उलूक टाइम्स

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

कुछ नया लिख कोशिश तो कर उल्टा ही लिख

किसी
एक दिन
लिख क्यों
नहीं लेता
अपनी तन्हाई

पूरी
ना सही
आधी अधूरी
ही सही

अपने लिये
ना सही
किसी और को
समझाने के
लिये ही सही

पता
तो चले
तन्हाई
तन्हाई
का अंतर

तुझे भी
और
किसी और
को भी

सभी
लिखते हैं
बताने के लिये

वो सब
जो पता
होता है

कोई
कहाँ लिखता है
वो सब कुछ
जो सच में
छुपा होता है

दिखाने की
हो चुकी है
दुनियाँ तो
दिखाने के
लिये ही सही

कुछ लिख
तो सही
अजीब सा
ही सही

जो है
लिखा हुआ
कुछ भी
नया नहीं

कुछ है नया
लिखा हुआ
बताने के
लिये ही सही

तन्हाई
कोई नहीं
लिखता है
कभी हिम्मत
तो कर

कुछ लिख
कोशिश तो कर
ना पढ़े
ना समझे कोई

आज तक
कौन सा समझ
ले रहा है तेरा लिखा

समझा कर
कौन सा
मर जायेगा
लिख कर
अपनी तन्हाई

समझा कर
मर भी गया
तो कुछ नहीं होगा

तन्हा तन्हा
मरने वालों के
गम को
कुछ तो
कम कर

चल
तन्हाई पर
लिख ही ले आज

कुछ अपना
और
कुछ किसी का
बोझ तो
कम कर

जो
होना है वो
हो रहा है
होता रहेगा

तू लिखेगा
लिखता रहेगा

कभी अपनी
अंगड़ाई
पर लिख
कभी अपनी
तन्हाई
पर लिख

कोशिश
तो कर
कुछ नया
लिखने की
ऊपर वाले की
बेहयाई पर लिख ।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

हर कोई हर बात को हर जगह नहीं कहता है इसी दुनियाँ में बहुतों के साथ बहुत कुछ होता है

प्रकृति के
सुन्दर भावों
और दृश्यों पर
बहुत कुछ
लिखते है लोग

लिखा हुआ
पढ़ना भी
चाहते हैं
पर
दुनिया में
कितने प्रकार
के होते हैं
लोगो के प्रकार
बस ये ही
भूल जाते हैं

अपेक्षाओं का
क्या किया जाये
कब किसकी
किससे क्या
हो जाती हैं

दुनियाँ बड़ी
गजब की है
चींंटी भी एक
हाथी की सूंड में
घुस कर उसे
मार ले जाती है

अब
कौन कुत्ता
किस प्रकार
का कुत्ता
हो जाता है
कुत्ता पालने
के समय
किसी से
कहाँ सोचा
जाता है

बहुत से लोग
कुत्तों को
पसँद नहीं
करते हैं
फिर भी
एक कुत्ता
होना ही
चाहिये की
चाह जरूर
रखते हैं

इसलिये
सोच लेते हैं
अपनी सोच में
एक कुत्ते को
और
पालना शुरु
हो जाते हैं

सब कुछ
क्योंकि
सोच में ही
चल रहा
होता है
कोई जंजीर
या
पट्टे से उसे
बांध नहीं
पाते हैं

बस यहीं से
अपेक्षाओं
के महल
का निर्माण
करना शुरु
हो जाते हैं

पालतू
बन कर
कुत्ता
जो पल
रहा होता है

उसे कुछ
भी नहीं
बताते है 

ऐसे में
कैसे उससे
वफादारी
की उम्मीद
पालने वाले
लोग सोचते
सोचते ही
कर ले जाते हैं

सोच में
ही अपनी
अपने किसी
दुश्मन को
काटता हुआ
देखने का
सपना
एक नहीं
कई देख
ले जाते हैं

टूटता है
बुरी तरह
कभी
इसी तरह
अपेक्षाओं
का पहाड़

जब उसी
पाले हुऐ
कुत्ते को
दुश्मन
के साथ
खुद की
ओर भौंकता
हुआ पाते हैं

बस
भौंचक्के
होकर
सोचते ही
रह जाते है

आदत
फिर भी
नहीं छूटती है

एक दूसरा
कुत्ता फिर से
अपनी सोच
में ले ही आते हैं !

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

एक ही जैसी कहानी कई जगह पर एक ही तरह से लिखी जाती है कोई याद दिलाये याद आ जाती है

घर से शहर की
तरफ निकलते
एक चौराहा
हमेशा मिलता है
जैसे बहुत ही
नजदीक का कोई
रिश्ता रखता है
चौराहे के पास
पहुँचते ही हमेशा
सोचा जाता है
किस रास्ते से
अब चला जाये
सोचा ही जाता है
एक थोड़ा सा लम्बा
पर धीमी चढ़ाई
दूसरी ऊँची सीढ़ियाँ
नाम बावन सीढ़ी
पता नहीं कभी
रही होंगी बावन
पर अब गिनते
गिनते छप्पन
कभी ध्यान हटा
गिनने से तो
अठावन भी
हो जाती हैं
दो चार सीढ़ियाँ
ऊपर नीचे गिनती
में हो जाने से
कोई खास परेशानी
होती हो ऐसी भी
बात कभी कहीं
नजर नहीं आती है
पर कुछ जगहें
बहुत सी खास
बातों को लिये हुऐ
एक इतिहास ही
हो जाती हैं
भूगोल बदलता
चला जाता है
कुछ पुरानी बातें
कभी अचानक
एक दिन कब
सामने आ कर
खड़ी हो जाती हैं
बता के नहीं
आ पाती हैं
'बाबू जी दो रुपिये
दो चाय पियूँगी'
नगरपालिका की
एक पुरानी
सफाई कर्मचारी
हाथ फैलाती थी
पैसे मिले नहीं
आशीर्वादों की झड़ी
शुरु हो जाती थी
क्या मजबूरी थी
क्यों आती थी
उसी जगह पर
एक गली
शराब की दुकान
की तरफ भी
चली जाती थी
बहुत से लोग
निकलते थे
निकलते ही
चले जाते थे
कुछ नहीं देते थे
बस कहते जाते थे
क्यों दे रहे हो
शाम होते ही ये
शराब पीने को
चली जाती है
पर कभी देखी
नहीं किसी जगह
कोई औरत भी
लड़खड़ाती है
बहुत दिन से
खयाल किया है
इधर बुढ़िया अब
नजर नहीं आती है
सीढ़िया चढ़नी
ही पड़ती हैं
अक्सर चढ़ी जाती हैं
छोर पर पहुँचते
पहुँचते अँगुलियाँ
जेब में सिक्के
टटोलने शुरु
हो जाती हैं
पान से लाल
किये होठों वाली
उस औरत का
ख्याल आते ही
नजर शराब की
दुकान की तरफ
जाने वाली गली
की तरफ अनजाने
में मुड़ जाती हैं
पता नहीं किस
की सोच का
असर सोच
को ये सब
करवाती है ।

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

हर शुभचिंतक अपने अन्दाज से पहचान बनाता है


कितना कुछ होता है अपने आस पास 
बिल्कुल भी एक जैसा नहीं 
एक ऐसा तो दूसरा वैसा 

लिखने की सोचो 
तब महसूस होता है कुछ अजब गजब सा 

क्या छोड़ो क्या उठाओ 
मदारी उठाओ जमूरा छूट जाता है 
जमूरे की सोचो मदारी अकेला पड़ने लग जाता है 

पर सोचिये जरा 
हर आदमी का ऐंगल 
दूसरे आदमी से कहीं छोटा तो कहीं बड़ा हो जाता है 

किस पर क्या लिखा जाये 
एक विषय सोचने तक कलकत्ता आ जाता है 

बस और देर की गई तो जैसे लिखा हुआ 
समुन्दर में डूब जाने के लिये तैयार हो जाता है 

इस से पहले कोई डूबे कहीं 
दिमाग की लेखनी का ढक्कन 
कहीं ना कहीं उलझ ही जाता है 

तो ऐसे ही होते होते 
आज अपने ही एक शुभचिंतक का खयाल आ जाता है 

ना समाचार पत्र पढ़ता है ना रेडियो सुनता है 
आँखों में बस गुलाबजल डालता है 
टी वी देखने के हजार नुकसान बता डालता है 

बस जब भी मिलता है 
उससे पूछने से नहीं रहा जाता है 

जैसे एक रोबोट 
कलाबाजियाँ कई एक साथ खाता है 

भाई क्या हाल और क्या चाल हैं 
फिर दूसरा वाक्य और कोई खबर 

सबके साथ यही करता है 

क्यों करता है 
हर कोई इसे भी एक शोध का विषय बनाता है 

उलूक दिन में नहीं देख पाता है 
तो क्या हुआ 
रात में चश्मा नहीं लगाता है 

उलूकिस्तान में 
इस तरह की बातों को समझना 
बहुत ही आसान माना जाता है 

समाचार पत्रों में जो भी समाचार दिया जाता है 
उससे अपने आस पास के गुरु घंटालो के बारे में 
कुछ भी पता नहीं लग पाता है 

अच्छी जाति का कोई भी कुत्ता 
विस्फोटक का पता सूंघ कर ही लगाता है 

इसीलिये हर शुभचिंतक 
चिंता को दूर करने के लिये 
खबरों को सूंघता हुआ पाया जाता है

मिलते ही आदतन 
क्या खबर है 
उसके मुँह से अनायास ही निकल जाता है ।

चित्र साभार: iStock

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

कुछ ना इधर कुछ ना उधर कहीं हो रहा था

लिखा हुआ
पत्र एक
हाथ में
कोई लिया
हुआ था

किस समय
और कहाँ पर
बैठ कर
या खड़े होकर
लिखा गया था

शांति थी साथ में
या बहुत से लोगो
की बहस सुनते हुऐ
कुछ अजीब सी
जगह से बिना
सोचे समझे ही
कुछ लिख विख
दिया गया था

कितनी पागल
हो रही थी सोच
किस हाल में 

शरीर बहक
रहा था

नहा धो कर
आया हुआ
था कोई
और खुश्बू से
महक रहा था

बह रही
थी नाक
छींकों
के साथ
जुखाम
बहुत
जोर का
हो रहा था

झगड़ के
आया था
कोई कहीं
आफिस में
बाजार में
या घर की
ही मालकिन से
पंगा हो रहा था

नीरो की
बाँसुरी भी
चुप थी
ना कहीं
रोम ही
जल रहा था

सब कुछ
का आभास
होना इस
आभासी
दुनियाँ में
कौन सा
जरूरी
हो रहा था

अपनी अपनी
खुशी
छान छान
कर कोई
अगर
एक छलनी
को धो रहा था

दुखी और बैचेन
दूसरा कोई कहीं
दहाड़े मार मार
कर रो रहा था

बहुत सी जगह
पर बहुत कुछ
लिखा हुआ पढ़ने
का शायद कुछ
ऐसा वैसा ही
असर हो रहा था

पत्र हाथ में
था उसके
पर पढ़ने का
बिल्कुल भी मन
नहीं हो रहा था

अपने अपने
कर्मो का
मामला होता है

कोई इधर तो
कोई उधर पर
खुद ही
ढो रहा था ।