उलूक टाइम्स: तीर
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मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

हर सफेद बोलने वाला काला एक साथ चौंच से मिला कर चौंच खोलता है

गरम
होता है
उबलता है
खौलता है

कभी
किसी दिन
अपना ही लहू
खुद की
मर्दानगी
तोलता है

अपना
ही होता है
नजदीक का
घर का आईना
रोज कब कहाँ
कुछ बोलता है

तीखे एक तीर
को टटोलता है
शाम होते ही
चढ़ा लेता
है प्रत्यंचा
सोच के
धनुष की

सुबह सूरज
निकलता है
गुनगुनी धूप में
ढीला कर
पुरानी फटी
खूँटी पर टंगी
एक पायजामे
का इजहार

बह गये शब्दों
को लपेटने
के लिये
खींच कर
खोलता है

नंगों की
मजबूरी
नहीं होती है
मौज होती है

नंगई
तरन्नुम में
बहती है
नसों में
हमखयालों
की एक
पूरी फौज के
कदमतालों
के साथ

नशेमन
हूरों की
कायानात के
कदम चूमता है
हिलोरे ले ले
कर डोलता है

‘उलूक’
फिर से
गिनता है
कौए अपने
आसपास के

खुद के
कभी हल
नहीं होने वाले
गणित की नब्ज

इसी तरह कुछ
फितूर में फिर
से टटोलता है ।

चित्र साभार: Daily Mail

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

कैसे नहीं हुआ जा सकता है अर्जुन बिना धनुष तीर और निशाने के

जरूरी नहीं है
अर्जुन ही होना
ना ही जरूरी है
हाथ में धनुष
और
तीर का होना
 कोई जरूरी
नहीं है किसी
द्रोपदी के लिये
कहीं कोई स्व्यंवर
का होना
आगे बढ़ने के लिये
जरूरी है बस
मछली की आँख
का सोच में होना
खड़े खड़े रह गये
एक जगह पर
शेखचिल्ली की
समझ में समय
तब आता है जब
बगल से निकल
कर चला गया
कोई धीरे धीरे
अर्जुन हो गया है
का समाचार बन
कर अखबार में
छ्पा हुआ
नजर आना
शुरु हो जाता है
समझ में आता है
कुछ हो जाने
के लिये
आँखों को खुला
रख कर कुछ
नहीं देखा जाता है
कानों को खुला
रख कर
सुने सुनाये को
एक कान से
आने और दूसरे
कान से जाने
का रास्ता
दिया जाता है
कहने के लिये
अपना खुद का
कुछ अपने पास
नहीं रखा जाता है
इस का पकाया
उस को और
उस का पकाया
किसी को खिला
दिया जाता है
नीरो की तरह
बाँसुरी कोई
नहीं बजाता है
रोम को
खुद ही
अपने ही
किसी से
थोड़ा थोड़ा
रोज जलाये
जाने के तरीके
सिखला जाता है
एक दो तीन
दिन नहीं
महीने नहीं
साल हो जाते हैं
सुलगना
जारी रहता है
अर्जुन हो गये
होने का प्रमाण
पत्र लिये हुऐ
ऐसे ही कोई
दूसरी लंका के
सोने को उचेड़ने
की सोच लिये
राम बनने के लिये
अगली पारी की
तैयारी के साथ
सीटी बजाता हुआ
निकल जाता है
‘उलूक’
देखता रह
अपने
अगल बगल
कब मिलती है
खबर
दूसरा निकल
चुका है मछली
की आँख की
सोच लेकर
अर्जुन बनने
के लिये
अर्जुन के
पद चिन्हों
के पीछे
कुछ बनने
के लिये
फिर
एक बार
रोम को
सुलगता रहने
देने का
आदेश किस
अपने को
दे जाता है ।

चित्र साभार: Clipart Kid

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

सारे जोर लगायेंगे तो मरे हाथी को खड़ा कर ले जायेंग़े

चट्टान पर
बुद्धिमान ने
बनाया
अपना घर
और जोर की
वर्षा आई
बचपन में
सुबह की
स्कूल में की
जाने वाली
प्रार्थना का
एक गीत
याद आ पड़ा
उस समय
जब सामने
से ही अपने
कुछ दूरी पर
जोर के
धमाकों के साथ
फटते पठाकों
की लड़ियों
को घेर कर
उछलता हुआ
एक झुण्ड
दिखा खड़ा
इससे पहले
किसी से कुछ
पूछने की
जरूरत पड़ती
दिमाग के
अंदर का
फितूरी गधा
दौड़ पड़ा
याद आ पड़ी
सुबह सुबह
अखबार के
मुख्य पृष्ठ पर
छपी हुई
ताजी एक खबर
जनता जनार्दन
एक कददू
और कुछ तीर
साथ में अपने
गधे का जनाजा
और उसकी
खुद की ही
अपने लिये
खोदी गई
साफ सुथरी
कबर
सारी खुदाई
एक तरफ
अपना भाई
एक तरफ
जब जब
अपनी सोच
के सोच होने
का वहम
कभी हुआ है
अपना
यही गधा
सीना तान
कर अपनी
सोच के साथ
खड़ा हुआ है
‘उलूक’
इतना कम
नहीं है क्या ?
बनाने दे
दुनियाँ को
रेत के
ताजमहल
पकड़ अपनी
सोच के गधे
की लगाम
और निकल
ले कहीं
तमाशा देखने
के चक्कर में
गधा भी लग
लिया लाईन में
तो कहीं का
नहीं रह जायेगा
अकेला हो
गया तो
चना भी नहीं
फोड़ पायेगा ।
चित्र साभार: imgarcade.com

सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

राम का नहीं पता रावण को जिंदा रखना चाहते हैं

हर साल ही तो हम
बुराई पर अच्छाई की
विजय का पर्व मनाते हैं
ऐक दिन के खेल के लिये
तेरा ही नहीं तेरे पूरे
खानदान के पुतले
हम बनाते हैं
साल दर साल
मैंदानो और सड़को पर
तेरा मजमा हम लगाते हैं
राम के हाथों आज के
दिन मारे गये रावण
विजया दशमी के दिन
हमें खुद पता नहीं होता है
कि हम क्या जलाते हैं
कितनी बार जल चुका है
अभी तक नहीं जल सका है
जिंदा रखने के लिये ही
उस चीज को हम
एक बार फिर जलाते हैं
आज के दिन को एक
यादगार दिन बनाते हैं
राम के हाथों हुआ था
खत्म रावण या रावणत्व
इतनी समझ आने में
तो युग बीत जाते हैं
शिव के लिये रावण की
अगाध श्रद्धा और उसके
लिखे शिव तांडव स्त्रोत्र की
बात किसी को कहाँ बताते हैं
किस्से कहाँनियों तक
रहती हैं बातें जब तक
सभी लुफ्त उठाने से
बाज नहीं आते हैं
पुतले जलाने वाले ही
पुतले जलाने के बाद
खुद पुतले हो जाते हैं
रावण की सेना होती है
उसी के हथियार होते हैं
सेनापति की जगह पर
राम की फोटो लगा कर
अपना काम चलाते हैं
बहुत कर लेते हैं जब
कत्लेआम उल्टे काम
माहौल बदलने के लिये
एक दिन पुतले जलाते हैं
रावण तेरी अच्छाईयां
कहीं समझ ना आ जायें
किसी को कभी यहां पर
आज भी राम को
आगे कर हम खुद
पीछे से तीर चलाते हैं ।