उलूक टाइम्स: फैसला
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गुरुवार, 30 अगस्त 2018

गिरफ्तारी सजा जेल बीमे की भी जरूरत महसूस होने लगी है आज फितूरी ‘उलूक’ की एक और सुनिये बकवास




जरूरत 
नहीं है
अब 

किसी 
कोर्ट
कचहरी 
वकील की
जनाब 


जजों
को भी 
कह दिया जाये 

कुछ
नया काम 
ढूँढ लिजिये
अब 
अपने लिये भी 

किसी
झण्डे 
के नीचे
आप 

तुरत फुरत में 
होने लगा है 
फटाफट
जब 
अपने आप 

सारा
सब कुछ 
बहुत
साफ साफ 

खबर
के
चलते ही 

छपने छपाने
तक 

पहुँचने
से
पहले ही 

जिरह 
बहस होकर 

फैसला
सुनाना 
शुरु
हो गया है 

किसी 
तरफ से 
कोई एक 

निकाल
कर 
मुँह अपना 

सुबह 
बिना धोये 
उठते उठते 
लिये हाथ में 

गरम धुआँ 
उठाता
हुआ 

चाय
का
गिलास 

दे दे रहा हो 
जैसे
खुद 
खुदा को 

यूँ ही
मुफ्त में 

उसके किये 
करवाये
का 
न्याय और इन्साफ 

गुनहगार 
और
गुनाह 
ही
बस 

जरूरी नहीं 
रह गया है
अब 

अन्दर 
हो
जाने के लिये 

बुद्धिजीवी 
कहलाये जाने 
के लिये 

जरूरी
हो गया 
है होना
लेकिन 

पढ़ाई लिखाई 
में
फीस माफ 

ताकीद है 

जाँच लें
वक्त रहते 

अपनी
सोच की 
लम्बाई और चौड़ाई 

पैमाना लेकर 
खुली धूप में 
बैठ कर 
अपने
आप

मत कह देना 
बाद में

कभी 
बताया नहीं 

छोटी
सोच के 
शेयरों में
ले आये 
अचानक उछाल 

कोई
बिना धनुष 
का
तीरंदाज 

इतनी
वफादारी 
जिम्मेदारी पहरेदारी 
नहीं
देखी होगी 

पूरी हो चुकी 
तीन चौथाई
से 
ज्यादा की
जिन्दगी में 
‘उलूक’
तूने भी 

कुछ सोच
कुछ खुजा 

अपना
खाली दिमाग 

लगा
कुछ अन्दाज 

कर शुरु 

गिरफ्तारी 
जेल सजा बीमा 

कब कौन 
अन्दर हो जाये 

रात
के सपने 
के टूटने
से पहले ही 

बाहर 
निकल कर 
आने का 

कहीं
तो हो 
किसी के पास 

अपना भी 

कुछ 
लेन देन
कर 

लेने देने
का 
हिसाब किताब 

कुछ
बिन्दास। 

चित्र साभार: https://www.dallasnews.com

सोमवार, 9 मार्च 2015

नहीं लिखा जाता है तो क्यों लिखने चला आता है


छोड़ता कोई किसी को है डाँठ कोई और खाता है
इस देश में होने लगा है बहुत कुछ अजीब गरीब
किसी की करनी का फल किसी और की झोली में चला जाता है

फैसला घर वालों 
का घर में ही लिया जाता है
घर से निकल कर कैसे जनता में चला जाता है

चीर फाड़ होना 
शुरु होती है
कोई छुरा तो कोई कुल्हाड़ी लिये नजर आता है

बकरी खेत में खुली 
घूम रही होती है
फोटो खींचने वाला रस्सी की फोटो खींच लाता है

लिखने के लिये रोज ही मिलता है कुछ मसाला
पकाते पकाते कुछ कच्चा कुछ पक्का हो जाता है

खाने को भी 
किसने आना है
किसी के लिये नमक कम किसी के लिये मसाला ज्यादा हो जाता है

कौन किसके साथ है कौन किसके साथ नहीं है
पहले भी कभी समझ में नहीं आ पाया
अब इस उम्र में आकर जो क्या आ पाता है

घर संभलता नहीं है 
जिस किसी से
वो देश को संभालने के लिये चला जाता है
‘उलूक’ बैठा  टी वी के सामने रोज दो में से चार घटाता है

चित्र साभार: galleryhip.com

मंगलवार, 4 मार्च 2014

तेरी कहानी का होगा ये फैसला नही था कुछ पता इधर भी और उधर भी

वो जमाना
नहीं रहा
जब उलझ
जाते थे
एक छोटी सी
कहानी में ही
अब तो
कितनी गीताऐं
कितनी सीताऐं
कितने राम
सरे आम
देखते हैं
रोज का रोज
इधर भी
और उधर भी
पर्दा गिरेगा
इतनी जल्दी
सोचा भी नहीं था
अच्छा किया
अपने आप
बोल दिया उसने
अपना ही था
अपना ही है
सिर पर हाथ रख
कर बहुत आसानी से
उधर भी और इधर भी
हर कहाँनी
सिखाती है
कुछ ना कुछ
कहा जाता रहा है
देखने वाले का
नजरिया देखना
ज्यादा जरूरी होता है
सुना जाता है
उधर भी और इधर भी
कितना अच्छा हुआ
मेले में बिछुड़ा हुआ
कोई जैसे बहुत दूर से
आकर बस यूँ ही मिला
दूरबीन लगा कर
देखने वालों को
मगर कुछ भी
ना मिला देखने
को सिलसिला कुछ
इस तरह का
जब चल पड़ा
इधर भी और उधर भी
उसको भी पता था
इसको भी पता था
हमको भी पता था
होने वाला है
यही सब जा कर अंतत:
इधर भी और उधर भी
रह गया तो बस
केवल इतना गिला
देखा तुझे ही क्योंकर
इस तरह सबने
इतनी देर में जाकर
तीरंदाज मेरे घर में
भी थे तेरे जैसे कई
इधर भी और उधर भी
खुल गया सब कुछ
बहुत आसानी से
चलो इस बार
अगली बार रहे
ध्यान इतना
देखना है सब कुछ
सजग होकर तुझे
इधर भी और उधर भी ।