल ही लिखा जाता है

सैलाब में
बहुत कुछ
बह गया

उसके
आने की
खबर
हुई भी नहीं

सुना है
उसके
अखबार में ही
बस
छपा था कुछ

सैलाब
के आने
के बारे में

मगर
अखबार
उसी के
पास ही कहीं
पड़ा रह गया

कितने कितने
सैलाब
कितनी मौतें
कितनी लाशें

सब कुछ
खलास

कुछ
दिन की खबरें

फिर
उसके बाद
सब कुछ सपाट

और
एक सैलाब
जो अंदर कहीं
से उठता है

कुछ बेबसी का
कुछ मजबूरी का

जो
कुछ भी
नहीं बहा पाता है

अंदर
से ही कहीं
शुरु होते होते

अंदर
ही कहीं
गुम भी हो जाता है

जब
नजर आता है

एक नंगा
शराफत के साथ
कुछ लूटता है

खुद
नहीं दिखता है

कहीं
पीछे से कहीं

गली से
इशारे से
बिगुल फूँकता है

कुछ
शरीफों के
कपड़े उतरवा कर

कुछ
बेवकूफों को
कबूतर बना कर

लूट
करवाता है

लूट
के समय
सूट पहनता है

मंदिर
के घंटे
बजवाता है

पंडित जी
को दक्षिणा
दे जाता है

दक्षिणा
भी उसकी
खुद की कमाई
नहीं होती है

पिछ्ली
लूट से
बचाई हुई होती है

लूट
बस नाम
की होती है

और
बहुत
छोटी छोटी
सी ही होती हैं

चर्चा में
सरे आम
कहीं नहीं होती हैं

अच्छी
जाति का
कुत्ता होने से जैसे
कुछ नहीं हो जाता है

घर में
कितनी भी
मिले अच्छी
डबलरोटी

सड़क में
पड़ी हड्डी को
देख कर झपटने से
बाज नहीं आ पाता है

सैलाब
की बात से
शुरु हुई थी बात
सैलाब कहीं भी
नजर नहीं आता है

गीत
लिखने की
सोचना सच में
बहुत मुश्किल
काम होता है

ऐसे
समय में ही
समझ में
आ पाता है

नंगई को
नंगई के
साथ ही चलना है

‘उलूक’
बहाता रहता है
सैलाब कहीं
अंदर ही अंदर अपने

एक नहीं
हजारों बार
समझा भी
दिया जाता है

चुल्लू भर
अच्छी सोच
का पानी

बहना
शुरु होने
से पहले ही
नंगई की आँच से
सुखा दिया जाता है ।

चित्र साभार: http://dst121.blogspot.in/