उलूक टाइम्स: कंधा
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बुधवार, 5 सितंबर 2018

लिखना जरूरी हो जा रहा होता है जब किसी के गुड़ रह जाने और किसी के शक्कर हो जाने का जमाना याद आ रहा होता है

नमन
उन सीढ़ियों को
जिस पर चढ़ कर
बहुत ऊपर तक
कहीं पहुँच लिया
जा रहा होता है

नमन
उन कन्धों को
जिन को
सीढ़ियों को
टिकाने के लिये
प्रयोग किया
जा रहा होता है

नमन
उन बन्दरों को
जिन्हेंं हनुमान
बना कर
एक राम
सिपाही की तरह
मोर्चे पर
लगा रहा होता है

नमन
उस सोच को
जो गाँधी के
तीन बन्दरों
के जैसा

एक में ही
बना ले जा
रहा होता है

नमन
और भी हैं
बहुत सारे हैं
करने हैं

आज ही
के शुभ दिन
हर साल की तरह

जब
अपना अपना सा
लगता दिन
बुला रहा होता है

कैसे करेगा
कितने करेगा
नमन ‘उलूक’

ऊपर
चढ़ गया
चढ़ जाने के बाद
कभी नीचे को
उतरता हुआ
नजर ही नहीं
आ रहा होता है

गुरु
मिस्टर इण्डिया
बन कर ऊपर
कहीं गुड़
खा रहा होता है

चेलों
का रेला

वहीं
सीढ़ियाँ पकड़े
नीचे से

शक्कर
हो जाने के
ख्वाबों के बीच

कहीं
सीटियाँ बजा
रहा होता है।

चित्र साभार: www.123rf.com

बुधवार, 14 अगस्त 2013

तू बंदूक चलाने को कंधा दे देगा मेडल पर मेरे को मिलेगा

आसान होता है 
बंदूक चलाना घोडे़ को दबाना 

किसी के मरे बिना 
चारों खाने चित्त कर ले जाना 

ना खून का दिखना 
ना पुलिस का आना ना कोई मुकदमा 
ना किसी को कहीं जेल की सजा हो जाना 

कौन सी ऎसी बंदूक होगी 
दिखती भी नहीं होगी 
गोली भी नहीं होगी 
आवाज भी नहीं होगी 

और तो और 
किसी सामने वाले की 
मौत भी नहीं होगी 

सांप भी नहीं होगा लाठी भी नहीं होगी 
फौज भी नहीं होगी सरहद भी नहीं होगी 
बस होगी वाह वाह जो हर तरफ होगी 

बेवकूफ हैं जो सेना में चले जाते हैं 
सरहद में जाकर 
गोली खा खा कर मर जाते हैं 

पता नहीं बंदूक चलाने का 
सबसे आसान तरीका क्यों नहीं अपनाते हैं 
जिसमें 
बंदूक खरीदने कहीं भी नहीं जाते हैं 
बंदूक 
बस एक अपनी सोच में ले आते हैं 

जरूरत होती है एक ऎसे कंधे की 
जो आसानी से ही उपलब्ध हो जाते हैं 

सारे शूरवीर ऎसे ही कंधों में रखकर 
घोड़ों को दबाते हैं गोली चलाते हैं 
सामने वाले कोई नहीं कहीं मर पाते हैं 

कंधे देने वाले ही इसमें शहीद हो जाते हैं 
बंदूक चलाने वाले मेडल पा जाते हैं 

बेवकूफ कंधे देने वाले 
समाज में हर कोने में पाये जाते हैं 
लेकिन उस पर बंदूक रख कर 
गोली चलाने वाले बिरले ही हो पाते हैं 

समाज को दिशा देने वालों में 
आज ये ही लोग 
सबसे आगे जाते हैं 

जो अपने कंधे ही नहीं बचा पाते हैं 
ऎसे बेवकूफों से 
आप और क्या उम्मीद लगाते हैं ?

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

टीम

कल एक मकसद
फिर सामने से
नजर आ रहा है
दल बना इसके
लिये समझा
बुझा रहा है
बहुत से दल
बनते हुऎ भी
नजर आ रहे हैं
इस बार लेकिन
इधर के कुछ
पक्के खिलाडी़
उधर जा रहे हैं
कर्णधार हैं
सब गजब के
कंधा एक ढूँढने
में समय लगा रहे हैं
मकसद भी दूर
बैठे हुऎ दूर से
दूरबीन लगा रहे हैं
मकसद बना
अपना एक
किसी को नहीं
बता रहे हैं
चुनकर दूसरे
मकसद को
निपटाने की
रणनीति
बना रहे हैं
शतरंज के
मोहरे एक
दूसरे को जैसे
हटा रहे हैं
टी ऎ डी ऎ
के फार्म इस
बार कोई भी
भरने नहीं
कहीं जा रहे हैं
मकसद खुद ही
दल के नेता के
द्वारा वाहन
का इंतजाम
करवा रहे हैं
एक दल
एक गाडी़
नाश्ता पानी
फ्री दिलवा
रहे हैं
कर्णधार कल
कुछ अर्जुन
युद्ध के लिये
चुनने जा रहे हैं
आने वाले समय
के सारे कौरव
मुझे अभी से
आराम फरमाते
नजर आ रहे हैं
पुराने पाँडव
अपने अपने
रोल एक दूसरे
को देने जा रहे हैं
नाटक करने को
फिर से एक बार
हम मिलकर
दल बना रहे हैं
पिछली बार
के सदस्य इस
बार मेरे साथ
नहीं आ रहे हैं
लगता है वो खुद
एक बड़ी मछली
की आँख फोड़ने
जा रहे हैं
इसलिये अपना
निशाना खुद
लगा रहे हैं ।