उलूक टाइम्स: धूल
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मंगलवार, 2 मई 2023

बस यूँ ही



रोज खुलती हैं खिड़कियाँ
कुछ हवा होती है कुछ धूल होती है
झिर्रियों से झांकती है जिंदगी
सांस होती है फिजूल होती है

लिखना भूल जाने का मतलब
लिखना नहीं आना नहीं होता है
कुछ
अहसास लिख जाते है
कुछ को लिख दिये का अहसास होता है

अजीब मौसम हैं अजीब बारिशें है
बादल कहीं नहीं होता है
इतना बरसता है आदमी 
पानी पानी हो शर्मसार होता है

उसको इसका सब पता होता है
इसको उसका सब पता होता है
अपने पते पर लापता लोगों को
बस अपना कुछ पता 
नहीं होता है

इधर मुक्ति पालो उधर बंधुआ हो लेती है सोच
सबको पता होता है
खुले दिमाग मरीचिका होते हैं
कोई कहता नहीं 
है मगर गुलाम होता है

सनद रहेगी वक्त पर काम भी आयेगी
बस लिखना जरुरी होता है
रेत है हर तरफ
आंधी में लिखा सब कुछ सामने से ही उड़ा होता है

वो रेतते हैं गले गले भरे शब्दों के
शराफत का यही कायदा होता है
खून से लिखते हैं आजादी
जर्रे जर्रे में जिसने सब हलाल किया होता है

खौलता है तो क्या होता है खौलने दे
  कुछ नहीं 
कहीं होता है
देख और देखता चल 'उलूक' सब देख रहे हैं
बस कुछ देखना ही होता है |  

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शुक्रवार, 15 मई 2015

समझदारी समझने में ही होती है अच्छा है समय पर समझ लिया जाये

छलकने तक
आ जायें कभी
कोई बात नहीं
आने दिया जाये
छलकें नहीं ,
जरा सा भी
बस इतना
ध्यान दिया जाये
होता है और
कई बार
होता है
अपने हाथ
में ही नहीं
होता है
निकल पड़ते हैं
चल पड़ते हैं
महसूस होने
होने तक
भर देते हैं
जैसे थोड़े से
में गागर से
लेकर सागर
रोक दिया जाये
बेशकीमती
होते हैं
बूँद बूँद
सहेज लिया जाये
इससे पहले
कोशिश करें
गिर जायें
मिल जायें
धूल में मिट्टी में
लौटा लिया जाये
समझ में
आती नहीं
कुछ धारायें
मिलकर बनाती
भी नहीं
नदियाँ कहीं
ऐसी कि सागर
में जाकर
ही मिल जायें ।

चित्र साभार: www.clipartpanda.com

बुधवार, 29 जनवरी 2014

पुरानी किताब में भी बहुत कुछ दबा होता है खोलने वाले को पता नहीं होता है

एक
बहुत पुरानी 
सी किताब पर 
पड़ी धूल को झाड़ते ही

कुछ 
ऐसा लगा
जैसे 

कहीं किसी पेज 
पर
कोई चीज 
है अटकी हुई 

जिससे लग रही है 
किताब कुछ पटकी पटकी हुई 

चिपके हुऐ पन्नों के 
खुलने में बहुत ध्यान रखना पड़ा 

सोचना ये पड़ा 

फट ना जाये कहीं 
थोड़ा सा भी रखा हुआ कुछ विशेष 
और
हाथ से निकल 
ना जाये कोई खजाना बरसों पुराना 
या
उसके 
कोई भी अवशेष 

या
शायद
कोई 
सूखा हुआ
गुलाब 
ही दिख जाये 
किसी जमाने की किसी की
प्रेम 
कहानी ही समझ में आ जाये 

ऐसा भी मुमकिन है 
कुछ लोग रुपिये पैसे भी कभी किताबों में 
सँभाला करते थे 

हो सकता है 
ऐतिहासिक बाबा आदम के जमाने का कोई पैसा 
ऐसा निकल जाये 
अपनी खबर ना सही 
फटे नोट की किस्मत ही कुछ सुधर जाये 

किसी शोध पत्र में 
कोई उसपर कुछ लिख लिखा ले जाये 
धन्यवाद मिले नोट पाने वाले को 
नाम पत्र के अंतिम पेज में ही सही 
छप छपा जाये 

शेखचिल्ली के सपने 
इसी तरह के मौकों में समझ में आते होंगे 
किताबों के अंदर बहुत से लोग 
बहुत कुछ रख रखा कर भूल जाते होंगे 

परेशानी की बात
तो 
उसके लिये हो जाती होगी
जिसके 
हाथ
इस तरह की 
पुरानी किताब कहीं से पड़ जाती होगी 

बड़ी मेहनत और 
जतन से
चाकू 
स्केल की मदद से 
बहुत देर में जब सफलता हाथ में आ ही जाती है 

जो होता है अंदर से 
उसे देख कर खुद झेंप आ जाती है 
अपने ही लेख में लिखी
एक इबारत 
पर जब
नजर 
पड़ जाती है 

लिखा होता है 

"इसे इसी तरह से 
चिपका कर उसी तरह रख दिया जाये 
'उलूक' अपनी बेवकूफी किसी को बताई नहीं जाती है" ।

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

समय खुद लिखे हुऐ का मतलब भी बदलता चला जाता है

बहुत जगह
बहुत कुछ
कुछ ऐसे भी
लिखा हुआ
नजर आ
जाता है

जैसे आईने
पर पड़ी
धूल पर
अँगुलियों
के निशान
से कोई
कुछ बना
जाता है

सागर किनारे
रेत पर बना
दी गई
कुछ तस्वीरेँ

पत्थर की
पुरानी दीवार
पर बना
एक तीर से
छिदा हुआ दिल

या फिर
कुछ फटी हुई
कतरनों
पर किये हुऐ
टेढ़े मेढ़े हताक्षर

हर कोई
समय के
हिसाब से
अपने मन के
दर्द और
खुशी उड़ेल
ले जाता है

कहीं भी
इधर या उधर
वो सब बस यूँ ही
मौज ही मौज में
लिख दिया जाता है

इसलिये
लिखा जाता है
क्यूँकि बताना
जब मुश्किल
हो जाता है

और जिसे
कोई समझना
थोड़ा सा भी
नहीं चाहता है

हर लिखे हुऐ का
कुछ ना कुछ
मतलब जरूर
कुछ ना कुछ
निकल ही जाता है

बस मायने बदलते
ही चले जाते हैं
समय के साथ साथ

उसी तरह
जिस तरह
उधार लिये हुऐ
धन पर
दिन पर दिन
कुछ ना कुछ
ब्याज चढ़ता
चला जाता है

यहाँ तक
कि खुद ही
के लिखे हुऐ
कुछ शब्दों पर

लिखने वाला
जब कुछ साल बाद
लौट कर विचार कुछ
करना चाहता है

पता ही
नहीं चलता है
उसे ही
अपने लिखे हुऐ
शब्दो का ही अर्थ

उलझना
शुरु हुआ नहीं
बस उलझता
ही चला जाता है

इसीलिये जरूरी
और
बहुत ही जरूरी
हो जाता है

हर लिखे हुऐ को
गवाही के लिये
किसी ना किसी को
कभी ना कभी बताना
मजबूरी हो जाता है

छोटी सी बात को
समझने में एक पूरा
जीवन भी कितना
कम हो जाता है

समय हाथ से
निकलने के
बाद ही
समय ही
जब समझाता है ।

बुधवार, 28 अगस्त 2013

मैने तो नहीं पढ़ी है क्या आप के पास भी गीता पड़ी है

कृष्ण
जन्माष्टमी
हर वर्ष
की तरह
इस बार
भी आई है

आप
सबको
इस पर्व
पर बहुत
बहुत
बधाई है

बचपन से
बहुत बार
गीता के
बारे में
सुनता
आया था

आज फिर
से वही
याद लौट
के आई है

कोशिश की
कई बार
पढ़ना शुरू
करने की
इस ग्रन्थ को
पर कभी
पढ़ ही
नहीं पाया

संस्कृत में
हाथ तंग था
हिन्दी भावार्थ
भी भेजे में
नहीं घुस पाया

आज
फिर सोचा
एक बार
यही कोशिश
फिर से
क्यों नहीं
की जाये

 दिन
अच्छा है
अच्छी
शुरुआत
कुछ आज
ही कर
ली जाये

जो
समझ
में आये
आत्मसात
भी कर
लिया जाये

कुछ
अपना और
कुछ अपने
लोगों का
भला कर
लिया जाये

गीता थी
घर में एक

देखी कहीं
पुत्र से पूछा

पुस्तकालय
के कोने से
वो एक
पुरानी पुस्तक
उठा के
ले आया

कपडे़ से
झाड़ कर
उसमें
जमी हुई
धूल को
उड़ाया

पन्नो के
भीतर
दिख रहे थे

कागज
खाने वाले
कुछ कीडे़
उनको
झाड़ कर
भगाया

फिर
सुखाने को
किताब को
धूप में
जाकर के
रख आया

किस्मत
ठीक नहीं थी
बादलों ने सूरज
पर घेरा लगाया

कल को
सुखा लूंगा
बाकी
ये सोच
कर वापस
घर के अंदर
उठा कर
ले आया

इतनी
शुरुआत
भी क्या
कम है

महसूस
हो रहा है
अभी भी
इच्छा शक्ति
में कुछ दम है

पर आज
तो मजबूरी है
धूप किताब
को दिखाना
भी बहुत
जरूरी है

आप के
मन में
उठ रही
शंका का
समाधान
होना भी
उतना ही
जरूरी है

जिस
गीता को
आधी जिंदगी
नहीं कोई
पढ़ पाया हो

उसके लिये
गीता को
पढ़ना इतना
कौन सा
जरूरी हो
आया हो

असल में
ये सब
आजकल
के सफल
लोगों को
देख कर
महसूस
होने लगा है

जरूर इन
लोगों ने
गीता को
समझा है
और बहुत
बार पढ़ा है

सुना है
कर्म और
कर्मफल
की बात
गीता में ही
समझायी
गयी है
और
यही सब
सफलता
की कुंजी
बनाकर
लोगों के
द्वारा
काम में
लायी गयी है

मैं जहाँ
किसी
दिये गये
काम को
करना चाहिये
या नहीं
सोचने में
समय
लगाता हूँ

तब तक
बहुत से लोगों
के द्वारा
उसी काम को
कर लिया
गया है की
खबर अखबार
में पाता हूँ

वो सब
कर्म करते हैं
सोचा नहीं
करते हैं

इसीलिये
फल भी
काम करने
से पहले ही
संरक्षित
रखते हैं

मेरे जैसे
गीता ज्ञान
से मरहूम
काम गलत
है या सही
सोचने में ही
रह जाते हैं

काम होता
नहीं है
तो फल
हाथ में
आना
तो दूर

दूर से
भी नहीं
दिख पाते हैं

गीता को
इसीलिये
आज बाहर
निकलवा
कर ला
रहा हूँ

कल से
करूँगा
पढ़ना शुरू
आज तो
धूप में
बस सुखा
रहा हूँ ।

गुरुवार, 14 जून 2012

चाँद मान भी जा

गैस के सिलिण्डर
पानी बिजली
की कटौती से
ध्यान हटवा
ऎ चांद अपनी
चाँदनी और सितारों
के साथ कभी तो
मेरे ख्वाबों में भी आ
भंवरों की तरह
मुझ से  भी कभी
फूलों के ऊपर
चक्कर लगवा
खुश्बू से तरबतर कर
धूऎं धूल धक्कड़
सीवर की बदबू से
कुछ देर की सही
राहत मुझे दिला
इतनी नाइंसाफी ना कर
कोई दिये जा रहा है
किसी को अपने
घर के गुलदस्ते
और फूलों को
ला ला कर
मुझ को भी कोई
ऎसा काम कभी
पार्ट टाईम
में ही दिलवा
रोज आलू सब्जी
दाल चावल की
लिस्ट हाथों में
मेरे ना थमवा
मानता हूँ हुए
जा रहा है बहुत कुछ
अजब गजब सा
चारों तरफ हर ओर
इन सब पर कभी तो
कुछ कुछ आशिकों
से भी लिखवा
कुछ देर के लिये सही
मेरी सोच को बदलवा
मुझे भी इन सब लोगों
का जैसा बनवा
ऎ चाँद सितारों के
साथ कभी तो आ
कुछ रसीली खट्टी
मीठी बातें कभी
मुझसे भी लिखवा
बस अजूबों पर ही
मेरा ध्यान ना डलवा
आज के आदमी
का अक्स मेरे
अंदर भी ले आ
ऎ चांद अपनी
चाँदनी और सितारों
के साथ कभी तो
मेरे ख्वाबों
में भी आजा।