उलूक टाइम्स: पोस्टमैन
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सोमवार, 27 अगस्त 2018

पोस्टमैन को फिर से कभी घर पर बुलवायें चिट्ठे छोड़ें चिट्ठियाँ पढ़े और पढ़वायें

आओ
खत लिखें

जमाना हो गया
पोस्टमैन को देखे

आओ

कुछ 

कोशिश करें
देखने की भी

आओ
कुछ देखें

तू
मुझ को लिख

मैं
तुझे लिखूँ

शब्द
वाक्य
सब रहने दें

कुछ
रेखायें
ही खींचें

कौन लिखेगा
किसको लिखेगा

कौन किसका
लिखा खत

किसके लिये
पढ़ देगा

ये सब छोड़े

बस
ज्यादा नहीं
कुछ थोड़ा सा
घड़ी की
सूईं को मोढ़ें

बस बातें
करने की
आदत को
कुछ झिंझोड़े

कलम उठायें
स्याही लायें

सफेद
पन्ने पर कुछ
आढ़ी तिरछी
रेखायें खुदवायें

आओ
अपने आप

खुद से
बातें करना

कुछ देर
के लिये छोड़ें

आओ
खत पढ़ने को जायें

बिना
निशान लगाये
दरवाजों को भी

कभी कभी
खटखटायें

इन्तजार
सब करते हैं

आओ
पोस्टमैन
ही सही

किसी के
लिये हो जायें

बधें नहीं
गिरोहों के संग

स्वछंद झण्डा
खुद का लहरायें

खत लिखें
पोस्टमैंन को
ही सही

किसी दिन
उसके लिये भी

घर की डाक
घर पर
ही भिजवायें

आओ कभी
‘उलूक’ को
आईना दिखलायें

किसी क्षण
कुछ अलग
करके दिखायें

जो
रोज करते हैं
जीवन में

उसके निशान

लिखे लिखाये
के पीछे कहीं
ना छोड़ कर
चले जायें

आओ
कुछ खत लिखें

कुछ अलग से
तेरे मेरे अपने
सबके छोड़

किसी और
के लिये कुछ

नये रास्ते
खोल कर आयें ।

चित्र साभार: activerain.com

सोमवार, 7 सितंबर 2015

खबर है खबर रहे प्रश्न ना बने ऐसा कि कोई हल करने के लिये भी कहे

क्या है ये

एक डेढ़ पन्ने
के अखबार
के लिये

रोज एक
तुड़ी मुड़ी
सिलवटें
पड़ी हुई खबर

उसे भी
खींच तान कर
लम्बा कर

जैसे
नंगे के
खुद अपनी
खुली टाँगों के
ना ढक पाने की
जद्दोजहद में

खींचते खींचते
उधड़ती हुई
बनियाँन के
लटके हुऐ चीथड़े

आगे पीछे
ऊपर नीचे
और इन
सब के बीच में

खबरची भी
जैसे
लटका हुआ कहीं

क्या किया
जा सकता है

रोज का रोज
रोज की
एक चिट्ठी
बिना पते की

एक सफेद
सादे पन्ने
के साथ
उत्तर की
अभिलाषा में

बिना टिकट
लैटर बाक्स में
डाल कर
आने का
अपना मजा है

पोस्टमैन
कौन सा
गिनती करता है

किसी दिन
एक कम
किसी दिन
दो ज्यादा

खबर
ताजा हो
या बासी

खबर
दिमाग लगाने
के लिये नहीं

पढ़ने सुनने
सुनाने भर
के लिये होती है

कागज में
छपी हो तो
उसका भी
लिफाफा
बना दिया
जाता है कभी

चिट्ठी में
घूमती तो
रहती है
कई कई
दिनों तक

वैसे भी
बिना पते
के लिफाफे को

किसने
खोलना है
किसने पढ़ना है

पढ़ भी
लिया तो

कौन सा
किसी खबर
का जवाब देना
जरूरी होता है

कहाँ
किसी किताब
में लिखा
हुआ होता है

लगा रह ‘उलूक’

तुझे भी
कौन सा
अखबार
बेचना है

खबर देख
और
ला कर रख दे

रोज एक
कम से कम

एक नहीं
तो कभी
आधी ही सही
कहो कैसी कही ?

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

रविवार, 27 सितंबर 2009

आशिक

वो अब हर बात में पैमाना ढूंढते हैं
मंदिर भी जाते हैं तो मयखाना ढूंढते हैं ।

मुहल्ले के लोगों को अब नहीं होती हैरानी
जब शाम होते ही सड़क पर आशियाना ढूंढते हैं ।

पहले तो उनकी हर बात पे दाद देते थे वो
अब बात बात में नुक्ताचीनी का बहाना ढूंढते हैं ।

जब से खबर हुवी है उनकी बेवफाई की
पोस्टमैन को चाय पिलाने का बहाना ढूंढते हैं ।

तारे तक तोड़ के लाने की दीवानगी थी जिनमें
बदनामी के लिये अब उनकी एक कारनामा ढूंढते हैं ।

उनकी शराफत के चरचे आम थे हर एक गली में
अब गली गली मुंह छुपाने का ठिकाना ढूंढते हैं ।