कितना
कुछ
यूँ ही छूट
जाता है
समय पर
लिखा ही
नहीं जाता है
चलते चलते
सड़क पर
अचानक
कुछ पक
पका जाता है
कहाँ रखो
सम्भाल कर
कलम कापी
रखने का
जमाना
याद आता है
लकीरें खींचना
आने ना आने
का सवाल
कहाँ उठता है
लकीरें खींचने
वाला शिद्दत
के साथ
हर पेड़ की
छाल पर
उसी की
शक्ल खोद
जाता है
किसी के
यहाँ भी होने
और उसी के
वहाँ भी होने
से ही जिसके
होने का मुरीद
जमाना हुआ
जाता है
जानते बूझते
हुऐ उसे
पूजा जाता है
किसी को वो
कहीं भी नजर
नहीं आता है
किसी का यहाँ
भी नहीं होना
और उसी का
वहाँ भी नहीं होना
उसके पूज्य होने
का प्रमाण
हो जाता है
दुर्भाग्य होता
है उसका जो
यहाँ का यहाँ
और
उसका भी
जो वहाँ का वहाँ
रहने की सोच से
बाहर ही नहीं
निकल पाता है
दुनियाँ ऐसे
आने जाने
वालों के
पद चिन्हों
को ढूँढती है
जिन पर
चल देने वाला
बहुत दूर तक
कहीं पहुँचा
दिया जाता है
इधर से जाने
उधर से आने
उधर से जाने
इधर से आने
वालों को
खड़े खड़े
दूर से
आते जाते हुऐ
देखते रहने
वाले ‘उलूक’
की बक बक
चलती चली
जाती है
फिर से एक
और साल
इसी तरह
इसी सब में
निकलने के लिये
दिसम्बर का
महीना सामने
लिये खड़ा
हो जाता है ।
चित्र साभार: Can Stock Photo
कुछ
यूँ ही छूट
जाता है
समय पर
लिखा ही
नहीं जाता है
चलते चलते
सड़क पर
अचानक
कुछ पक
पका जाता है
कहाँ रखो
सम्भाल कर
कलम कापी
रखने का
जमाना
याद आता है
लकीरें खींचना
आने ना आने
का सवाल
कहाँ उठता है
लकीरें खींचने
वाला शिद्दत
के साथ
हर पेड़ की
छाल पर
उसी की
शक्ल खोद
जाता है
किसी के
यहाँ भी होने
और उसी के
वहाँ भी होने
से ही जिसके
होने का मुरीद
जमाना हुआ
जाता है
जानते बूझते
हुऐ उसे
पूजा जाता है
किसी को वो
कहीं भी नजर
नहीं आता है
किसी का यहाँ
भी नहीं होना
और उसी का
वहाँ भी नहीं होना
उसके पूज्य होने
का प्रमाण
हो जाता है
दुर्भाग्य होता
है उसका जो
यहाँ का यहाँ
और
उसका भी
जो वहाँ का वहाँ
रहने की सोच से
बाहर ही नहीं
निकल पाता है
दुनियाँ ऐसे
आने जाने
वालों के
पद चिन्हों
को ढूँढती है
जिन पर
चल देने वाला
बहुत दूर तक
कहीं पहुँचा
दिया जाता है
इधर से जाने
उधर से आने
उधर से जाने
इधर से आने
वालों को
खड़े खड़े
दूर से
आते जाते हुऐ
देखते रहने
वाले ‘उलूक’
की बक बक
चलती चली
जाती है
फिर से एक
और साल
इसी तरह
इसी सब में
निकलने के लिये
दिसम्बर का
महीना सामने
लिये खड़ा
हो जाता है ।
चित्र साभार: Can Stock Photo