कैसे बनेगा कुछ नया उस से
जिसके शब्दों की रेल में
गिनती के होते हैं
कुछ ही डब्बे
और
उसी रेल को लेकर वो
उसी रेल को लेकर वो
सफर करता हो हमेशा ही
एक इंटरसिटी की यात्रा की तरह
अपने घर से मौहल्ले बाजार होते हुऐ
शहर की इस गली से उस गली में
निकलते हुऐ
वही रोज की गुड मोर्निंग वही मुस्कुराहटें
वही पैदल चलने वालों को रौंदने की इच्छा करते हुऐ
सड़क पर दौड़ते दो पहिये चार पहिये
कुछ कुत्ते कुछ सांड कुछ पुलिस वाले बेचारे
नेताओं की ओर से मुँह फेरते हुऐ
बच्चों और लड़कियों को सीटी बजाकर
उनके वाहनो को खदेड़ने के करते हुऐ इशारे
मंदिरों के सामने से उनको ढकती
खड़ी होती सड़क पर पहँच कर
दुकाने निकालती
चालीस फीट उँचाई के नियम को
तोड़ती बिखेरती मीनारें
और अंत में
वही रोज का तालाब
जिसके किनारे से लगा होता है एक बोर्ड
यहाँ मछली पकड़ना सख्त मना है
और कोई भी जहाँ मछली पकड़ता हुआ
कहीं भी नजर नहीं आता है
मछलियां अपने आप फंसना फंसाना सीखती है
कोई किसी से कुछ नहीं कहता है
या कहो कहना ही नहीं चाहता है
या नहीं कह पाता है
कुर्सियाँ भी तो हर जगह होती ही हैं
किनारे किनारे
उन पर कोई भी कभी भी कहीं भी बैठ जाता है
बस कुछ गोलियांं रखता है अपने पास
सबको बाँटता चला जाता है
गोली देने में कोई जात पात
कोई ईमान धर्म भी नहीं देखा जाता है
सब कुछ लोकतांंत्रिक तरीके से किया जाता है
अब
‘उलूक’ का तो
रोज का यही काम रह जाता है
रोज शुरु करता है अपनी यात्रा
रोज जाता है मछलियां देखता है
और वापिस भी आ जाता है
रेल के कुछ डब्बों को आगे पीछे करता हुआ
दूसरे दिन के लिये एक रेल बनाता है
ऐसे में कोई कैसे उम्मीद करता है
कुछ नया खुद का बनाया हुआ
रेल का एक डब्बा ही सही
कोई क्यों नहीं किसी को दिखाता है ।
चित्र साभार: