चिट्ठों के जंगल में
उसने एक चिट्ठा बोया है
जिस दिन से बोया है चिट्ठा वो खोया खोया है
चिट्ठे चिट्ठी लिखते हैं कोई सोया सोया है
चिट्ठी लेकर घूम रहा कोई रोया रोया है
चिट्ठे ढूँढ रहे होते हैं चिट्ठी चिट्ठी चिट्ठों में छुप जाती है
पता सही होता है गलत लिखा है बस बतलाती है
चिट्ठों की चिट्ठी चिट्ठों तक पहुँच नहीं पाती है
चिट्ठे बतलाते हैं चिट्ठे हैं आवाज नहीं आ पाती है
चिट्ठों ने देखा है सबकुछ कुछ चिट्ठे गुथे हुवे से रहते हैं
चिट्ठों की भीड़ बना चिट्ठे चिट्ठी को कहते रहते हैं
चिट्ठा चिट्ठी है चिट्ठी चिट्ठा है बात समझ में आती है
चिट्ठे के मालिक की चिट्ठी कैसे कहाँ कहाँ तक जाती है
नीयत और प्रवृति किसी की कहाँ बदल पाती है
शक्ल मुखौटों की अपनी असली याद दिला जाती है
अविनाश वाचस्पति की याद आज चिट्ठे के दिन
‘उलूक’
को बहुत आती है बहुत
आती है ।