उलूक टाइम्स: माहौल
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शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

भाई कोई खबर नहीं है खबर गई हुई है


सारे के सारे खबरची 
अपनी अपनी खबरों के साथ 
सुना गया है टहलने चले गये हैं 

पक्की खबर नहीं है 
क्योंकि किसी को कोई भी खबर
बना कर नहीं दे गये हैं 

खबर दे जाते
तब भी कुछ होने जाने वाला नहीं था 

परेशानी बस इतनी सी है 
कि समझ में नहीं आ पा रहा है 
इस बार ऐसा कैसे हो गया 

खबर दे ही नहीं गये हैं 
खबर अपने साथ ही ले गये हैं 

अब ले गये हैं
तो कैसे पता चले खबर की खबर 
क्या बनाई गई है कैसे बनाई गई है 
किस ने लिखाई है किस से लिखवाई गई है 

किसका नाम कहाँ पर लिखा है 
किस खबरची को नुकसान हुआ है 
और किस खबरची को फायदा पहुँचा है 

बड़ी बैचेनी हो गई है 
जैसे एक दुधारू भैंस दुहने से पहले खो गई है 

‘उलूक’ सोच में हैं तब से 
खाली दिमाग को अपने हिला रहा है 
समझ में कभी भी नहीं आ पाया जिसके 
सोच रहा है
कुछ आ रहा है कुछ आ रहा है 

बहुत अच्छा हुआ खबर चली गई है 
और खबरची के साथ ही गई है 

खबर आ भी जाती है 
तब भी कहाँ समझ में आ पाती है 

खबर कैसी भी हो माहौल तो वही बनाती है । 

चित्र साभार: www.pinterest.com

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

किसने बोला कलियुग में रामराज्य नहीं है आता

बाघ बकरी
कभी खेला
जाता था
अब नहीं
खेला जाता

बहुत सी जगह
ये देखा है जाता

बाघ
बकरी की
मदद कर
उसे बाघ
बनाने
में मदद
करने है आता

जहाँ बाघ
बकरी की
मदद कतिपय
कारणों से नहीं
है कर पाता

वहाँ
खुद ही
शहर की
मुर्गियों से
बकरियों के लिये
अपील करवाने
की गुहार
भी है लगाता

बाघ
जिन बकरियों
के साथ है रहता
उनको खाने की
इच्छा नहीं दिखाता

वो बाघ होता है
इतना गया गुजरा
भी नहीं होता

उसके पास इधर
उधर से भी खाने
के लिये बहुत
है आ जाता

बाघ की टीम
का हर सदस्य
बकरियों को
हमेशा ही है
ये समझाता

बाघ
बस बकरियों
को बाघ बनाने के
लिये अपनी
जान है लगाता

जिस बकरी की
समझ में नहीं
आ पाती है बात

उसके हाथ से
बाघ बनने का
स्वर्णिम अवसर
है निकल जाता

बाघ बकरियों को
बाघ बनाने के
लिये ही तो
उनकी लाईन
है लगवाता

अपनी कुछ खास
बकरियों को ही
इसके लिये
मानीटर है बनाता

अब इतना कुछ
कर रहा होता है

अपने लिये भी
कुछ माहौल इससे
बनवा ले जाता

बकरियों का इसमें
कौन सा कुछ
है चला जाता

बकरियों
की मैं मैं
का शोर जब
अखबार में उसकी
फोटो के साथ
छप है जाता

उसका कद थोड़ा
सा लम्बा इससे
अगर हो भी जाता

ये सब भी तो
बाघ बकरी के
खेल में आघे को
काम है आता

बाघ का ऎसा
आत्मविश्वास
कहानियों में भी
नजर नहीं आता

कौन कहता है
राम राज्य अब
कहीं यहा नहीं
पाया है जाता

बाघ बकरियों को
अपने साथ है
पानी तक पिलाता

बस कभी जब
महसूस करता है
बकरियों के लिये
कुछ नहीं कर पाता

शहर की
मुर्गियों से
उनके लिये
झंडे है उठवाता

बकरियों
के लिये
बन जाती है
ये एक बडी़ खबर

अखबार
तो कायल
होता है बाघ का
उसे छींक भी आये
उसकी फोटो अपने
फ्रंट पेज में
है छपवाता

बकरियों पर आई
आफत का होने
जा रहा है समाधान
बाघ का बस
होना ही
बकरियों के साथ
काम के होने का
संकेत है हो जाता

बाघ बकरी
कभी
खेला जाता था
अब
नहीं है
खेला जाता ।

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

जैसा करेगा वैसा भरेगा, जब नहीं रहेगा तब क्या करेगा?

क्यों
अपने लिये

ओखली
खुद ही
बनाता है

अपना सिर
फिर उसके
अंदर डाल
के आता है

सारे
फिट लोगों
के बीच

अपने को
मिसफिट
जानते बूझते
क्यों बनाता है

जब
देखता है

बिना
रीढ़ की
हड्डियों का
चल रहा है राज

तू
अपनी जबान
की रेल पर

रोक
क्यों नहीं
लगाता है

हर
नया राजा

इस
कलियुग में
पहले वाले राजा से
ताकतवर ही
भेजा जाता है

पहले वाले
राजा के
किये गये
गड्ढों को

जब
वो भी नहीं
पाट पाता है

कोशिश
करता है

गड्ढे को
और
बड़ा
बनाता है


फिर
तेरा स्कूल

एक दिन

पूरा

उसके अंदर

कोई
ना कोई

जरूर घुसा
ले जाता है

फिर
तुझ बेवकूफ

को पता नहीं
क्या हो जाता है

क्यों
थोड़ी
मिट्टी
लेकर
गड्ढे को
पाटने
चला जाता है


समय रहते

किसी

नटवर लाल को

तू भी

गुरू

क्यों नहीं
बनाता है


 माना कि
वेतन तू

अपना खा
ही नहीं पाता है

पर जमाना
ऊपर के 
पैसे
वाले को ही

इज्जत दे पाता है

इस
छोटी सी

बात को
तू क्यों
नहीं
समझ पाता है


देखता नहीं है


तेरे
स्कूल में

तेरे को
क्यों
कोई
मुँह नहीं

कहीं लगाता है

तेरी
सबकी
पैंट में
छेद
दिखाने की

खराब आदत से

हर कोई
परेशान

नजर आता है

किसी को
देखता
है
प्रतिकार

करते हुऎ कभी

जब राजा
उल्टी
बाँसुरी
बजाता है


तरस आता है

चिंता भी होती है
तेरी आदतों पर
मुझको कई बार

ऊपर वाले की

तरफ मेरा हाथ
तेरे लिये ऎसे में
उठ जाता है

क्यों
वो तेरे को

गाँधी के
तीन
बंदरों जैसा
नहीं
बना ले जाता है

जहाँ
निनानवे

लोगों को
कोई
मतलब
नहीं
कुछ
रह जाता है


तू
सौंवा क्यों

अपने को
ऎसे
माहौल में
उखड़वाता है ।

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

कुछ कर

उधर की
मत सोच
आज इधर
को आ

कुछ अलग
सा कर
माहौल बना

गुलाब एक
सोच में
अपनी ला
खुश्बू भीनी
किताब
में दिखा
स्वाद की
रंगीन फोटो
चल बना
प्यार की
फिलम देख
रिश्तों के
धागे सुलझा

ध्यान मत
अब भटका
उधर होने दे
इधर को आ

अपना अपना
सब को
करने दे
तू अपना
भी करवा

कोई किसी
के लिये
नहीं मर
रहा है
तू भी
मत मर
कुछ अलग
सा तो कर

मधुशाला
की सोच
साकी को
सपने में ला
फूलों के
गिलास बुन
पराग की
मय गिरा

टेड़ा हो जा
हरी हरी
दूब बिछा
लुड़क जा

जब देख
रहा है
सब को
बेहोश
अपने होश
भी कभी
तो उड़ा

उनसे अपना
जैसा करवाने
की छोड़
उनका जैसा
ही हो जा

चैन से
बैठ कर
जुगाली कर
चिढ़ मत
कभी चिढ़ा

चल अपना
आज अलग
तम्बू लगा

कर ना
कुछ अलग
तो कर

उसको
उसका
उधर
करने दे
तू कुछ
इधर
अपना
भी कर ।

शुक्रवार, 8 जून 2012

चल मुँह धो कर के आते हैं

अपनी भी
कुछ पहचान
चलो आज
बनाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं

मंजिल तक
पहुंचने के
लम्बे रास्ते
से ले जाते हैं

कुछ
राहगीरों को
आज राह से
भटकाते हैं

चल मुँह धो 
कर के आते हैं

चलचित्र 'ए'
देखने का
माहौल बनाते हैं

उनकी आहट
सुनते ही
चुप हो जाते हैं

बात
बदल कर
गांंधी की
ले आते हैं

चल मुँह धो 
कर के आते हैं

बूंद बूंद
से घड़ा
भर जाये
ऎसा
कोई रास्ता
अपनाते हैं

चावल की
बोरियों में
छेद
एक एक
करके आते हैं

चल मुँह धो 
कर के आते हैं

अन्ना जी से
कुछ कुछ
सीख  कर
के आते हैं

सफेद टोपी
एक सिलवाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं

किसी के
कंधे की 
सीढ़ी एक
बनाते हैं


ऊपर जाकर
लात मारकर
उसे नीचे
गिराते हैं

सांत्वना देने
उसके घर
कुछ केले ले
कर जाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं

देश का
बेड़ा गर्क
करने की
कोई कसर
कहीं
नहीं छोड़
कर के जाते हैं

भगत सिंह
की फोटो
छपवा कर के
बिकवाते हैं



चल मुँह धो कर के आते हैं


एक रुपिया
सरकारी
खाते में
जमा करके

बाकी
निन्नानबे
घर अपने
पहुंचवाते हैं



चल मुँह धो कर के आते हैं


अपनी
भी कुछ
पहचान
चलो आज
बनाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं।

बुधवार, 9 मई 2012

गैंग

सभ्य एवम
पढे़ लिखे
कहलाये
जाने वाले
एक बड़े
समूह में
छितराये
हुए से
कुछ लोग
कहीं कहीं
साथ साथ से
हो जाते है
आपस में
बतियाते हैं
रोज मिल
पाते हैं
लोगों को
दिख जाते हैं
ऎसे ऎसे
कई झुरमुट
कुकुरमुत्ते
की तरह
जगह जगह
उगते चले
जाते हैं

अब
कुकुरमुत्ते
भी तो
माहौल के
हिसाब से
ही पनप
पाते हैं
कुछ ही
कुकुरमुत्ते
मशरूम
की श्रेणी
में आते है
सँयमित
तरीके से
जब उगाये
जाते हैं
तभी तो
खाने में
प्रयोग में
लाये जाते हैंं

कभी कभी
जब इधर के
कुछ लोग
उधर के
लोगों में
चले जाते हैं
बातों बातों
में फिसल
जाते है
सामने वाले
से उसके
समूह को
गैंग कह
कर बुलाते हैं
उस समय
हम समझ
नहीं पाते हैं
कि
वो उन्हे
गिरोह
कह रहे हैं
टोली
कह रहे हैं
दल
कह रहे हैं
या
मँडली
कह रहे हैं
संग गण
वृन्द मजदूर
गुलाम भी
तो गैंग के
रूप के रूप
में कहीं कहीं
प्रयोग किये
जाते हैं

अच्छा
रहने दो
अब
बातो को
हम लम्बा
खींच कर
नहीं ले
जाते है
मुद्दे पर
आते हैं

भले लोग
बात करने
में अपनी
मानसिकता
का परिचय
जरूर
दे जाते हैं
बता जाते हैं
सभ्य एवम
पढे़ लिखे
लोग
सही समय
पर सही
शब्द ही
प्रयोग में
लाते हैं।