उलूक टाइम्स: गांधी
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मंगलवार, 29 जुलाई 2025

मगर आज गांधी खुद अपनी ही लकड़ी लेकर भी खड़ा हो नहीं पाता है



लिखने में खुद के भगवान फूंकता है
और वो पसर भी जाता है
कोई ढूंढे मशाल ले कर के इंसान
मगर दूर तक नजर नहीं आता है

बड़ी शिद्दत से लिख कर
शब्दों में आईने उतार लाता है
अफसोस उसका खुद का चेहरा
कलम की रोशनाई में डूबा रह जाता है

दर्द गम खुशी सब होते हैं
लबालब भी होते हैं और छलकते भी हैं
अपने हिसाब से समय देखकर
लिखने वाले के बटुवे में
आंख कान मुंह ही केवल
और केवल बंद नजर आता है

पाठक का अपना ही होता है ईश्वर
पढ़ते समय वो अपने  साथ ले 
ही आता है
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान
गाने के बोल लब से फिसलते हैं मगर
आज गांधी खुद अपनी ही लकड़ी लेकर भी
खड़ा हो नहीं पाता है

इतनी बेशर्मी भी अच्छी नहीं ‘उलूक’
जब समझना सब कुछ के बाद भी
नासमझी से
झूठ की वैतरणी को पार किया जाता है | 

चित्र साभार: https://in.pinterest.com/

शनिवार, 4 मई 2024

‘उलूक’ लगा रहेगा आदतन बकवास करने यहाँ गोदी पर बैठे उधर सारे यार लिखेंगे

 
माहौल पर नहीं लिखेंगे कुछ भी
कुछ इधर की लिखेंगे कुछ उधर की लिखेंगे
वो कुछ अपनी लिखेंगे हम कुछ अपनी लिखेंगे
लिखेंगे और रोज कुछ लिखेंगे

धूप बहुत तेज है हो लू से मरे आदमी मरे
हम पेड़ पर लिखेंगे उसकी छाँव पर लिखेंगे
आंधी से उड़ गयी हो छतें गरीबों की रहने दें
हम ठंडी हवा लिखेंगे और गाँव लिखेंगे

कोई झूठ बोले बोलता रहे हम सच पर लिखेंगे
सच की वकालत पर लिखेंगे हम पड़ताल  लिखेंगे
मर रहे हैं लोग बीमारियों से मरें और मरते रहें
हम लिखे में अपने सारे हस्पताल लिखेंगे

तीन बंदरों की नयी बात लिखेंगे
गांधी और नेहरू को पडी लात की सौगात लिखेंगे
तीन बंदरों को   खुद ही सुधार लेने को
उनकी औकात लिखेंगे उनकी जात लिखेंगे

लिखेंगे दिखेंगे पढेंगे
दो चार पांच को ले जाकर रोज सुबह
बेरोकटोक सूबेदार लिखेंगे
‘उलूक’ लगा रहेगा आदतन बकवास करने यहाँ
गोदी पर बैठे उधर सारे यार लिखेंगे
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/