उलूक टाइम्स

गुरुवार, 10 मई 2012

आभा मण्डल

चार लोगों से
कहलवाकर
अपने लिये
अलग कुर्सी
एक चाँदी
की लगवाकर

सब्जी लेने
हुँडाई में जाकर
कपड़ो में सितारे
टंकवाकर

कोशिश होती है
अपना एक
आभा मण्डल
बनाने की

अब
आभा मण्डल हो
या
प्रभा मण्डल हो
या
कुछ और
यूँ ही अच्छी
शक्लो सूरत
से ही थोड़े ना
पाया जाता है

कुछ लोग
अच्छे
दिखते नहीं 
हैं
पर चुंबक सा
सबको अपनी
ओर  खींचते
चले जाते 
हैंं

पहनते कुछ
खास भी नहीं 
हैं
और हरी सब्जी
वो खाते 
हैं

चुपचाप रहते हैंं
और
बस थोड़ा थोड़ा
मुस्कुराते 
हैं 

लोग बस यूँ ही
उनके दीवाने
पता नहीं क्यों
हो जाते 
हैं 

बहुत कड़ी
मेहनत करके
अपने कर्मों
का कुछ भी
हिसाब
ना धर के
चमकने वाले
एक व्यक्तित्व
का मुकाबला
जब हम नहीं
कहीं भी
कर   पाते 
हैं

तो यू हीं
खिसियाते 
हैं 

मदारी
की तरह
किसी
भी तरह
की डुगडुगी
बजाना शुरू 
हो जाते 
हैं

एक बड़ी
भीड़ का घेरा
अपने चारों
ओर  बनाते 
हैं 

आभा मण्डल
की रोशनी
से पीछा
छुड़ाते 
हैं

कुछ देर के
लिये ही सही
शुतुरमुर्ग की
तरह गर्दन
रेत के अंदर 
 घुसाते 
हैं ।

बुधवार, 9 मई 2012

गैंग

सभ्य एवम
पढे़ लिखे
कहलाये
जाने वाले
एक बड़े
समूह में
छितराये
हुए से
कुछ लोग
कहीं कहीं
साथ साथ से
हो जाते है
आपस में
बतियाते हैं
रोज मिल
पाते हैं
लोगों को
दिख जाते हैं
ऎसे ऎसे
कई झुरमुट
कुकुरमुत्ते
की तरह
जगह जगह
उगते चले
जाते हैं

अब
कुकुरमुत्ते
भी तो
माहौल के
हिसाब से
ही पनप
पाते हैं
कुछ ही
कुकुरमुत्ते
मशरूम
की श्रेणी
में आते है
सँयमित
तरीके से
जब उगाये
जाते हैं
तभी तो
खाने में
प्रयोग में
लाये जाते हैंं

कभी कभी
जब इधर के
कुछ लोग
उधर के
लोगों में
चले जाते हैं
बातों बातों
में फिसल
जाते है
सामने वाले
से उसके
समूह को
गैंग कह
कर बुलाते हैं
उस समय
हम समझ
नहीं पाते हैं
कि
वो उन्हे
गिरोह
कह रहे हैं
टोली
कह रहे हैं
दल
कह रहे हैं
या
मँडली
कह रहे हैं
संग गण
वृन्द मजदूर
गुलाम भी
तो गैंग के
रूप के रूप
में कहीं कहीं
प्रयोग किये
जाते हैं

अच्छा
रहने दो
अब
बातो को
हम लम्बा
खींच कर
नहीं ले
जाते है
मुद्दे पर
आते हैं

भले लोग
बात करने
में अपनी
मानसिकता
का परिचय
जरूर
दे जाते हैं
बता जाते हैं
सभ्य एवम
पढे़ लिखे
लोग
सही समय
पर सही
शब्द ही
प्रयोग में
लाते हैं।

मंगलवार, 8 मई 2012

अज्ञानता और परमानंद

"ये विद्वांसा न कवय:"
का अर्थ
जब गूगल
में नहीं
ढूंढ पाया

कहने वाले
विद्वान का
द्वार तब
जा कर
खटखटाया

विद्वान
और कवि
दोनो का
भिन्न भिन्न
प्रतिभायें
होना पाया

कुछ
कसमसाया
दूर दूर तक
एक को भी
अभी तक
नहीं कहीं
छू पाया

कल रात
का सपना
सोच
घर पर
छोड़ आया

आज 
एक गुरु
ने जब
इन्कम
टैक्स का
हिसाब
कुछ लगाया

अचानक
सामने बैठी
महिला से
उसके वेतन
में लगने
वाला
डी ऎ
कितना है
पुछवाया

महिला ने
नहीं मालूम है
करके अपना
सिर जब
जोर से
हिलाया

गुरू जी ने
थोड़ा सा
मुस्कुराया

'इग्नोरेंस इज ब्लिस'
कह कर
फिर ठहाका
लगाया

गूगल
का पन्ना
फिर से
जब एक
बार और
खुलवाया

अज्ञानता
परमानंद है
का अनुवाद
वहाँ पर 
लिखा पाया

कल का
सपना
फिर से याद
जरा जरा
साआया

परमानंद
अभी बचा है
मेरे पास
सोच कर
'उलूक' ने
अपनी पीठ
को फिर से
खुद ही
थपथपाया।

**********


रविकर फैजाबादी
की टिप्पणी
भी देखिये

विज्ञानी सबसे दुखी, कुढ़ता सारी रात ।
हजम नहीं कर पा रहा, वह उल्लू की बात ।
वह उल्लू की बात, असलियत सब बेपर्दा ।
है उल्लू अलमस्त, दिमागी झाडे गर्दा ।
आनंदित अज्ञान, बहे ज्यों निर्मल पानी ।
बुद्धिमान इंसान, ख़ुशी ढूंढे विज्ञानी ।।

****************************

सोमवार, 7 मई 2012

श्रंगार रस सौंदर्य बोध और कबाड़ी

सौंदर्य
बोध होना
और
श्रंगार
रस लेना

जिसको
आता है
वो उसी
रास्ते पर
चलता चला
जाता है

कबाड़ी का
सौंदर्य बोध
तो कबाड़
होता है
कहीं भी
पड़ा रहे
कबाड़ी
के लिये
बस वो
ही तो
श्रंगार
होता है

कबाड़ी
जब कहीं
से कबाड़
उठाता है
घर आंगन
रास्ते शहर
को साफ
कर ले
जाता है

शाबाशी
ना किसी से
वो कभी
चाहता है

ना ही

शाबाशी
की

टिप्पणी
ईनाम में
कहीं पा
पाता है

कबाड़
उठाने
और
ठिकाने
लगाने
तक

भी सब
ठीक है

मजा तो
तब आता है
जब कबाड़ी
कविता
लिखना

शुरू हो
जाता है


सौंदर्य बोधी
श्रंगार रसियों
को हैरान
परेशान
पाता है


पर उसे तो
बस कबाड़
में ही मजा
आता है

उठाता है
दिखाता है
कबाड़
पर रोज
कुछ
ना कुछ
लिख ले
जाता है

पर भंवरे
को तो बस 

फूल ही
नजर
आता है
वो फूल पर
मडराता है

कबाड़ी
सड़क के
किनारे
खड़ा 
खड़ा
थोड़ा थोड़ा
मुस्कुराता
चला जाता है।

रविवार, 6 मई 2012

बैठे ठाले उलूक चिंतन

रविवार को
उलूक चिंतन
कुछ ढीला
पढ़ जाता है

लिखने के लिये
कुछ भी नया
आसपास जब
नहीं ढूँढा जाता है

घर पर बैठे ठाले
अगर कुछ
कोई लिखना
भी चाहता है

परिणाम के
रूप में झाड़ू
अपने सामने
से पाता है

अपनी
कमजोरियों
को दिखाना
भी कहाँ अच्छा
माना जाता है

हर कोई
अपनी छुरी को
तलवार ही
बताना चाहता है

दो काम हों
करने अगर
अच्छा काम
पहले करने को
हमेशा से
कहा जाता है

पर ऎसा
कहाँ किसी से
हर समय
हो पाता है

रावण भी
तो स्वर्ग तक
सीढ़ियाँ नहीं
बना पाता है

पहले सीता
मैया जी को
हरने के लिये
चला जाता है

पुरुस्कार
के रूप में
रामचन्द्र जी
के हाथों मार
दिया जाता है

उलूक भी
इसीलिये
सोच में कुछ
पड़ जाता है

सब्जी
बाजार से
लाने से पहले
चौका बरतन
झाड़ू पौछा
करने को चला
ही जाता है

कभी कभी
बुद्धिमानी कर
मार खाने से
बच जाता है ।