उलूक टाइम्स

सोमवार, 21 जुलाई 2014

प्रतियोगिता के लिये नहीं बस दौड़ने के लिये दौड़ रहा होता है

चले जा रहे हैं
दौड़ लगा रहे हैं
भाग रहे हैं

कहाँ के लिये

किसलिये
कहाँ जा
कर पहुँचेंगे


अब ऐसे ही

कैसे बता देंगे

दौड़ने तो दो

सब ही तो
दौड़ रहे हैं

बता थोड़े रहे हैं

मुल्ला की दौड़

मस्जिद तक होती है
पंडित जी की दौड़
मंदिर तक होने की
बात ना कही गई है
ना ही कहीं लिखी गई है

सुबह सुबह कसरत

के लिये दौड़ना
नाश्ता पानी कर के
दफ्तर को दौड़ना
दफ्तर से घर को
वापस दौड़ना भी
कहीं दौड़ने में आता है

असली दौड़ तो

दिमाग से होती है
उसी दौड़ के लिये
हर कोई दिमागी
घोड़ों को दौड़ाता है

अब बात उठती है

घोड़े दिखते
तो नहीं हैं

दौड़ते हुऐ बाहर
आस पास किसी
के भी कहीं भी

शायद दिमाग में

ही चले जाते होंगे

दिमाग में कैसे

चले जाते होंगे
कितनी जगह
होती होगी वहाँ

जिसमें घोड़े जैसी

एक बड़ी चीज को
दौड़ाते होंगे

‘उलूक’ को सब का

तो नहीं पता होता है

उसके दिमाग में तो

उसका गधा ही हमेशा
उसके लिये
दौड़ रहा होता है

कहाँ जाना है

कहाँ पहुँचना है से
उसको कोई मतलब
ही नहीं होता है

उसका दौड़ना बस

गोल चक्करों में
हो रहा होता है

एक जगह से रोज

शुरु हो रहा होता है
घूमते घामते
उसी जगह फिर से
शाम तक पहुँच
ही रहा होता है

घोड़े दौड़ाने वाले

जरूर पहुँच
रहे होते हैं
रोज
कहीं ना कहीं


वो अलग बात है

लेकिन
‘उलूक’ का गधा

कहाँ पहुँच गया है
हर कोई
अपने अपने

घोड़ों से जरूर
पूछ रहा होता है

रविवार, 20 जुलाई 2014

सब इनका किया कराया है फोटो लगा रहा हूँ इनको ढूँढ लो भाई

एक मित्र
जब दूर देश
से आकर
मेरे घर पहुँचे

अपनी
जिज्ञासा
को शांत
करने के
लिये पूछ बैठे

भाई
ये रोज रोज
लिखने लिखाने
की बात

आपके
दिमाग में
कब से और
कैसे है आई

कुछ
काम धन्धा
नहीं है क्या
आपके पास

जो इस
फालतू के
काम में भी
आपने अपनी
एक टाँग है अढ़ाई

अब
क्या बतायें
कैसे बतायें तुझे
मेरे भाई

कि एक
करीबी मित्र
श्री श्री 1008
अविनाश वाचस्पति जी
की है ये सारी लगी लगाई

कभी
हो जाते हैं
अन्नाभाई

बहुत मन मौजी हैं

कभी
बन जाते हैं
मुन्नाभाई

पता नहीं
यहीं कहीं
कभी किसी दिन

चार पाँच
साल पहले
कमप्यूटर ने ही
हमारी और उनकी
टक्कर थी करवाई

लिखने
लिखाने के
खुद मरीज हैं पुराने

हमारे
कुछ लिखे को
देख कर
उनके दिमाग में
शायद कोई
खुराफत थी
उस समय चढ़ आई

चढ़ा गये
‘उलूक’ को
झाड़ के पेड़ पर
लिखने लिखाने का

वाईरस
कर गये थे सप्लाई

और
तब से खुद तो
गायब हो गये
नहीं दिये कहीं दिखाई

‘उलूक’
चालू हुआ
तब से रुका नहीं

गाड़ी
की थी उन्होने
लिखने की उसे
बिना ब्रेक के सप्लाई

बहुत
देर हो चुकी
बात बहुत देर से
समझ में है आई

उसके बाद
लिखना
बंद कर दो

जनता
बोर हो चुकी है
लिखी उनकी चिट्ठी
पोस्ट आफिस तक
सुना है पहुँची भी है

पोस्टमैन ने
पता नहीं क्यों
घर तक अभी तक
भी नहीं है पहुँचाई ।

शनिवार, 19 जुलाई 2014

नया होते रहने के चक्कर में पुराना भी नहीं रह पाता है

पुरानी होती हुई
चीजों से भी बहुत
भ्रांतियां पैदा होती हैं
एक समाचार पत्र
एक दिन के बाद
ही अपना मूल्य
खो देता है
रुपिये की जगह
कुछ पैसों का
हो लेता है
रद्दी कहलाता है
कबाड़ी मोल भाव
करके उठा ले जाता है
हाँ थैली बनाने के
काम जरूर आता है
कुछ देर के लिये
दुबारा जिंदा होकर
खड़ा हो जाता है
जिंदगी की बाजार में
जगह बनाने में
एक बार और
कामयाब हो जाता है
ऐसी एक नहीं
कई कई काम की चीजें
बेकाम की चीजों में
गिनी जाती हैं
कुछ कुछ दिन
कुछ कुछ ज्यादा दिन
की मेहमान नवाजी
पा जाती हैं और
कुछ चीजों को प्राचीन
बता दिया जाता है
कौड़ी के भाव से
खरीदी गई चीजों को
 हीरों के भाव से
ऊपर कहीं पहुँचा
दिया जाता है
और ये सब एक
पुराने होते चले
जा रहे आदमी के
द्वारा ही किया जाता है
उसे खुद पता
नहीं चलता है
कि वो कब
कितना पुराना
हो जाता है
हर चीज के भाव
तय करने वाले का
भाव अपने में ही
इतना नीचे
चला जाता है
उसे पता ही
नहीं चलता है
उसके खुद के लिये
कोई बाजार कहीं भी
नहीं रह जाता है
खरीदने की बात
अलग है उसे कोई
बेचना भी नहीं चाहता है
कल से आज होते हुऐ
कब कल आ जाता है
जिंदगी बेचने की
सोचने में लगे लगे
उसे पता भी
नहीं चल पाता है
कब नया जमाना
कब नया बाजार
कब नया मॉल
आ जाता है
दुनियाँ बेचने के
सपने बनाते बनाते
नये जमाने के
नये बेचने वालों
की भीड़ में कहीं
खो जाता है
बोली लग रही होती है
हर किसी चीज की
और उसे कबाड़ में
भी नहीं गिना जाता है
बहुत बेरहम होता है समय
उसकी मुस्कुराहट को
कौन समझ पाता है ।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

बहुत समय है फालतू का उसे ही ठिकाने लगा रहे हैं

भाई जी
क्या बात है
आजकल दिखाई
भी नहीं देते हो
हम तो रोज
उसी रास्ते पर
चल रहे हैं
उसी तरह से
सदियों से
आप क्यों अपने
रोज ही रास्ते
बदल देते हो
आया जाया करो
देखा दिखाया करो
तबियत बहल जाती है
हमारी तो इस तरह
आप भी कुछ
अपनी भी तो
कभी बहलाया करो
मिलोगे नहीं तो
अलग थलग
पड़ जाओगे
भूल जायेंगे लोग
याद ही नहीं आओगे
बताओ तो जरा
कहाँ रह जाते हो
आजकल
कुछ खबर ही
नहीं मिलती
पूछ्ते रहते हैं
हम सब से
अपने अगल
और बगल
कोई कह रहा था
कुछ नये अजीब से
काम से लगे हो
बताओ हम भी सुने
क्या नया खोदने
और बोने में लगे हो
अजी कुछ भी नहीं
बस कुछ नहीं
करने के तरीके
खोजने की कोशिश
जैसी हो रही है
तुम्हारे रास्तों में
अब हमारी जरूरत
किसी को भी जरा
सा भी नहीं हो रही है
एक नये रास्ते पर
अब लोग आ जा रहे हैं
जिनको कुछ नहीं
आता है जरा भी
उनसे कुछ नहीं
ढेर सारा लिखवा रहे हैं
हम भी हो लिये हैं
साथ भीड़ में घुसकर
कुछ नहीं पर कुछ कुछ
लिखना लिखाना
बस करा रहे हैं ।

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

सभी के होते हैं रिश्ते सभी बनाना चाहते हैं


कंकड़
पत्थर
की ढेरी के
एक कंकड़
जैसे हो जाते हैं

रिश्ते
साथ रहते हुऐ भी
अलग हो जाते हैं

जब
इच्छा होती है
इस ढेरी से
उस ढेरी में
डाल दिये जाते हैं

पता
चल जाता है
आकार प्रकार
और रंग से

अभी
तक कहीं
और थे
अभी
अभी कहीं
और
पाये जाते हैं

रस्सी
नहीं होते हैं
गांठो में नहीं
बांधे जाते है

खोलने
बांधने के
मौके जबकि
बहुत बार
सामने से आते हैं

मिलने जुलने
से लेकर
बिछोह
होने तक
रिश्ते गरम
से होते हुऐ
कब ठंडे
हो जाते हैं

रिश्ते
आसमान से
गिरते जल की
ऐसी बूँदे भी
हो सकते हैं

गिरते गिरते ही
एक दूसरे में
जो आत्मसात
हो जाते हैं

पानी में से
पानी को
अलग कर पाना
अभी तक यहाँ
कहीं भी नहीं
सिखाते हैं

अपनी अपनी
की धुन में
नाचती अपनी
जिंदगी में

कब
बूँद बन कर
आसमान
से नीचे की ओर
गिरते हुऐ आते हैं

किसी
दूसरी बूंद में
मिलने से पहले ही
कब पत्थर हो जाते हैं

जानते हैं
समझते हैं
पर समझना ही
कहाँ चाहते हैं

एक ढेरी के
कंकड़ो
में गिरकर
इधर से उधर
लुढ़कते लुढ़कते
किसी दूसरी ढेरी
में पहुँच जाते है

रिश्ते
पानी की बूँदें
नहीं हो पाते हैं ।