उलूक टाइम्स: पसंद
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सोमवार, 4 नवंबर 2013

लक्ष्मी को व्यस्त पाकर उलूक अपना गणित अलग लगा रहा था

निपट गयी जी
दीपावली की रात

पता अभी
नहीं चला वैसे
कहां तक पहुंची
देवी लक्ष्मी

कहां रहे भगवन
नारायण कल रात

किसी ने भी
नहीं करी
अंधकार प्रिय
उनके सारथी
उलूक की
कोई बात

बेवकूफ हमेशा
उल्टी ही
दिशा में
चला जाता है

जिस पर कोई
ध्यान नहीं देता

ऐसा ही कुछ
जान बूझ कर
पता नहीं

कहां कहां से
उठा कर
ले आता है

दीपावली की
रात में जहां
हर कोई दीपक
जला रहा था

रोशनी
चारों तरफ
फैला रहा था

अजीब बात
नहीं है क्या
अगर उसको
अंधेरा बहुत
याद आ रहा था

अपने छोटे
से दिमाग में
आती हुई एक
छोटी सी बात
पर खुद ही
मुस्कुरा रहा था

जब उसकी
समझ में
आ रहा था

तेज रोशनी
तेज आवाजें
साल के
दो तीन दिन
हर साल
आदमी कर

उसे त्योहार
का एक नाम
दे जा रहा था

इतनी चकाचौंध
और इतनी
आवाजों के बाद
वैसे भी कौन
देख सुन पाने की
सोच पा रहा था

अंधा खुद को
बनाने के बाद
इसीलिये तो
सालभर

अपने चारों
तरफ अंधेरा
ही तो फैला
पा रहा था

उलूक कल
भी खुश नहीं
हो पा रहा था

आज भी उसी
तरह उदास
नजर आ रहा था

अंधेरे का त्योहार
होता शायद
ज्यादा सफल
उसे कभी कोई
क्यों नहीं
मना रहा था

अंधेरा पसंद
उलूक बस
इसी बात को
नहीं पचा
पा रहा था । 

शनिवार, 9 जून 2012

उल्लू की रसोई

रोज
कोशिश
करता हूँ

कुछ
ना कुछ
पका ही
ले जाता हूँ

खुद
खाने के
लिये नहीं
यहाँ परोसने
के लिये
ले आता हूँ

कुछ
खाने वाले
खीर को
आईसक्रीम
बताते हैं

चीनी
डाली है
कहने पर
नमक तेज
डाल दिया
तक
कह जाते हैं

अब
रसोईया
वही तो
पका पायेगा

जिस
चीज का
कच्चा माल
अपने आस पास
उसे मिल जायेगा

खाने
वाले को पसंद
आये तो ठीक
नहीं भी आये
तब भी परोस तो
दिया ही जायेगा

कोई
थोड़ा खायेगा
कोई पूरा
खा जायेगा

कोई कोई
थाली को
सरका कर के
किनारे से
निकल जायेगा

किसी के मन
बहुत ज्यादा
भा गया
खाना मेरा
तो रोटियाँ
अपनी थाली
के लिये भी
उठा ले जायेगा
मेरा क्या जायेगा? 

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

चिंता


एक मित्र 
को 
चिंता है

अच्छी 
रचना 
कोई
क्यों नहीं 
सुनता है

किस्म 
किस्म 
के लोग 

जब 
एक साथ 
हो जाते है

एक ही 
बाजार में 
कुछ खरीदने 
जाते हैं

अपनी अपनी 
पसंद का
माल ही 
तो उठाते हैं

मित्र 
आप भी 
तो अपनी
पसंद की 
साड़ी खरीद 
कर ही ले जाती हैं

पतिदेव की 
कलर चौईस
पर कभी कभी 
मुँह बनाती हैं

यहाँ तो लोग 
सूई से हाथी
बना कर 
लगा रहे हैं

हम 
कौन सा 
खरीदते 
जा रहे हैं

मेरे बहुत से 
मित्रों के मित्र
बड़े बड़े नेता हैं

पर 
हमको 
पार्टी वाला 
कहाँ कुछ 
कभी देता है

काँग्रेस 
भाजपा 
सपा बसपा
हर तरह की 
पार्टियां लगीं थी

पर हमें तो 
बस अपने देश
की पतली होती 
हालत की
ही पड़ी थी

हम कब से 
भुनभुना रहे थे

हमारे हजार 
फेसबुक मित्रों में
से बीस पच्चीस 
ही तो हमारे साथ
ताली बजा रहे थे

सबसे 
बड़ी बात 
आपकी 
समझ में
भी अब तक 
आ जानी चाहिये

कोई 
क्या सोचता है 
कहता है
इस रास्ते पर गाड़ी 
नहीं दौड़ानी चाहिये

लगे रहिये 
आप भी 
हमारी तरह

मसाले 
छौंक के सांथ 
दाल पकानी चाहिये

कोई 
खाये तो खाये 

नहीं खाता है

तो 
उसके लिये 
बिरयानी नहीं 
पकानी चाहिये।