उलूक टाइम्स: बाती
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गुरुवार, 11 सितंबर 2014

बीमार था आदतन भरे पेट रोटियों पर झपट रहा था


कई सालों से
जिसे 
एक चिराग मान कर 
उसके कुछ फैलाने को रोशनी समझ रहा था 

पता नहीं क्या क्या था 
और क्या क्या नहीं था
किस को क्या और किस को क्या
कोई 
क्यों समझ रहा था 

चिराग है वो एक 
उसने ही कहा था 
सभी से और मुझ से भी 

एक बड़े झूठ को 
उसके कहने पर
जैसे 
सच मुच का सच मैं समझ रहा था 

रुई की लम्बी बाती 
बस एक ही नहीं थी
और बहुत सारी अगल और बगल में भी रख रहा था 
सिरा उसके पास ही था सभी का
और 
पूँछ से जिनकी कई और चिरागों से 
कुछ ना कुछ चख रहा था 

अपने तेल के स्तर 
को बराबर
उसी 
स्तर पर बनाये भी रख रहा था 
भूखे चिरागों के लड़ने की ताकत को
उनके तेल के 
स्तर के घटने से परख रहा था 

रोशनी की बातों को 
रोशनी में
बहुत जोर 
दे दे कर सामने से 
जनता के रख रहा था 

एक खोखला चिराग 
रोशन चिराग का पता
अपनी छाती 
पर चिपकाये 
पता नहीं कब से कितनों को ठग रहा था 

अंधा ‘उलूक’ 
अंधेरे में बैठा दोनों आँख मूँदे 
ना जाने कब से रोशनी ही रोशनी 
बस बक रहा था । 


चित्र साभर: http://www.shutterstock.com/

सोमवार, 25 नवंबर 2013

मत बताना नहीं मानेंगे अगर कहेगा ये सब तू ही कह रहा था

पिछले
दो दिन 
से यहाँ दिखाई
नही दे रहा था

पता नहीं
कहाँ 
जा कर
किस को 
गोली
दे रहा था


खण्डहर में
उजाला 
नहीं
हो रहा था


दिये में बाती

दिख रही थी
तेल पता नहीं
कौन आ कर
पी रहा था

आसमान
नापने 
का
ठेका कहीं

हो रहा था

खबर सच है

या झूठ मूठ  
पता करने
के लिये

उछल उछल
कर 
कुँऐ की
मुंडेर 
छू रहा था

बाहर के उजाले

का क्या कहने
हर काला भी
चमकता हुआ
सफेद हो रहा था

किसी के आँखों में

सो रहे थे सपने
कोई सपने सस्ते 
में बेच कर भी
अमीर हो रहा था

सोच क्यों नहीं

लेता पहले से 
कुछ ‘उलूक
अपने कोटर से
बाहर निकलने
से पहले कभी

अपने और
अपनो के
अंधेरों में
तैरने के आदी
मंजूर नहीं करेंगे

सुबह होती
दिख रही थी कहीं
बहुत नजदीक से

और
वाकई में तू
देख रहा था

और
तुझे सब कुछ
साफ और
बहुत साफ
दिन के
उजाले सा
दिखाई भी
दे रहा था ।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

एक जैसा महसूस हो सबको जरूरी नहीं होता

रंग रोगन साफ
सफाई और घर
गन्ने की बनी
सुंदर सी लक्ष्मी
गणेश पूजा अर्चना
मिट्टी के दिये
तेल बाती मोमबत्तियां
चकरी फुलझड़ियां
सजी संवरी गृहणियां
उत्साह से सरोबार
बच्चे जवान बुड्ढे
बुड़िया लड़के लड़कियां
मन के अंदर जगमगाहट
झिलमिलाती बाहर
की रोशनियाँ
सजे हुऐ लबालब
भरे हुए बाजार
बर्तन भांडे कपड़े
लत्तों की भरमार
ये सब देखा था
कुछ ही दिन पहले
की जैसी हो बात
आज भी बहुत कुछ
वहीं का वहीं है
मशीन उगलने
लगी हैं लक्ष्मी
रोशनी से आँखें
चकाचौंध हैं
पठाके हैं कान फोड़
आवाज है धुआं है
घबराहट है जैसे
रुक रही सांस है
दीपावली रोशनी का
खुशी का त्योहार
तब भी था अब भी है
बस बदली बदली
लगता है एक ही चीज
पहले जहां होता था
इंतजार किसी के
आने का बेकरारी से
इंतजार आज भी होता है
पर बैचेनी के साथ
उतना ही उसी के
आकर चले जाने का ।