उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

सब कुछ जायज है अखबार के समाचार के लिये जैसे होता है प्यार के लिये

समाचार
देने वाला भी
कभी कभी
खुद एक
समाचार
हो जाता है

उसका ही
अखबार
उसकी खबर
एक लेकर
जब चला
आता है

पढ़ने वाले
ने तो बस
पढ़ना होता है

उसके बाद
बहस का
एक मुद्दा
हो जाता है

रात की
खबर जब
सुबह तक
चल कर
दूर से आती है

बहुत थक
चुकी होती है
असली बात
नहीं कुछ
बता पाती है

एक कच्ची
खबर
इतना पक
चुकी होती है

दाल चावल
के साथ
गल पक
कर भात
जैसी ही
हो जाती है

क्या नहीं
होता है
हमारे
आस पास

पैसे रुपिये
के लिये
दिमाग की
बत्ती गोल
होते होते
फ्यूज हो
जाती है

पर्दे के
सामने
कठपुतलियाँ
कर रही
होती हैं
तैयारियाँ

नाटक दिखाने
के लिये
पढ़े लिखों
बुद्धिजीवियों
को जो बात
हमेशा ही
बहुत ज्यादा
रिझाती हैं

जिस पर्दे
के आगे
चल रही
होती है
राम की
एक कथा

उसी पर्दे
के पीछे
सीता के
साथ
बहुत ही
अनहोनी
होती चली
जाती है

नाटक
चलता ही
चला जाता है

जनता
के लिये
जनता
के द्वारा
लिखी हुई
कहानियाँ
ही बस
दिखाई
जाती हैं

पर्दा
उठता है
पर्दा
गिरता है
जनता
उसके उठने
और गिरने
में ही भटक
जाती है

कठपुतलियाँ
रमी होती है
जहाँ नाच में
मगन होकर

राम की
कहानी ही
सीता की
कहानी से
अलग कर
दी जाती है

नाटक
देखनेवाली
जनता
के लिये ही
उसी के
अखबार में
छाप कर
परोस दी
जाती है

एक ही
खबर
एक ही
जगह की
दो जगहों
की खबर
प्यार से
बना के
समझा दी
जाती है ।

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

पल्टी मार लेना कभी भी बहुत आसान होता है

इस जहाँ में
मौसम का असर
किसी भी मुद्दे पर
दिखाई देता है
किसी के बारे में
एक राय कायम
कर लेना वाकई
एक बहुत ही
टेढ़ी खीर होता है
अपने आस पास
हर शख्स के बारे में
ज्यादातर सबको ही
सब कुछ पता होता है
आदमी ही आदमी को
समझने की कोशिश में
एक नहीं कई भूल
कर ही देता है
गलतफहमियां भी
होती ही है
किसी ना किसी को
कभी ना कभी
कौन इस बात को
बहुत ज्यादा
तूल देता है
बहुत उठा पटक
करते हैं लोग बाग
यूं भी फितरत
में किसी ने
क्या पाया है
कई बार ये भी
पता नहीं होता है
जो भी होता है
जैसा भी होता है
इन सब के बावजूद
कहीं ना कहीं कोई
कुछ अजीब सा
भी तो होता है
बदलता नहीं है
कुछ भी कभी भी
एक साफ सीधी
लकीर सा होता है
किसी भी परिस्थिति
और देशकाल का
उसपर कुछ भी
असर नहीं होता है
समय के कठिन से
कठिन प्रश्नो का
जिसके पास एक
बहुत सरल सा
उत्तर होता है
कभी तो बदलेगा
किसी बात को
लेकर ऐसा आदमी
सोचने वाला सोचता है
बस नहीं कहता है
कुछ ऐसा गजब
का होता है जो भी
उसकी सोच का भी
अजब का एक
नजरिया होता है
सच में होता है
सोचने का दायरा
किसी किसी का
जिसके लिये एक
आकाश भी छोटा
और बहुत छोटा
सा होता है
हर किसी का
तो जरूरी नहीं
पर होता है
कोई खुशकिस्मत
भी कहीं ना कहीं
जो जरूर होता है
जिसके आस पास
उसका कोई एक
साथी कुछ कुछ
ऐसा जरूर होता है
राजनीति के किसी
काम का बिल्कुल
भी नहीं होता है
बस यही और यही
तो एक आम
आदमी होता है | 

बुधवार, 8 जनवरी 2014

समझ में कहाँ आता है जब मरने मरने में फर्क हो जाता है

एक आदमी के
मरने की खबर
और एक औरत
के मरने की खबर
अलग अलग खबरें
क्यों और कैसे
हो जाती होंगी
मौत तो बस
मौत होती है
कभी भी अच्छी
कहाँ होती है
चाहे पूरी उम्र
में होती है
या कभी थोड़ी
जल्दी में होती है
कभी कहीं एक
आदमी मर जाता है
मातम पसरा सा
नहीं दिख पाता है
कुछ कुछ सुकून
सा तक नजर
कहीं कहीं आता है
फुसफुसाते हुऐ एक
कह ही जाता है
ठीक ही हुआ
बीबी और बच्चों
के हक में हुआ
जो हुआ जैसा हुआ
अब ये क्या हुआ
उधर एक औरत
मर जाती है
बूढ़ी भी नहीं
हो पाती है
मातम चारों ओर
पसर जाता है
हर कोई कहता
नजर आता है
बहुत बुरा हो गया
बच्चों का आसरा
ही देखिये छिन गया
ऐसा हर जगह हो
जरूरी नहीं होता है
पर जहाँ होता है
कुछ कुछ इसी
तरह का होता है
“उलूक” के
दिमाग का बल्ब
जब कभी इस तरह
फ्यूज हो जाता है
घर का “गूगल”
सरल शब्दों में
उसे समझाता है
जो आदमी मरा
अपने कर्मो से मरा
बुरा हुआ पर
उसका दोष बस
उसको ही जाता है
और जो औरत
मरी वो भी
आदमी के ही
कर्मों से मरी
उसका दोष भी
आदमी को ही
दिया जाता है
आदमी के और
औरत के मरने में
बस यही फर्क
हो जाता है
अब मत कहना
बस यही तो
समझ में नहीं
आ पाता है ।

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

समय खुद लिखे हुऐ का मतलब भी बदलता चला जाता है

बहुत जगह
बहुत कुछ
कुछ ऐसे भी
लिखा हुआ
नजर आ
जाता है

जैसे आईने
पर पड़ी
धूल पर
अँगुलियों
के निशान
से कोई
कुछ बना
जाता है

सागर किनारे
रेत पर बना
दी गई
कुछ तस्वीरेँ

पत्थर की
पुरानी दीवार
पर बना
एक तीर से
छिदा हुआ दिल

या फिर
कुछ फटी हुई
कतरनों
पर किये हुऐ
टेढ़े मेढ़े हताक्षर

हर कोई
समय के
हिसाब से
अपने मन के
दर्द और
खुशी उड़ेल
ले जाता है

कहीं भी
इधर या उधर
वो सब बस यूँ ही
मौज ही मौज में
लिख दिया जाता है

इसलिये
लिखा जाता है
क्यूँकि बताना
जब मुश्किल
हो जाता है

और जिसे
कोई समझना
थोड़ा सा भी
नहीं चाहता है

हर लिखे हुऐ का
कुछ ना कुछ
मतलब जरूर
कुछ ना कुछ
निकल ही जाता है

बस मायने बदलते
ही चले जाते हैं
समय के साथ साथ

उसी तरह
जिस तरह
उधार लिये हुऐ
धन पर
दिन पर दिन
कुछ ना कुछ
ब्याज चढ़ता
चला जाता है

यहाँ तक
कि खुद ही
के लिखे हुऐ
कुछ शब्दों पर

लिखने वाला
जब कुछ साल बाद
लौट कर विचार कुछ
करना चाहता है

पता ही
नहीं चलता है
उसे ही
अपने लिखे हुऐ
शब्दो का ही अर्थ

उलझना
शुरु हुआ नहीं
बस उलझता
ही चला जाता है

इसीलिये जरूरी
और
बहुत ही जरूरी
हो जाता है

हर लिखे हुऐ को
गवाही के लिये
किसी ना किसी को
कभी ना कभी बताना
मजबूरी हो जाता है

छोटी सी बात को
समझने में एक पूरा
जीवन भी कितना
कम हो जाता है

समय हाथ से
निकलने के
बाद ही
समय ही
जब समझाता है ।

सोमवार, 6 जनवरी 2014

वो क्या देश चलायेगा जिसे घर में कोई नहीं सुना रहा है

सुबह सुबह
बहुत देर तक
बहुत कुछ कह
देने के बाद भी
जब पत्नी को
पतिदेव की ओर से
कोई जवाब
नहीं मिल पाया
मायूस होकर उसने
अपनी ननद
की तरफ मुँह
घुमाते हुऐ फरमाया
चले जाना ठीक रहेगा
पूजा घर की तरफ
भगवान के पास जाकर
नहीं सुना है कभी भी
कोई निराश है हो पाया
भगवान भी तो बस
सुनता रहता है
कभी भी कुछ
कहाँ कहता है
बिना कुछ कहे भी
कभी कभी बहुत कुछ
ऐसे ही दे देता है
पतिदेव जो बहुत देर से
कान खुजला रहे थे
बात शुरु होते ही
कान में अँगुली
को ले जा रहे थे
बहुत देर के बाद दिखा
डरे हुऐ से कुछ
नजर नहीं आ रहे थे
कहीं मुहँ के कोने से
धीमे धीमे मुस्कुरा रहे थे
बोले भाग्यवान
कर ही देती हो तुम
कभी ना कभी
सौ बातों की एक बात
जिसका नहीं हो सकता है
मुकाबला किसी के साथ
देख नहीं रही हो
आजकल अपने
ही आसपास
सब भगवान का
दिया लिया ही तो
नजर आ रहा है
सारे बंदर लिये
फिर रहे हैं अदरख
अपने अपने हाथों में
मदारी कहीं भी
नजर नहीं आ रहा है
तुझे भी कोशिश
करनी चाहिये
भगवान से
ये सब कुछ कहने की
भगवान आजकल
बिना सोचे समझे
किसी को भी
कुछ ना कुछ
दिये जा रहा है
जितना नालायक
सिद्ध कर सकता है
कोई अपने आप को
आजकल के समय में
उतनी बड़ी जिम्मेदारी
का भार उठा रहा है
सब तेरे भगवान
की ही कृपा है
अनाड़ियों से बनवाई
गयी पकौड़ियों को
सारे खिलाड़ियों को
खाने को मजबूर
किया जा रहा है
वाकई जय हो
तेरे भगवान जी की
कुछ करे ना करे
झंडे डंडो में बैठ कर
चुनावों में कूदने
के लिये तो
बड़ा आ रहा है
पति भी होते हैं
कुछ उसके जैसे
उन्ही को बस
पति परमेश्वर
कहा जा रहा है
बहुत ज्यादा
फर्क नहीं है
कहने सुनने में
तेरी मजबूरी है
कहते चले जाना
कोई नहीं सुन
पा रहा है
पति भी भेज रहा है
चिट्ठियाँ डाक से
इधर उधर तब से
डाकिया लैटर बाक्स
खोलने के लिये ही
नहीं आ रहा है ।