उलूक टाइम्स: अविनाश वाचस्पति
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बुधवार, 1 जुलाई 2020

अविनाश वाचस्पति की याद आज चिट्ठे के दिन बहुत आती है श्रद्धाँजलि बस कुछ शब्दों से दी जाती है



चिट्ठों के जंगल में उसने एक चिट्ठा बोया है 
जिस दिन से बोया है चिट्ठा वो खोया खोया है 

चिट्ठे चिट्ठी लिखते हैं कोई सोया सोया है 
चिट्ठी लेकर घूम रहा कोई रोया रोया है 

चिट्ठे ढूँढ रहे होते हैं चिट्ठी चिट्ठी चिट्ठों में छुप जाती है 
पता सही होता है गलत लिखा है बस बतलाती है 

चिट्ठों की चिट्ठी चिट्ठों तक पहुँच नहीं पाती है 
चिट्ठे बतलाते हैं चिट्ठे हैं आवाज नहीं आ पाती है 

चिट्ठों ने देखा है सबकुछ कुछ चिट्ठे गुथे हुवे से रहते हैं 
चिट्ठों की भीड़ बना चिट्ठे चिट्ठी को कहते रहते हैं 

चिट्ठा चिट्ठी है चिट्ठी चिट्ठा है बात समझ में आती है 
चिट्ठे के मालिक की चिट्ठी कैसे कहाँ कहाँ तक जाती है

नीयत और प्रवृति किसी की कहाँ बदल पाती है 
शक्ल मुखौटों की अपनी असली याद  दिला जाती है 

अविनाश वाचस्पति की याद आज चिट्ठे के दिन 
उलूकको बहुत आती  है बहुत आती है ।



रविवार, 13 जनवरी 2019

चिट्ठाकारी और दस साल

ना
खबर पर
कुछ लिखना है

ना
अखबार पर
कुछ कहना है

सोच बैठा
एक दिन

लिखना
लिखाना ही
बन्द हो गया

दस साल
से करते हुऐ
बकवास
पर बकवास

समझ बैठा
सब तो लिख
दिया होगा

सोचना ही
सोच पर ही
एक बड़ा
पैबन्द हो गया

हर दूसरे
के चाहने
और
उसके साथ
हाथ आकर
बटाने
उसके
हिसाब से

अपना
सारा हिसाब
एक किताबी
खण्ड हो गया

कुछ
लिखना लिखाना
पन्ने पर अपने

बस इक
नुमाईश जैसा कुछ

अपनी सोच से
आती खुद की ही
सुगन्ध हो गया

पता है
कुछ नहीं
होना है इस
लिखने लिखाने से

और यूँ ही
दस साल से
लिखा लिखाया

खुद ही
झण्ड हो गया

अखबार
में खबर
और
खबर में
अखबार

सच गाँधी
नहीं रह गया
गाँधी खुद
एक इतिहास

और इतिहास
शुंड भिशुंड हो गया

गली मोहल्ले
शहर जिले
प्रदेश से
बाहर कहीं

‘उलूक’
कौन
जानता है तुझे

एक
अपने का
कहा ही
एक सदी का
कमेंट हो गया

नमन

‘अविनाश जी वाचस्पति’ 

झाड़ पर
चढ़ाया गया
‘उलूक’

आज

देख लो आकर
निगरगण्ड हो गया ।

****************


निगरगण्ड = मनमौजी, आवारा, (आँचलिक शब्द) शुंड भिशुंड= राक्षस (राक्षसी माया से तात्पर्य है)

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

श्रद्धांजलि अविनाश जी वाचस्पति

एक चिट्ठाकार
का चले जाना
कोई नयी बात
नहीं होती है

सभी
जाते हैं
जाना ही
होता है

चिट्ठेकार का
कोई बिल्ला
ना आते समय
चिपकाया जाता है

ना जाते समय
कुछ चिट्ठेकार
जैसा बताने वाला
चिपकाया हुआ
उतारा ही जाता है

तुम भी
चल दिये
चिट्ठे
कितना रोये
पता नहीं

चिट्ठों में
दिखता भी
नहीं है
चिट्ठों की
खुशी गम
हंसना या रोना

कुछ चिट्ठे
कम हो जाते हैं
कुछ चिट्ठे
गुम हो जाते हैं
कुछ गुमसुम
हो जाते हैं

विश्वास होता
है किसी को
कि ऐसा ही
कुछ होता है

इसी विश्वास
के कारण
निश्वास
भी होता है

आना जाना
खोना पाना
तो लगा रहता है

तेरे आने
के दिन
क्या हुआ
पता नहीं

चिट्ठों का
इतिहास जैसा
अभी किसी
चिट्ठेकार ने
कहीं लिख
दिया हो
ऐसा भी
दिखा नहीं

जाने के दिन
टिप्पणी नहीं
भी मिलेगी
तो भी

श्रद्धांजलि
जगह जगह
इफरात से
एक नहीं
कई बार
चिट्ठे में ही नहीं
कई जगह
दीवार दर
दीवार मिलेगी

बहुत सारे
चिट्ठेकारों
में से एक
अब बहुत
बड़ा कह लूँ
कम से कम
जाने के बाद
तो बड़ा
और
बड़े के आगे
बहुत लगा
लेना
जायज हो
ही जाता है

दुनियाँ की
यादाश्त
वैसे भी
बड़ी बड़ी
बातों को
थोड़ी देर
तक जमा
करने की
होती है

चिट्ठे
चिट्ठाकारी
चिट्ठाकार
जैसा
बहुत सारा
बहुत कुछ
गूगल में ही
गडमगड
होकर
गजबजा
जाता है

‘उलूक’
तू भी आदत
से बाज नहीं
आ पाता है
तुझे और तेरी
उलूकबाजी
को उड़ने
का हौसला
देने वाले के
जाने के दिन
भी तुझसे कुछ
उलटा सीधा
कहे बिना
नहीं रहा
जाता है

‘अविनाश जी
वाचस्पति’
अब नहीं रहे
इस दुनियाँ में

थोड़ी देर के
लिये मौन
रहकर
श्रद्धा से सर
झुका कर
श्रद्धांजलि
देने के लिये
दोनो हाथ
आकाश
की ओर
क्यों नहीं
उठाता है ।

चित्र साभार: nukkadh.blogspot.com

रविवार, 20 जुलाई 2014

सब इनका किया कराया है फोटो लगा रहा हूँ इनको ढूँढ लो भाई

एक मित्र
जब दूर देश
से आकर
मेरे घर पहुँचे

अपनी
जिज्ञासा
को शांत
करने के
लिये पूछ बैठे

भाई
ये रोज रोज
लिखने लिखाने
की बात

आपके
दिमाग में
कब से और
कैसे है आई

कुछ
काम धन्धा
नहीं है क्या
आपके पास

जो इस
फालतू के
काम में भी
आपने अपनी
एक टाँग है अढ़ाई

अब
क्या बतायें
कैसे बतायें तुझे
मेरे भाई

कि एक
करीबी मित्र
श्री श्री 1008
अविनाश वाचस्पति जी
की है ये सारी लगी लगाई

कभी
हो जाते हैं
अन्नाभाई

बहुत मन मौजी हैं

कभी
बन जाते हैं
मुन्नाभाई

पता नहीं
यहीं कहीं
कभी किसी दिन

चार पाँच
साल पहले
कमप्यूटर ने ही
हमारी और उनकी
टक्कर थी करवाई

लिखने
लिखाने के
खुद मरीज हैं पुराने

हमारे
कुछ लिखे को
देख कर
उनके दिमाग में
शायद कोई
खुराफत थी
उस समय चढ़ आई

चढ़ा गये
‘उलूक’ को
झाड़ के पेड़ पर
लिखने लिखाने का

वाईरस
कर गये थे सप्लाई

और
तब से खुद तो
गायब हो गये
नहीं दिये कहीं दिखाई

‘उलूक’
चालू हुआ
तब से रुका नहीं

गाड़ी
की थी उन्होने
लिखने की उसे
बिना ब्रेक के सप्लाई

बहुत
देर हो चुकी
बात बहुत देर से
समझ में है आई

उसके बाद
लिखना
बंद कर दो

जनता
बोर हो चुकी है
लिखी उनकी चिट्ठी
पोस्ट आफिस तक
सुना है पहुँची भी है

पोस्टमैन ने
पता नहीं क्यों
घर तक अभी तक
भी नहीं है पहुँचाई ।

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

अन्नास्वामी नाराज है

मित्र मेरा मुन्नाभाई
कुछ दिन जब अन्ना
की संगत में आया
अन्नाभाई कहलाया
बाबाओं की जयकारे से
अन्नास्वामी नाम धर लाया
बहुत अच्छा चालक है
ब्लागगाड़ी चला रहा है
अपने ट्रेक में तो माहिर है
इधर उधर की गाड़ियों
को भी ट्रेक दिखा रहा है
कभी कोई ट्रेक से
बाहर हो जाता है
अन्नास्वामी को जोर
का गुस्सा आ जाता है
कल से अन्नास्वामी
नाराज हो रहा है
गुर्रा रहा है पंजे के
नाखून से ब्लाग को
नोचता भी जा रहा है
असल में किसी ब्लागर
का पेट हो गया था खराब
और वो अनर्गल कुछ
बातें ब्लाग में रहा था छाप
अन्नास्वामी नहीं सह पाया
शांत भाव से ब्लागर को
उसने समझाया
पर बीमार कहाँ बिना
दवाई के ठीक हो पाता
बीमार तो बीमार
एक तीमारदार अन्नास्वामी
पर चढ़ के है आता
अन्नास्वामी को जब है
उसने धमकाया तो
हमको भी गुस्सा है आया
अब हम भी मिलकर
जयकारा लगायेंगे
अन्नास्वामी के लिये
जलूस लेकर जायेंगे
'अन्ना तुम संघर्ष करो
हम तुम्हारे साथ हैं'
के नारे भी जोर जोर
से लगायेंगे।

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

हैप्पी बर्थ डे अविनाश जी

ब्लागों के बाघ
शहनशाहे ब्लाग
जन्मदिन मना
रहे होंगे आज
पांच हजारवी
शुभकामना मेरी
भी कुबूल कर
लीजिये ना जनाब
केक बन कर
अब तक आ
जाना चाहिये
मोमबत्तियां ज्यादा
हो जायेंगी अब
आपको बस
एक लैम्प
जलाना चाहिये
ईश्वर करे आप
खूब लिखें
इतना लिखें
की पढ़ते पढ़ते
लोग बहक
जायें और
जब चटके
लगायें तो सब
मुस्कुरायें फिर
खिलखिलायें और
बाद उसके
लोट पोट
हो जायें ।

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

अन्नाभाई अविनाश जी

अविनाश वाचस्पति

कभी थे मुन्नाभाई

अन्ना
का हुवा जब
अवतरण देव रुप सा

चिपका
लिया इन्होने
भी
अन्नाभाई

और
दिया मुन्नाभाई
को
विश्राम का आदेश

अभी तक
मुलाकात
तो हुवी नहीं
पर होंगे
एक अदद आदमी ही

ऎसा महसूस
होता
सा रहता है
हमेशा

बड़े अजब गजब
से
करतब दिखाते हैं

शब्दों के
कबूतर
बना
यहां से वहां
हमेशा उड़ाते हैं

और
हम पकड़ने
के 
लिये
जाल भी बिछा दें
तो भी नहीं
पकड़
पाते हैं

जब भी करी
कोशिश
अपने को ही
शब्दों के मायाजाल
से घिरा पाते हैं

ब्लागिंग
का रोग
बहुत फैलाया है

थोड़ा सा वायरस
इधर भी आया है

इनको
तो नींद भी
कहाँ आती है

ये तो सोते हैं नहीं
हमें सपने में डराते हैं

इनके ब्लागों में
कितना माल समाया है
हम तो चटके लगाने में
ही
भटक जाते हैं

इनके उपर लिखने
के लिये
बहुत सामान
हो गया है जमा

अब जरूरत है
एक
बड़ी आस की
और
एक अदद राम के
तुलसीदास
की

देखिये
कब तक
ढूँढ कर ला पाते हैं।