गरम
होता है
उबलता है
खौलता है
कभी
किसी दिन
अपना ही लहू
खुद की
मर्दानगी
तोलता है
अपना
ही होता है
नजदीक का
घर का आईना
रोज कब कहाँ
कुछ बोलता है
तीखे एक तीर
को टटोलता है
शाम होते ही
चढ़ा लेता
है प्रत्यंचा
सोच के
धनुष की
सुबह सूरज
निकलता है
गुनगुनी धूप में
ढीला कर
पुरानी फटी
खूँटी पर टंगी
एक पायजामे
का इजहार
बह गये शब्दों
को लपेटने
के लिये
खींच कर
खोलता है
नंगों की
मजबूरी
नहीं होती है
मौज होती है
नंगई
तरन्नुम में
बहती है
नसों में
हमखयालों
की एक
पूरी फौज के
कदमतालों
के साथ
नशेमन
हूरों की
कायानात के
कदम चूमता है
हिलोरे ले ले
कर डोलता है
‘उलूक’
फिर से
गिनता है
कौए अपने
आसपास के
खुद के
कभी हल
नहीं होने वाले
गणित की नब्ज
इसी तरह कुछ
फितूर में फिर
से टटोलता है ।
चित्र साभार: Daily Mail
होता है
उबलता है
खौलता है
कभी
किसी दिन
अपना ही लहू
खुद की
मर्दानगी
तोलता है
अपना
ही होता है
नजदीक का
घर का आईना
रोज कब कहाँ
कुछ बोलता है
तीखे एक तीर
को टटोलता है
शाम होते ही
चढ़ा लेता
है प्रत्यंचा
सोच के
धनुष की
सुबह सूरज
निकलता है
गुनगुनी धूप में
ढीला कर
पुरानी फटी
खूँटी पर टंगी
एक पायजामे
का इजहार
बह गये शब्दों
को लपेटने
के लिये
खींच कर
खोलता है
नंगों की
मजबूरी
नहीं होती है
मौज होती है
नंगई
तरन्नुम में
बहती है
नसों में
हमखयालों
की एक
पूरी फौज के
कदमतालों
के साथ
नशेमन
हूरों की
कायानात के
कदम चूमता है
हिलोरे ले ले
कर डोलता है
‘उलूक’
फिर से
गिनता है
कौए अपने
आसपास के
खुद के
कभी हल
नहीं होने वाले
गणित की नब्ज
इसी तरह कुछ
फितूर में फिर
से टटोलता है ।
चित्र साभार: Daily Mail