उलूक टाइम्स: मनमौजी
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रविवार, 20 जुलाई 2014

सब इनका किया कराया है फोटो लगा रहा हूँ इनको ढूँढ लो भाई

एक मित्र
जब दूर देश
से आकर
मेरे घर पहुँचे

अपनी
जिज्ञासा
को शांत
करने के
लिये पूछ बैठे

भाई
ये रोज रोज
लिखने लिखाने
की बात

आपके
दिमाग में
कब से और
कैसे है आई

कुछ
काम धन्धा
नहीं है क्या
आपके पास

जो इस
फालतू के
काम में भी
आपने अपनी
एक टाँग है अढ़ाई

अब
क्या बतायें
कैसे बतायें तुझे
मेरे भाई

कि एक
करीबी मित्र
श्री श्री 1008
अविनाश वाचस्पति जी
की है ये सारी लगी लगाई

कभी
हो जाते हैं
अन्नाभाई

बहुत मन मौजी हैं

कभी
बन जाते हैं
मुन्नाभाई

पता नहीं
यहीं कहीं
कभी किसी दिन

चार पाँच
साल पहले
कमप्यूटर ने ही
हमारी और उनकी
टक्कर थी करवाई

लिखने
लिखाने के
खुद मरीज हैं पुराने

हमारे
कुछ लिखे को
देख कर
उनके दिमाग में
शायद कोई
खुराफत थी
उस समय चढ़ आई

चढ़ा गये
‘उलूक’ को
झाड़ के पेड़ पर
लिखने लिखाने का

वाईरस
कर गये थे सप्लाई

और
तब से खुद तो
गायब हो गये
नहीं दिये कहीं दिखाई

‘उलूक’
चालू हुआ
तब से रुका नहीं

गाड़ी
की थी उन्होने
लिखने की उसे
बिना ब्रेक के सप्लाई

बहुत
देर हो चुकी
बात बहुत देर से
समझ में है आई

उसके बाद
लिखना
बंद कर दो

जनता
बोर हो चुकी है
लिखी उनकी चिट्ठी
पोस्ट आफिस तक
सुना है पहुँची भी है

पोस्टमैन ने
पता नहीं क्यों
घर तक अभी तक
भी नहीं है पहुँचाई ।

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

मनमौजी

इधर चुपके से
बिना कुछ
किसी को बताये
जैसे पायलों को
अपनी कोई
हाथ में दबाये
बगल ही से
निकल जाये
अंदाज भी
ना आ पाये
छम छम की
ख्वाहिश में
खोऎ हुऎ
के लिये बस
एक मीठा सा
सपना हो जाये
उधर तन्हाई के
एक सौदागर
के सामने
छ्म्म से
आ जाये
जितना कर
सकती हो
उतना शोर मचाये
अपनी छोड़ कुछ
इधर उधर
की पायलें भी
लाकर बजाये
चूड़ियां छनकाये
काले सफेद को
कुछ ऎसा दिखाये
इंद्रधनुष बिल्कुल
फीका पड़ जाये
कोई प्यार
नहीं पढ़ता उसे
मोहब्बत पढ़ाये
कोई मुहब्बत
है करता
उसे ठेंगा दिखाये
बतायेगी क्या
कभी कुछ
किसी को 
तेरे को ये
सब करना
कौन सिखाये
सब्र की गोली
हम भी बैठे
हैं खाये
खूबसूरत
ऎ जिंदगी
समय ऎसा
शायद कभी
तो आये
थोड़ा सा
ही सही
तू कुछ
सुधर जाये ।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

समय

कोयल
की तरह
कूँकने वाली

हिरन की
मस्त चाल
चलने वाली

बहुत
भाती थी

मनमोहनी
रोज सुबह

गली को
एक खुश्बू से
महकाते हुवे
गुजर जाती थी

दिन
बरस साल
गुजर गये

मनमौजी
रोजमर्रा की
दुकानदारी में
उलझ गये

अचानक
एक दिन
याद कर बैठे

तो किसी
ने बताया

हिरनी
तो नहीं

हाँ
रोज एक
हथिनी

गली से
आती जाती है

पूरा मोहल्ला
हिलाती है

आवाज
जिसकी
छोटे
बच्चों को
डराती है

समय की
बलिहारी है

पता नहीं
कहाँ कहाँ
इसने मार
मारी है

कब
किस समय
कौन कबूतर
से कौवा
हो जाता है

समय ये
कहाँ बता
पाता है

मनमौजी
सोच में
डूब जाता है

बही
उठाता है
चश्मा आँखों
में चढ़ाता है

फिर
बड़बड़ाता है

बेकार है
अपने बारे
में किसी से
कुछ पूछना

जरूर
परिवर्तन
यहाँ भी बहुत
आया होगा

जब हिरनी
हथिनी बना
दी गयी है

मुझ
उल्लू को
पक्का ही
ऊपर वाले ने

इतने
समय में
एक गधा ही
बनाया होगा।