छोटे छोटे
फूल
रंग बिरंगे
और
कोमल
भी
बिखेरते हुऐ
खुश्बू
रंग
और
खुशियाँ
चारों तरफ
दिखता है
हर
किसी को
अपने
आस पास
एक
इंद्रधनुष
पहुँचते
ही
इस
दुनियाँ में
किसे
अच्छा
नहीं लगता
कोमल
अहसास
अपने पास
जिंदगी
की
दौड़
शुरु होते
बिना पैरों के
‘ठुमुक
चलत
राम चंद्र
बाजत
पैजनियाँ’
फिर
यही
अहसास
बन जाते हैं
सतरंगी धागे
कलाई
के
चारों ओर
फिर
एक और
इंद्रधनुषी
छटा
बिखेरते हुऐ
सृष्टि
अधूरी होगी
समझ में
भी आता है
अनजाने
से
किसी पल में
बचपन
से
लेकर
घर छोड़ते
नमी के साथ
और
लौटते
खुशी
के
पलों में
हमेशा
बहुत
जल्दी
बढ़ी होती
उँचाई के
साथ
झिझक
जरूरी नहीं रही
बदलते
समय के साथ
मजबूत
किया है
इरादों को
सिक्के
के
दोनो पहलू
भी
जरूरी हैं
और
उन दोनो
का
बराबर
चमकीला
और
मजबूत होना
भी
आज
का दिन
रोज के
दिन में
बदले
सभी दिन
साल के
तुम्हारे
यही
दुआ है
अपने लिये
क्योंकि
खुद की
ही
आने वाली
पीढ़ियों
की
सीढ़ियों का
बहुत
मजबूत होना
बहुत
जरूरी है ।
पागलों का दिन है
सुबह सुबह आज
डाक्टर मित्र
ने बताया
बहुत कुछ
अपना अपना
जैसा लगा
आज का सारा दिन
कल ही रात सुना था
किसी का सपना
मर गया बुखार से
अब सपने को भी
अगर मरना ही था
तो कैंसर से मरता
ऐड्स से मरता
मरा भी तो बुखार से
वैसे भी मरने वाले
सपने बहुत होते हैं
बहुतों के होते हैं
जिनके नहीं
मरने होते हैं
उन्हें पता होते हैं
सपनों को जिंदा
रखना आता है जिन्हें
वहाँ भी साँठ
गाँठ चलती है
बहुत तंदुरुस्त
सपने होते हैं
उन लोगों के और
आज ज्यादातर
लोग यही होते हैं
जिसे बहुमत का
नाम दिया जाता है
अब रोटी के सपने
देखने की कोशिश
करने वाला
कहाँ जानता है ये सब
पेट के सपने ही
मरते सपने होते हैं
उँचे सपने दिमाग
से देखे जाते हैं
और सपनों को
जिंदा रखने के लिये
ही सपने मारे जाते हैं
मरते सपने देखने
वाले पागल होते हैं
और पागलों को
आज के दिन
प्यार देने की
हिदायत दी जाती है
और अच्छा खाना भी
पागलों के दिन की
मुबारकबाद देनी
ही चहिये और वो
आज दी जाती है
सुबह सुबह अखबार
में पूरे पन्ने के
विज्ञापन में भी
बहुत सी बातें
नजर आज ही आती हैं
और पागलों को भी
सभी बातें बताई जाती हैं ।
चित्र साभार: http://www.fotosearch.com
रिश्ते शब्दों के
शब्दों से भी
हुआ करते हैं
जरूरी नहीं
सारे रिश्तेदार
एक ही पन्ने में
कहीं एक साथ
मिल बैठ कर
आपस में बातें
करते हुऐ
नजर आ जायें
आदमी और
उसकी सोच की
पहुँच से दूर
भी पहुँच जाते हैं
एक पन्ने के
शब्दों के रिश्ते
किसी दूसरे के
दूसरे पन्ने की
तीसरी या चौथी
लाईन के बीच में
कहीं कुछ असहज
सा भी लगता है
कुछ शब्दों का
किसी और की
बातों के बीच
मुस्कुराना
कई बार पढ़ने
के बाद बात
समझ में आती
हुई सी भी
लगती है
बस पचता
नहीं है शब्द का
उस जगह होना
जैसे किसी के
सोने के समय
के कपड़े कुछ
देर के लिये
कोई और पहन
बैठा हो
उस समय एक
अजीब सी इच्छा
अंदर से बैचेन
करना शुरु
कर देती है
जैसे वापस
माँगने लगे कोई
अचानक पहने
हुऐ वस्त्र
आँखे कई बार
गुजरती हैं
शब्दों से इसी तरह
कई लाईनों के
बीच बीच में
बैठे हुऐ रिश्तेदारों
के वहाँ होने की
असहजता के बीच
मन करता है
खुरच कर क्यों ना
देख लिया जाये
क्या पता
नीचे पन्ने पर
कुछ और लिखा हुआ
समझ में आसानी
से आ जाये
‘उलूक’ तेरे चश्में में
किस दिन किस
तरह की खराबी
आ जाये
तेरे रिश्तेदार
कौन कौन से
शब्द है और
कहाँ कहाँ है
शायद किसी
की समझ में
कभी गलती
से आ ही जाये।
चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com
इस पर कुछ
लिख कर जब
उसको पढ़ाया
बत्तीस लाईन
पढ़ने में उसने
बस एक डेढ़
मिनट लगाया
थोड़ा
सिर हिलाया
थोड़ा इधर
थोड़ा उधर घुमाया
कुछ देर लगा
जैसे कुछ सोचा
फिर आँखों
को मींचा
दायें हाथ
की अंगुलियों से
अपने बायें कान
को भी खीँचा
ऐनक उतार कर
रुमाल से पोंछा
कंधे पर हाथ
रख कर कुछ
अपनी ओर खींचा
बहुत अपनेपन से
मुँह के पास
मुँह ले आया
फुसफुसा कर
हौले से बस
इतना ही पूछा
बरखुर्दार !
ये सब करना
तुमको किसने
सिखाया
कब से शुरु किया
और ये सब
करने का विचार
तुम्हें कैसे आया
अच्छा किया मैंने
जो मैं इधर को
जल्दी चला आया
बहुत से लोगों ने
बहुत सी चीजों में
बहुत कुछ कमाया
लिखना ही था
तूने ‘उलूक’
तो फिर मुझे
पहले क्यों नहीं
कुछ बताया
इस पर तो सबने
सब कुछ कब से
लिख लिखा दिया
उस पर कुछ
लिखने का तू
कभी क्यों नहीं
सोच पाया ।
चित्र साभार: http://www.clipartguide.com
सब कुछ तो नहीं
पर कुछ तो पता
चल जाता है
ऐसा जरूरी तो नहीं
फिर भी कभी
महसूस होता है
सामने से लिखा हुआ
लिखा हुआ ही नहीं
बहुत कुछ और
भी होता है
अजीब सी बात
नहीं लगती है
लिखने वाला
भी अजीब
हो सकता है
पढ़ने वाला भी
अजीब हो सकता है
जैसे एक ही बात
जब बार बार
पढ़ी जाती है
याद हो जाती है
एक दो दिन के लिये
ही नहीं पूरी जिंदगी
के लिये कहीं
सोच के किसी
कोने में जैसे
अपनी एक पक्की
झोपड़ी ही बना
ले जाती है
अब आप कहेंगे
झोपड़ी क्यों
मकान क्यों नहीं
महल क्यों नहीं
कोई बात नहीं
आप अपनी सोच
से ही सोच लीजिये
एक महल ही
बना लीजिये
ये झोपड़ी और महल
एक ही चीज
को देख कर
अलग अलग
कर देना
अलग अलग
पढ़ने वाला
ही कर पाता है
सामने लिखे हुऐ
को पढ़ते पढ़ते
किसी को आईना
नजर आ जाता है
उसका लिखा
इसके पढ़े से
मेल खा जाता है
ये भी अजीब बात है
सच में
इसी तरह के आईने
अलग अलग लिखे
अलग अलग पन्नों में
अलग अलग चेहरे
दिखाने लग जाते है
कहीं पर लिखे हुऐ से
किसी की चाल ढाल
दिखने लग जाती है
कहीं किसी के उठने
बैठने का सलीका
नजर आ जाता है
किसी का लिखा हुआ
विशाल हिमालय
सामने ले आता है
कोई नीला आसमान
दिखाते दिखाते
उसी में पता नहीं कैसे
विलीन हो जाता है
पता कहाँ चल पाता है
कोई पढ़ने के बाद की
बात सही सही कहाँ
बता पाता है
आज तक किसी ने
भी नहीं कहा
उसे पढ़ते पढ़ते
सामने से अंधेरे में
एक उल्लू
फड़फड़ाता हुआ
नजर आता है
किसने लिखा है
सामने से लिखा
हुआ कुछ कभी
पता ही नहीं
लग पाता है
ऐसे लिखे हुऐ
को पढ़ कर
शेर या भेड़िया