बहुत जगह
बहुत कुछ
कुछ ऐसे भी
लिखा हुआ
नजर आ
जाता है
जैसे आईने
पर पड़ी
धूल पर
अँगुलियों
के निशान
से कोई
कुछ बना
जाता है
सागर किनारे
रेत पर बना
दी गई
कुछ तस्वीरेँ
पत्थर की
पुरानी दीवार
पर बना
एक तीर से
छिदा हुआ दिल
या फिर
कुछ फटी हुई
कतरनों
पर किये हुऐ
टेढ़े मेढ़े हताक्षर
हर कोई
समय के
हिसाब से
अपने मन के
दर्द और
खुशी उड़ेल
ले जाता है
कहीं भी
इधर या उधर
वो सब बस यूँ ही
मौज ही मौज में
लिख दिया जाता है
इसलिये
लिखा जाता है
क्यूँकि बताना
जब मुश्किल
हो जाता है
और जिसे
कोई समझना
थोड़ा सा भी
नहीं चाहता है
हर लिखे हुऐ का
कुछ ना कुछ
मतलब जरूर
कुछ ना कुछ
निकल ही जाता है
बस मायने बदलते
ही चले जाते हैं
समय के साथ साथ
उसी तरह
जिस तरह
उधार लिये हुऐ
धन पर
दिन पर दिन
कुछ ना कुछ
ब्याज चढ़ता
चला जाता है
यहाँ तक
कि खुद ही
के लिखे हुऐ
कुछ शब्दों पर
लिखने वाला
जब कुछ साल बाद
लौट कर विचार कुछ
करना चाहता है
पता ही
नहीं चलता है
उसे ही
अपने लिखे हुऐ
शब्दो का ही अर्थ
उलझना
शुरु हुआ नहीं
बस उलझता
ही चला जाता है
इसीलिये जरूरी
और
बहुत ही जरूरी
हो जाता है
हर लिखे हुऐ को
गवाही के लिये
किसी ना किसी को
कभी ना कभी बताना
मजबूरी हो जाता है
छोटी सी बात को
समझने में एक पूरा
जीवन भी कितना
कम हो जाता है
समय हाथ से
निकलने के
बाद ही
समय ही
जब समझाता है ।
बहुत कुछ
कुछ ऐसे भी
लिखा हुआ
नजर आ
जाता है
जैसे आईने
पर पड़ी
धूल पर
अँगुलियों
के निशान
से कोई
कुछ बना
जाता है
सागर किनारे
रेत पर बना
दी गई
कुछ तस्वीरेँ
पत्थर की
पुरानी दीवार
पर बना
एक तीर से
छिदा हुआ दिल
या फिर
कुछ फटी हुई
कतरनों
पर किये हुऐ
टेढ़े मेढ़े हताक्षर
हर कोई
समय के
हिसाब से
अपने मन के
दर्द और
खुशी उड़ेल
ले जाता है
कहीं भी
इधर या उधर
वो सब बस यूँ ही
मौज ही मौज में
लिख दिया जाता है
इसलिये
लिखा जाता है
क्यूँकि बताना
जब मुश्किल
हो जाता है
और जिसे
कोई समझना
थोड़ा सा भी
नहीं चाहता है
हर लिखे हुऐ का
कुछ ना कुछ
मतलब जरूर
कुछ ना कुछ
निकल ही जाता है
बस मायने बदलते
ही चले जाते हैं
समय के साथ साथ
उसी तरह
जिस तरह
उधार लिये हुऐ
धन पर
दिन पर दिन
कुछ ना कुछ
ब्याज चढ़ता
चला जाता है
यहाँ तक
कि खुद ही
के लिखे हुऐ
कुछ शब्दों पर
लिखने वाला
जब कुछ साल बाद
लौट कर विचार कुछ
करना चाहता है
पता ही
नहीं चलता है
उसे ही
अपने लिखे हुऐ
शब्दो का ही अर्थ
उलझना
शुरु हुआ नहीं
बस उलझता
ही चला जाता है
इसीलिये जरूरी
और
बहुत ही जरूरी
हो जाता है
हर लिखे हुऐ को
गवाही के लिये
किसी ना किसी को
कभी ना कभी बताना
मजबूरी हो जाता है
छोटी सी बात को
समझने में एक पूरा
जीवन भी कितना
कम हो जाता है
समय हाथ से
निकलने के
बाद ही
समय ही
जब समझाता है ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (08-01-2014) को "दिल का पैगाम " (चर्चा मंच:अंक 1486) पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जीवन भी कितना
जवाब देंहटाएंकम हो जाता है
समय हाथ से
निकलने के बाद
ही समय ही
जब समझाता है ! ---
जीवन जीने का सच
सार्थक रचना
बहुत खूब--
बहुत बहुत बधाई
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाऐं
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
गुलज़ार साहब ने एक कविता लिखी थी जिस कविता का मतलब एक बच्चे के लिये मज़ाकिया है जबकि एक मैच्योर आदमी के लिये बहुत सीरियस है!! शब्दों के अर्थ और लिखाई के माने समय के साथ नहीं बदलते.. हमारी सोच बदलती जाती है, एक प्रवाहित सलिल की तरह!!
जवाब देंहटाएंसलिल जी आप की बात से दौ सौ प्रतिशत सहमत ! आपने बकबक पढ़ी पूरी पूरी आभारी हूँ :)
हटाएंजीवन भी कितना
जवाब देंहटाएंकम हो जाता है
समय हाथ से
निकलने के बाद
ही समय ही
जब समझाता है !
----------------------------- rt / sr ------------ nc / post
हर लिखे हुऐ को
जवाब देंहटाएंगवाही के लिये
किसी ना किसी को
कभी ना कभी बताना
मजबूरी हो जाता है
छोटी सी बात को
समझने में एक पूरा
जीवन भी कितना
कम हो जाता है
समय हाथ से
निकलने के बाद
ही समय ही
जब समझाता है !
बढ़िया प्रतीक विधान शानदार तानाबाना भाव और अर्थ की
अन्विति लिए सुन्दर रचना। भाईजान ज़रा स्पेस रखें दो
पंक्तियों में ऐसा न लगे हाईकमान के दर्शनार्थी भीड़ किये हुए हैं ,…… .
आपकी इस ब्लॉग-प्रस्तुति को हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ कड़ियाँ (3 से 9 जनवरी, 2014) में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,,सादर …. आभार।।
जवाब देंहटाएंकृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा
बढ़िया कविता
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