उलूक टाइम्स: विद्वान
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रविवार, 31 अक्टूबर 2021

करत करत अभ्यास जड़मति होत सुजान यूँ ही नहीं कहा गया है सरकार

 



मन होता ही है
कुछ लिखा जाये कभी
जैसा लेखक साहित्यकार बुद्धिजीवी विद्वान लिख ले जाते हैं
कतार दर कतार

नकल करने के चक्कर में लेकिन
निकल जाती है हवा कलम की
उड़ जाता है कागज
रह जाते हैं शब्दों के ऊपर चढ़े शब्द
एक के ऊपर कई कई हजार

शब्दकोष कर रहा हो जैसे उदघोष
मूँगफली बेचने वाले की आवाज की नकल
और एक के साथ ले लो
दो नहीं जितने चाहो मुफ्त में शब्द
खरीदने बेचने के लिये नहीं
बिखेरने के लिये इधर भी और उधर भी
दे रही है छूट जैसे बिजली पानी और मिट्टी के तेल के लिये
सबसे मजबूत सदी की एक सरकार

गिरगिट आते हैं याद और याद आते हैं रंग साथ में
कला और कलाकारी है वो भी तो बहुत गहरी
समझाते ही हैं प्रहरी समाज के
खबरों में चरचाओं में
जब भी होती है बहस हर बार

‘उलूक’ लगा रह घसीटने में शब्दों को अपनी सोच के तार पर बेतार
कभी तो लगेगी लाटरी तेरी भी
मान लिया जायेगा बकवास को लेखन और तुझे लेखक
मिलेंगी टिप्पणियाँ भी
लेखकों की साहित्यकारों की
बुद्धिजीवियों की भी और विद्वानो की भी हर बार।

चित्र साभार: https://learnodo-newtonic.com/

गुरुवार, 9 मई 2019

लिखना जरूरी है होना उनकी मजबूरी है कभी लिखने की दुकान के नहीं बिके सामान पर भी लिख


ये

लिखना भी

कोई
लिखना है

उल्लू ?

कभी

आँख
बन्द कर के

एक
आदमी में

उग आये

भगवान
पर
भी लिख

लिखना
सातवें
आसमान
पहुँच जायेगा

लल्लू

कभी

अवतरित
हो चुके

हजारों
लाखों

एक साथ में

उसके

हनुमान
पर भी
लिख

सतयुग
त्रेता द्वापर

कहानियाँ हैं

पढ़ते
पढ़ते
सो गया

कल्लू ?

कभी
पतीलों में

इतिहास
उबालते

कलियुग
के शूरवीर

विद्वान
पर
भी लिख

शहीदों
के जनाजे
के आगे

बहुत
फाड़
लिये कपड़े

बिल्लू

कभी
घर के
सामान

इधर उधर
सटकाने में
मदद करते

बलवान
पर
भी लिख

विष
उगलते हों

और

साँप
भी
नहीं हों

ऐसा
सुने और
देखे हों

कहीं
और भी

तो
चित्र खींच

चलचित्र
बना
फटाफट

यहाँ
भी डाल

निठल्लू

पागल होते

एक
देश के
बने राजा के

पगलाये

जुबानी
तीर कमान

पर
भी लिख

बे‌ईमानों
को
मना नहीं है

गाना
बाथरूम में

गा
लिया कर
नहाते समय

वंदे मातरम

‘उलूक’

मैं
निकल लूँ

अखबारों
में
रोज की
खबर में

शहर के
दिख रहे

नंगों
और
शरीफों के

शरीफ
और नंगे
होने के

अनुमान

पर
भी लिख ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com



रविवार, 18 नवंबर 2018

गधा धोबी का धोबी के लिये गधा दोनों एक दूसरे का पर्याय हो ही जाता है

हर समय
कुछ ना कुछ
किसी पर
लिखा ही
जाता है

क्यों
लिखा जाये
किस के लिये
लिखा जाये
अलग बात है

पर
प्रश्न तो एक
सामने से
आकर खड़ा
हो ही जाता है

रोकते
रोकते हुऐ
फिर भी

ज्वालामुखी
फटने की
कगार पर
होने के
आसपास

थोड़ा सा लावा
आदममुख
से बाहर
निकल कर
आ जाता है

माफ करेंगे
झेलने वाले

बकवास
करने के लिये
कोई अगर
यहाँ चला
भी आता है

‘उलूक’ की
बकवास में
एक दो शब्दों
का बहुतायत में
पाया जाना

अभी तक तो
नाजायज नहीं
माना जाता है

झेलना
परिस्थिति को
हर किसी के
आसपास

और
हिसाब की
कहना भी
जरूरी
हो जाता है

तो शुरु करें
आज का
पकाया हुआ

देखें कहाँ तक
अपनी गंध
फैला पाता है

हर गधा

गौर करियेगा
गधा

गधे की
बकवासों में
कितनी कितनी बार
प्रयोग किया जाता है

हाँ तो
हर गधा
धोबी होना
चाहता है

धोबी होकर
अपने
मातहतों को
गधा बना कर
धोना चाहता है

सबसे
अच्छा गधा
होने के लिये
वाहन चालक होना
जरूरी माना जाता है

कम्प्यूटर
जानने वाला गधा
दूसरे नम्बर पर
रखा जाता है

गधा बनाने
की प्रक्रिया में
जाति धर्म
देश प्रदेश पर
ध्यान नहीं
दिया जाता है

सोशियल
मीडिया में
भेजा गया गधा

कभी अपना
खाली दिमाग
नहीं लगाता है

खुद ही
अपने लिखे
लिखाये से

किसका
गधा हूँ
बता जाता है

किसी के
सच का आईना
सामने लाने पर
गधों का एक समूह
पगला जाता है

तर्क देना
जरूरी नहीं
माना जाता है

घेर कर
ऐसे ही सच को

गधों
के द्वारा
लपेटने या पटकने
का प्रयास
किया जाता है

हर गधा
अपने सामने वाले के
गधेपन का फायदा
उठाना चाहता है

‘उलूक’ खुद
एक गधा
समझता है
खुद को

अपने
आसपास
के धोबियों से

अपनी पीठ
बचाने का हिसाब
खुद ही लगाता है

कभी
फंस जाता है
कभी
थोड़ा कुछ
बचा भी ले जाता है

माफ करेंगे
विद्वान लोग

गधा धोबी
पुराण से
देश चल रहा
हो जहाँ

वहाँ
जो जितनी जोर से
रेंक लेता है

उतना
सम्मानित
बता कर
उपहारों से
लाद दिया जाता है

बहुत ज्यादा
एक ही बार में
लिखना ठीक
भी नहीं है

छोटी छोटी
कहानियाँ
गधों की
मिला कर भी
गधा पुराण
बनाया जाता है ।

चित्र साभार: https://moralstories29897.blogspot.com

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

छोटी करना बात को नहीं सिखायेगा तो लम्बी को ही झेलने के लिये आयेगा

कबीर सूर तुलसी
या
उनके जैसे कई और ने
पता नहीं कितना कुछ लिखा
लिखते लिखते इतना कुछ लिख दिया
संभाले नहीं संभला

कुछ बचा खुचा जो सामने था
उसपर भी ना जाने
कितनो ने कितना कुछ लिख दिया

शोध हो रहे हैंं
कार्यशालाऎं हो रही हैं
योजनाऎं चल रही हैं
परियोजनाऎं चल रही हैं

एक विद्वान
जैसे ही बताता है 
इसका मतलब ये समझ में आता है
दूसरा
दूसरा मतलब निकालने में
तुरंत ही जुट जाता है

स्कूल जब जाता था 
बाकी बहुत कुछ 
समझ में आ ही जाता था

बस इनके लिखे हुऎ को
समझने की कोशिश में ही
चक्कर थोड़ा सा आ जाता था
कभी किसी को ये बात नहीं बता पाता था
अंकपत्र में भाषा में पाये गये अंको से
सारा भेद पर खुल ही जाता था

कोई भी इतना सब कुछ
अपने एक छोटे से जीवन में
कैसे लिख ले जाता होगा
ये कभी भी समझ में नहीं आ पाता था

ये बात अलग है
उनके लिखे हुऎ का भावार्थ निकालने में
अभी भी वही हालत होती है
तब भी पसीना छूट जाता था

मौका मिलता तो 
एक बार इन लोगों के
दर्शन करने जरूर जाता
कुछ अपनी तरफ से
राय भी जरूर दे के आता

एक आईडिया
कल ही तैरता हुआ दिख गया था यहीं
उसी को लेकर कोई कहानी बना सुना आता

क्यों इतनी लम्बी लम्बी 
धाराप्रवाह भाषा में लिखते चले जा रहे हो

घर में बच्चे नहीं हैं क्या
जो सारी दुनियाँ के बच्चों का दिमाग खा रहे हो

सीधे सीधे भी तो बताया जा सकता था

एक राम था
रावण को मार के अपनी सीता को
वापस लेकर घर तक आया था

फिर सीता को जंगल में छोड़ कर आया था

किस को पता चल रहा था
कि बीच में 
क्या क्या हो गया था

कोई बात नहीं जो हो गया था सो हो गया था
अब उसमें कुछ नहीं रह गया था

इतना कुछ लिख गये
पर अपने बारे में
कहीं भी कुछ आप नहीं कह गये
सारा का सारा प्रकाश बाहर फैला कर गये

पता भी नहीं चला
कैसे सारे अंदर के अंधकारों पर
इतनी 
सरलता से विजय पा कर गये
सब कुछ खुद ही पचा कर गये
लेकिन एक बात 
तो पक्की सभी को समझा कर गये

लिखिये तो इतना लिखिये
कि
पढ़ने वाला 
उसमें खो जाये

समझ में आ ही जाये कुछ 
तो अच्छा है
नहीं आये तो पूरा ही पागल हो कर जाये

कह नहीं पाये
इतना लम्बा क्यों लिखते हो भाई
कि
पढ़ते पढ़ते कोई सो ही जाये।


चित्र साभार: https://webstockreview.net/explore/sleeping-clipart-yawning/

शनिवार, 27 जुलाई 2013

लिखने से कोई विद्वान नहीं होता है


सम्पादक जी को
देखते ही 
साथ में किसी जगह कहीं 
मित्र से
रहा नहीं गया 
कह बैठे यूँ ही

भाई जी
ये भी लिख रहे हैं 
कुछ कुछ आजकल 

कुछ कीजिये इन पर भी कृपा 

कहीं
पीछे पीछे के पृष्ठ पर ही सही
थोड़ा सा
इनका कुछ छापकर 

क्या पता किसी के
कुछ
समझ में भी आ जाये

ऎसे ही कभी
बड़ी ना सही 
कोई छोटी सी दुकान 
लिखने पढ़ने की
इनकी भी कहीं
किसी कोने में एक खुल जाये 

मित्रवर की
इस बात पर 
उमड़ आया बहुत प्यार
मन ही मन किया उनका आभार 

फिर मित्र को
समझाने के लिये बताया 

पत्रिका में
जो छपता है 
वो तो कविता या लेख होता है 

विद्वानो के द्वारा
विद्वानो के लिये
लिखा हुआ
एक संकेत होता है 

आप मेरे को
वहाँ कहाँ अढ़ा रहे हो
शनील के कपडे़ में
टाट का टल्ला 
क्यों लगा रहे हो 

मेरा लिखना
कभी भी
कविता या लेख नहीं होता है 

वो तो बस
मेरे द्वारा
अपने ही 
आस पास
देखी समझी गयी
कहानी का
एक पेज होता है 

और आस पास
इतना कुछ होता है
जैसे
खाद बनाने के लिये 
कूडे़ का
एक ढेर होता है 

रोज
अपने पास इसलिये 
लिखने के लिये 
कुछ ना कुछ
जरूर होता है 

यहाँ आ कर
लिख लेता हूँ 

क्योंकि 
यहाँ लिखने के लिये ही
बस एक विद्वान होना
जरूरी नहीं होता है 

खुद की
समझ में भी
नहीं 
आती हैंं
कई बार कई बात 

उसको भी
कह देने से 
किसी को कोई भी 
कहाँ यहाँ
परहेज होता है 

विद्वान लोग
कुछ भी
नहीं लिख देते हैं

'उलूक'
कुछ भी
लिख देता है

और 
उसका
कुछ मतलब
निकल ही आये 
ये जरूरी भी
नहीं होता है ।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com/

मंगलवार, 12 जून 2012

विद्वान की दुकान

विद्वानो की छाया तक
भी नहीं पहुंच पाया
तो विद्वता कहाँ
से दिखा पाउंगा
कवि की पूँछ भी
नहीं हो सकता
तो कविता भी
नहीं कर पाउंगा
विचार तो थोड़े से
दिमाग वाले के भी
कुछ उधार ले दे के
भी पनप जाते हैं
कच्ची जलेबियाँ पकाने
की कोशिश जरूर करूंगा
हलुआ गुड़ का कम से कम
बना ही ले जाउंगा
भैया जी आपकी
परेशानी बेवजह है
किसी लेखन प्रतियोगिता
में भाग नहीं ही
कभी लगाउंगा
अब जब दुकान
खोल के बैठ ही गया
हूँ इस बाजार में
तो किसी ना किसी
तरह जरूर चलाउंगा
कहाँ कहाँ पिट पिटा
के आउंगा मलहम
कौन सा उसके बाद
हकीम लुकमान से
बनवा के लगवाउंगा
अब बोलचाल की
भाषा में ही तो यहाँ
आ के बता पाउंगा
किसी से कहलवा कर
पैसे जेब के लगवाकर
आई एस बी एन नम्बर
वाली कोई किताब भगवान
कसम नहीं छपवाउंगा
चिंता ना करें किसी नयी
विधा का अपने नाम से
जन्म/नामकरण हुवा है
कहकर कोई नया
सेल्फ फाईनेंस कोर्स
भी नहीं कहीं चलवाउंगा
आप अपनी दुकान की
चिंता करिये जनाब
अपने धंधे से आपके
व्यवसाय के रास्ते में
रोड़े नहीं बिछाउंगा
कोई नुकसान आपकी
विद्वता को मैं अनपढ़
बताइये कैसे पहुंचाउंगा।

मंगलवार, 8 मई 2012

अज्ञानता और परमानंद

"ये विद्वांसा न कवय:"
का अर्थ
जब गूगल
में नहीं
ढूंढ पाया

कहने वाले
विद्वान का
द्वार तब
जा कर
खटखटाया

विद्वान
और कवि
दोनो का
भिन्न भिन्न
प्रतिभायें
होना पाया

कुछ
कसमसाया
दूर दूर तक
एक को भी
अभी तक
नहीं कहीं
छू पाया

कल रात
का सपना
सोच
घर पर
छोड़ आया

आज 
एक गुरु
ने जब
इन्कम
टैक्स का
हिसाब
कुछ लगाया

अचानक
सामने बैठी
महिला से
उसके वेतन
में लगने
वाला
डी ऎ
कितना है
पुछवाया

महिला ने
नहीं मालूम है
करके अपना
सिर जब
जोर से
हिलाया

गुरू जी ने
थोड़ा सा
मुस्कुराया

'इग्नोरेंस इज ब्लिस'
कह कर
फिर ठहाका
लगाया

गूगल
का पन्ना
फिर से
जब एक
बार और
खुलवाया

अज्ञानता
परमानंद है
का अनुवाद
वहाँ पर 
लिखा पाया

कल का
सपना
फिर से याद
जरा जरा
साआया

परमानंद
अभी बचा है
मेरे पास
सोच कर
'उलूक' ने
अपनी पीठ
को फिर से
खुद ही
थपथपाया।

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रविकर फैजाबादी
की टिप्पणी
भी देखिये

विज्ञानी सबसे दुखी, कुढ़ता सारी रात ।
हजम नहीं कर पा रहा, वह उल्लू की बात ।
वह उल्लू की बात, असलियत सब बेपर्दा ।
है उल्लू अलमस्त, दिमागी झाडे गर्दा ।
आनंदित अज्ञान, बहे ज्यों निर्मल पानी ।
बुद्धिमान इंसान, ख़ुशी ढूंढे विज्ञानी ।।

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