उलूक टाइम्स

सोमवार, 25 मई 2015

‘दैनिक हिन्दुस्तान’ सबसे पुरानी दोस्ती की खोज कर के लाता है ऐसा जैसा ही उसपर कुछ लिखा जाता है

सुबह कुछ
लिखना चाहो
मजा नहीं
आता है
रात को वैसे
भी कुछ नहीं
होता है कहीं
सपना भी कभी कभी
कोई भूला भटका
सा आ जाता है
शाम होते होते
पूरा दिन ही
लिखने को
मिल जाता है
कुछ तो करता
ही है कोई कहीं
उसी पर खींच
तान कर कुछ
कह लिया जाता है
इस सब से इतर
अखबार कभी कुछ
मन माफिक
चीज ले आता है
संपादकीय पन्ने
पर अपना सब से
प्रिय विषय कुत्ता
सुबह सुबह नजर
जब आ जाता है
आदमी और कुत्ते
की दोस्ती पुरानी
से भी पुरानी होना
बताया जाता है
तीस से चालीस
हजार साल का
इतिहास है बताता है
आदमी ने क्या सीखा
कुत्ते से दिखता है
उस समय जब
आदमी ही आदमी
को काट खाता है
विशेषज्ञों का मानना
मानने में भलाई है
जिसमें किसी का
कुछ नहीं जाता है
आदमी के सीखने
के दिन बहुत हैं अभी
कई कई सालों तक
खुश होता है
बहुत ही ‘उलूक’
चलो आदमी नहीं
कुत्ता ही सही
जिसे कुछ सीखना
भी आता है
दिखता है घर से
लेकर शहर की
गलियों के कुत्तों
को भी देखकर
कुत्ता सच में
आदमी से बहुत कुछ
सीखा हुआ सच में
नजर आता है  ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

रविवार, 24 मई 2015

लिखते लिखते लिखने वाले की बीमारी पर भी लिख

दवा पर लिख
कुछ कभी
दारू पर लिख

दर्द पर लिख
रही है
सारी दुनियाँ
तू भी लिख

कोई नहीं
रोक रहा है
पर कहीं
कुछ कभी
कँगारू पर लिख

चाँद पर लिख
कुछ सितारों
पर लिख
लिखने पर
रोक लगे
तब तक कुछ
बेसहारों पर लिख

लिखने लिखाने
पर पूछना शुरु
करती है जनता
कभी कुछ
समाधान
पर लिख
कभी आसमान
पर लिख

करने वाले
मिल जुल
कर निपटाते हैं
काम अपने
हिसाब से
सिर के बाल
नोच ले अपने
उसके बाद चाहे
बाल उगाने की
कलाकारी
पर लिख

हर कोई बेच
कर आता है
सड़क पर
खुले आम
सब कुछ
तू भी तो बेच
कुछ कभी
और फिर
बेचने वालों
की मक्कारी
पर भी लिख

लिखना
लिखाना ही
एक दवा है
मरीजों की
तेरी तरह के

डर मत
पूछने वालों से
कभी पूछने
वालों की
रिश्तेदारी
पर लिख

हरामखोरों
की जमात
के साथ रहने
का मतलब
ये नहीं होता
है जानम

लिखते लिखते
कभी कुछ
अपनी भी
हरामखोरी
पर लिख ।

चित्र साभार: www.colinsclipart.com

शनिवार, 23 मई 2015

जरूरी कितना जरूरी और कितनी मजबूरी

दुविधाऐं
अपनी अपनी
देखना सुनना
अपना अपना
लिखना लिखाना
अपना अपना
पर होनी भी
उतनी ही जरूरी
जितनी अनहोनी
दुख: सुख: अहसास
खुद के आस पास
बताना भी उतना
ही जरूरी जितना
जरूरी छिपाना
खुद से ही खुद
को कभी कभी
खुद के लिये ही
समझाना भी
बहुत जरूरी
समझ में आ जाने
के बाद की मजबूरी
परेशानी का आना
स्वागत करना भी
उतना ही जरूरी
जितना करना
उसके नहीं आने
की कल्पना के साथ
कुछ कुछ कहीं
कभी जी हजूरी
भावनाऐं अच्छी भी
उतनी ही जरूरी
जितनी बुरी कुछ
बुरे को समझने
बूझने के लिये
निभाने के लिये
अच्छाई के
साथ बुराई
बुराई के
साथ अच्छाई
बनाते हुऐ कुछ
नजदीकियाँ
साथ लिये हुऐ
बहुत ज्यादा नहीं
बस थोड़ी सी दूरी
सौ बातों की एक बात
समय के मलहम
से भर पायें घाव
समय के साथ
समय की आरी से
कहीं कुछ कटना
कुछ फटना भी
उतना ही जरूरी ।

चित्र साभार: chronicyouth.com

शुक्रवार, 22 मई 2015

समय समय के साथ किताबों के जिल्द बदलता रहा

गुरु
लोगों ने
कोशिश की

और
सिखाया भी

किताबों
में लिखा
हुआ काला

चौक से काले
श्यामपट पर

श्वेत चमकते
अक्षरों को
उकेरते हुऐ
धैर्य के साथ

कच्चा
दिमाग भी
उतारता चला गया

समय
के साथ
शब्द दर शब्द
चलचित्र की भांति

मन के
कोमल परदे पर
सभी कुछ

कुछ भरा
कुछ छलका
जैसे अमृत
क्षीरसागर में
लेता हुआ हिलोरें

देखता हुआ
विष्णु की
नागशैय्या पर
होले होले
डोलती काया

ये
शुरुआत थी

कालचक्र घूमा
और
सीखने वाला

खुद
गुरु हो चला

श्यामपट
बदल कर
श्वेत हो चले

अक्षर रंगीन
इंद्रधनुषी सतरंगी
हवा में तरंगों में
जैसे तैरते उतराते

तस्वीरों में बैठ
उड़ उड़ कर आते

समझाने
सिखाने का
सामान बदल गया

विष्णु
क्षीरसागर
अमृत
सब अपनी
जगह पर

सब
उसी तरह से रहा
कुछ कहीं नहीं गया

सीखने
वाला भी
पता नहीं
कितना कुछ
सीखता चला गया

उम्र गुजरी
समझ में
जो आना
शुरु हुआ

वो कहीं भी
कभी भी
किसी ने
नहीं कहा

‘उलूक’
खून चूसने
वाले कीड़े
की दोस्ती

दूध देने वाली
एक गाय के बीच

साथ  रहते रहते
एक ही बर्तन में

हरी घास खाने
खिलाने का सपना

सोच में पता नहीं
कब कहाँ
और
कैसे घुस गया

लफड़ा हो गया
सुलझने के बजाय
उलझता ही रहा

प्रात: स्कूल भी
उसी प्रकार खुला

स्कूल की घंटी
सुबह बजी

और
शाम को
छुट्टी के बाद

स्कूल बंद भी
रोज की भांति

उसी तरह से ही
आज के दिन
भी होता रहा ।

चित्र साभार: www.pinterest.com

गुरुवार, 21 मई 2015

होती है बहुत होती है अंदर ही अंदर किसी को बहुत ही परेशानी होती है


सार्थक लेखन की खोज में
निरर्थक भटकने चले जाना भी 
शायद बुद्धिमानी होती है

बकवास कर रहा होता है बेवकूफ कोई कहीं
पीछा करते हुऐ आदतन खोजना अर्थ उसमें भी 
फिर भी कई सूरमाओं की कहानी होती है

टटोलते हुऐ बिना देखे 
खाली फटेटाट के झोले में हाथ डालकर
हाथ में आई हवा को बाहर निकाल कर
देखने की आदत बहुत पुरानी होती है

पता होता है खिसियाने की जगह समझाने की
कलाकारी उसके बाद ही दिखानी होती है

लिख रहा होता है बकवास 
कह रहा होता है है बकवास 
अपने दिन के हिसाब किताब को 
शाम होते डायरी में छिपाने की बेताबी
‘उलूक’ को इसी तरह बतानी होती है

बैचेनी का आलम इधर हो ना हो 
पता चल जाता है
किसी के लिखने की आदत से 
उस पर ऊपर से अपना दर्द

होती है अंदर ही अंदर 
किसी को बहुत ही परेशानी होती है ।

चित्र साभार: etc.usf.edu