उलूक टाइम्स: लाईन
लाईन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
लाईन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

करने वालों को लात नहीं करने वालों के साथ बात सिद्धान्ततह ही हो रहा होता है

बेवकूफों
की
दिवाली

समझदारों
की
अमावस
काली

बाकी
लेना देना
अपनी
जगह पर

होना
ना होना
होने
ना होने
की
जगह पर
पहले
जैसा ही
होना
होता है
हो रहा
होता है

अवसरवाद
को
छोड़ कर
कोई भी वाद
वाद नहीं
होता है
किसे
इस बात
से मतलब
हो रहा
होता है

किसे
समझाये
आदमी
इस
बात को
जहाँ
आदमी ही
आदमी को
खुद
खुरचता
और
खुद ही
रो रहा
होता है

पानी नहीं
होता है
फिर भी
कोई भी
किसी
को भी
खुले आम
धो रहा
होता है

सारे
हम्माम
बुला रहे
होते हैं
सब कुछ
उतारे
हुओं
को ही
फिर
किस लिये
कोई
उतारा हुआ
कुछ
ओढ़ कर
उधर
घुसने
के लिये
रो रहा
होता है

पढ़ने
पढा‌ने में
किस लिये
लगे हुए हैं
नासमझ लोग

जब
समझदार
कभी भी
नहीं
पढ़ाने वाला
पढा‌ई लिखाई
कराने वालों
की लाईन
बनाने के
लिये लाईने
बो रहा होता है

केवल एक
दो हजार
के नोट
को
निकालने
में लग
रहे होते
हैं जहाँ
सारे
समझदार लोग

लाईन लगा
कर एक
बेवकूफ
ही होता
है जो
हजारों
दो हजार
के नोटों की
लाईन
पर लाईन
अपने घर पर
कहीं लगा कर
सो रहा होता है

समझने
में लगा है
देश
समझदारी
समझदार की
जो हो
रहा होता है
वो हो
रहा होता है

कोई
नया भी नहीं
हो रहा होता है
घर मोहल्ले में
हर दिन
हर समय
हो रहा होता है
चोर के
हाथ में
चाबियाँ
खजानों
की दिख
रही होती हैं

अंधा ‘उलूक’
अलीबाबा के
खुल जा
सिमसिम
मंत्र को
कागज में
लिख लिख
कर कहीं
बिना बताये
जमीन में
बो रहा
होता है

रोना बन्द
हो रहा
होता है
सभी रोने
वालों का
छातियाँ पीटने
वालों का
काला सोना
सफेद ‘सोना’
हो रहा होता है

क्रांतिकारियों
के चित्र और
कहानियों का
उजाला लिये
हाथ में
सर पीटता
अँधेरा कहीं
कोने में रो
रहा होता है ।

चित्र साभार: Dragon Alley Journals - WordPress.com

बुधवार, 23 सितंबर 2015

भगदड़ मच जाती है जब मलाई छीन ली जाती है

चींंटियाँ
बहुत कम 
अकेली दौड़ती नजर आती है 

चीटियाँ
बिना वजह लाईन बना कर 
इधर से उधर कभी नहीं जाती हैं 

छोटी चींंटियाँ एक साथ 
कुछ बड़ी अलग कहीं साथ साथ 

और बहुत बड़ी 
कम देखने वाले को भी दूर से ही दिख जाती हैं 

लगता नहीं कभी 
छोटी चींंटियों के दर्द और गमो के बारे में 
बड़ी चीटियाँ
कोई संवेदना जता पाती हैं 

चींंटियों की किताब में लिखे
लेख कविताऐं भी कोई संकेत सा नहीं दे पाती हैं 

चींंटियों के काम कभी रुकते नहीं है 
बहुत मेहनती होती हैं चींंटियाँ हमेशा 
चाटने पर आ गई तो मरा हुआ हाथी भी चाट जाती हैं 

छोटी चींटियों के लिये
बड़ी चीटियों का प्रेम और चिंता 
अखबार के समाचार के ऊपर छपे समाचार 
से उजागर हो जाती है 

पहले दिन छपती है 

चींंटियों से
उस गुड़ के बरतन को छीने जाने की खबर
जिसे लूट लूट कर चींंटियाँ 
चीटियों की लाईन में रख पाती हैं 

खबर फैलती है 
चींंटियों में मची भगदड़ की 
दूसरे किस्म की चीटियों के कान में पहुँच जाती है 

दूसरे दिन

दूसरी चींंटियाँ 
पहली चींंटियों की मदद के लिये
झंडे लहराना शुरु हो जाती है

पूछती हैं 
ऐसे कैसे सरकार
अपनी चींंटियों में भेद कर जाती है 

इधर भी तो लूट ही मची है
चींंटियाँ ही लूट रही हैं 
उधर की चींंटियों को गुड़ छीन कर
दे देने का संकेत देकर
सरकार आखिर करना क्या चाहती है 

ये सब रोज का रोना है
चलता हुआ खिलौना है 
चाबी भरने की याद आती है तभी भरी जाती है 

कुछ समझ में आये या ना आये 
एक बात पक्की सौ आने समझ में आती है 

लाईन में लगी चींंटियों की मदद करने
लाईन वाली चींंटियाँ ही आती है 
लाईन से बाहर
दौड़ भाग कर
लाईन को देखते रहने वाली चींंटियाँ 
गुड़ की
बस खुश्बू दूर से ही सूँघती रह जाती हैं । 

चित्र साभार: www.gettyimages.com

शनिवार, 8 नवंबर 2014

होता ही है एक बच्चे की खींची हुई लकीरें कागज पर ढेर सारी एक दूसरे से उलझ ही जाती हैं

शायद किसी दिन
कुछ लिखने के 
काबिल हो जाऊँ 
और पा लूँ एक 
अदद पाठक भी 
ऐसा पाठक जो 
पढ़े मेरे लिखे हुऐ को 
बहुत ध्यान से 
और समझा भी दे 
मुझे ही भावार्थ 
मेरे लिखे हुऐ का 
लिखने की चाह 
होना काफी नहीं होता 
बहुत ज्यादा और 
कुछ भी लिख देना 
कागज भरना 
कलम घिस देना 
ऐसे में कई बार 
आँखों के सामने 
आ जाता है कभी 
एक बच्चा जो 
बहुत शौक से 
बहुत सारी लाईने 
बनाता चला जाता है 
कागज ही नहीं 
दीवार पर भी 
जमीन पर और 
हर उस जगह पर 
जहाँ जहाँ तक 
उसकी और उसकी 
कलम की नोक 
की पहुँच होती है 
उसके पास बस
कलम होती है
कलम पर बहुत
मजबूत पकड़ होती है
बस उसकी सोच में
शब्द ही नहीं होते हैं
जो उसने उस समय
तक सीखे ही
नहीं होते हैं
इसी तरह किसी
खुशमिजाज दिन की
उदास होने जा रही
शाम जब शब्द
ढूँढना शुरु होती है
और माँगती है
किसी आशा से
मुझ से कुछ
उसके लिये भी
कह देने के लिये
दो चार शब्द
जो समझा सकें
मेरे लिखे हुऐ में
उसको उसकी उदासी
और उस समय मैं
एक छोटा सा बच्चा
शुरु कर देता हूँ
आकाश में
लकीरें खीँचना
उस समय
महसूस होता है
काश मैं भी
एक लेखक होता
और उदास शाम
मेरी पाठक
क्या पता किसी दिन
कोई लकीर कुछ कह दे
किसी से कुछ इतना
जिसे बताया जा सके
कि कुछ लिखा है ।

चित्र साभार: www.lifespirals.com.au

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014

क्या किया जाये ऐसे में अगर कोई कहीं और भी मिल जाये

रिश्ते शब्दों के
शब्दों से भी
हुआ करते हैं
जरूरी नहीं
सारे रिश्तेदार
एक ही पन्ने में
कहीं एक साथ
मिल बैठ कर
आपस में बातें
करते हुऐ
नजर आ जायें
आदमी और
उसकी सोच की
पहुँच से दूर
भी पहुँच जाते हैं
एक पन्ने के
शब्दों के रिश्ते
किसी दूसरे के
दूसरे पन्ने की
तीसरी या चौथी
लाईन के बीच में
कहीं कुछ असहज
सा भी लगता है
कुछ शब्दों का
किसी और की
बातों के बीच
मुस्कुराना
कई बार पढ़ने
के बाद बात
समझ में आती
हुई सी भी
लगती है
बस पचता
नहीं है शब्द का
उस जगह होना
जैसे किसी के
सोने के समय
के कपड़े कुछ
देर के लिये
कोई और पहन
बैठा हो
उस समय एक
अजीब सी इच्छा
अंदर से बैचेन
करना शुरु
कर देती है
जैसे वापस
माँगने लगे कोई
अचानक पहने
हुऐ वस्त्र
आँखे कई बार
गुजरती हैं
शब्दों से इसी तरह
कई लाईनों के
बीच बीच में
बैठे हुऐ रिश्तेदारों
के वहाँ होने की
असहजता के बीच
मन करता है
खुरच कर क्यों ना
देख लिया जाये
क्या पता
नीचे पन्ने पर
कुछ और लिखा हुआ
समझ में आसानी
से आ जाये
‘उलूक’ तेरे चश्में में
किस दिन किस
तरह की खराबी
आ जाये
तेरे रिश्तेदार
कौन कौन से
शब्द है और
कहाँ कहाँ है
शायद किसी
की समझ में
कभी गलती
से आ ही जाये।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com