कई
दिनों तक
एक रोज
लिखने वाला
अपनी कलम
और किताब को
रोज देखता है
रोज छूता है
बस लिखता
कुछ भी नहीं है
लिखने की
सोचने तक
नींद के आगोश
में चला जाता है
सो जाता है
कब्ज होना
शुरु होता है
होता चला
जाता है
बहुत कुछ
होता है
रोज की
जिन्दगी में
बाजार
नहीं होता है
आसपास
कहीं भी
दूर दूर तलक
बेचने की
सोच कर
साथी एक
कुछ भी
बेच देने वाला
मन बना कर
चला आता है
दुकान तैयार
कर देता हैं
मिनटों में
खरीददार
बुझाये
समझाये
हुऐ कुछ
दो चार
साथ में
पहले से ही
लेकर के
आता है
बिकने को
तैयार नहीं
होने से
कुछ नहीं
होता है
कब
घेरा गया
कब
बोली लगी
कब
बिक गया
जब तक
समझता है
बेच दिया
जाता है
सामान
बना दिया
जाने के बाद
दाम अपने आप
तय हो जाता है
शातिराना
अन्दाज के
नायाब तरीके
सीखना सिखाना
जिस किसी
को आता है
भीड़ का
हर शख्स
थोड़ी देर
के लिये
कुछ ना कुछ
सीखने के लिये
आना चाहता है
किताबें
कापियाँ
कक्षाओं के
श्यामपट के
आसपास रहने
दिखने वालों
के दिन कब
का लद गये
भरे हुऐ भरे में
थोड़ा सा ही सही
और भर देने की
कारीगरी सिखाना
फिर मिल बाँट कर
भर देना गले गले तक
खींच कर गले लगाना
जिसे आता है
आज
वही तैयार
करता है फन्दे
आत्म हत्या
करने का
ख्याल
रोज आता है
‘उलूक’
उल्लू का पट्ठा
समझता सब कुछ है
रोज मरता है मगर
रोज जिन्दा भी
हो जाता है ।
चित्र साभार: Clipart Library
ठीक बात
नहीं होती है
कह देना
अपनी बात
किसी से भी
कुछ बातें
कह देने की
नहीं होती हैं
छुपायी जाती हैं
बात के
निकलने
और
दूर तक
चले जाने
की बात पर
बहुत सी
बातें कही
और
सुनी जाती हैं
सुनाई जाती हैं
कुछ लोग
अपनी बातें
करना
छोड़ कर
बातों बातों
में ही
बहुत सारी
बात
कर लेते हैं
बातों बातों में
किसी की बातें
बाहर
निकलवाकर
उसी से
कर लेने
की निपुणता
यूँ ही हर
किसी को
नहीं आयी
होती है
एक
दो चार दिन के
खेल खेल में
सीख लेना
नहीं होता है
बातों को
लपेट लेना
सामने वालों की
उसकी
अलग से
कई साल
सालों साल
बातों बातों में
बातों के स्कूलों में
पढ़ाई लिखाई होती है
‘उलूक’
नतमस्तक
होता है
बातों के ऐसे
शहनशाहों के
चरणों में
ठंड रख कर
खुद हिमालयी
बर्फ की
हमेशा अपनी
बातों में जिसने
दूसरे की
दिल की
बातों की
नरम आग
सुलगा
सुलगा कर
पानी में
भी आग
लगाई
होती है ।
चित्र साभार: ClipartFest
ऊपर
वाला भी
भेज देता
है नीचे
सोच कर
भेज दिया है
उसने
एक आदमी
नीचे
का आदमी
चढ़ लेता है
उस आदमी के
ऊपर से उतरते ही
उसकी
सोच पर
सोचकर
समझकर
समझाकर
सुलझाकर
बनाकर उसको
अपना आदमी
आदमी
समझा लेता है
आदमी को आदमी
खुद
समझ कर
पहले
ये तेरा आदमी
ये मेरा आदमी
बुराई नहीं है
किसी आदमी के
किसी का भी
आदमी हो जाने में
आदमी
बता तो दे
आदमी को
वो बता रहा है
बिना बताये
हर किसी
आदमी को
ये है मेरा आदमी
ये है तेरा आदमी
‘उलूक’
हिलाता है
खाली खोपड़ी
में भरी हवा
को अपनी
हमेशा की तरह
देखता
रहता है
आदमी
खोजता
रहता है
हर समय
हर तरफ
आदमी
खोजता आदमी
बेअक्ल
उलझता
रहता है
उलझाता
रहता है
उलझनों को
अनबूझ
पहेलियों
की तरह
सामने
सामने ही
क्यों नहीं
खेलता है
आदमी का
आदमी
आदमी आदमी
बेखबर
बेवकूफ
अखबार
समझने
के लिये नहीं
पढ़ने
के लिये
चला जाता है
पता ही नहीं
कर पाता है
ऊपर वाला
खुद ही ढूँढता
रह जाता है
आदमी आदमी
खेलते आदमियों में
अपना खुद का
भेजा हुआ आदमी ।
चित्र साभार: Fotosearch
कल का
नहीं
खाया है
पता है
आज
फिर से
पकाया है
वो भी
पता है
कल भी
नहीं
खाना था
पता था
आज भी
नहीं
खाना है
पता है
कल भी
पकाया था
कच्चा था
पता था
पूरा पक
नहीं
पाया था
वो भी
पता था
किसी ने
कहाँ कुछ
बताया था
बताना ही
नहीं था
आज भी
पकाया है
पक नहीं
पाया है
कोई नहीं
खायेगा
जैसा था
रह जायेगा
सब को सब
पता होता है
कौन कब
कहाँ कितना
और क्यों
कहता है
सारा हिसाब
बहीखातों में
छोड़ कर
इधर भी
और
उधर भी
एक एक पाई
का सबके
पास होता है
ईश्वर और
कहीं भी
नहीं होता है
जो होता है
बस यहीं कहीं
आस पास
में होता है
दिखता है
मन्दिरों की
घन्टियाँ
बजाना
छोड़ कर
गले में
अपने ही
घन्टी
बाँध कर
यहीं पर
के किसी
एक के लिये
कोई
कितना
जार जार
सर
हिला हिला
कर रोता है
कल नहीं
पता था जिसे
उसे आज भी
पता नहीं होता है
‘उलूक’
इसलिये
कहीं भी
किसी डाल
पर नहीं
होता है
जो होते हैं
वो हर जगह
ही होते हैं
नहीं
होने वाले
नहीं हो पाने
के लिये
ही रोते हैं
पकता रहे
कुछ कुछ
जरूरी है
रसोई
के लिये
रसोईये
का काम
पकाना
और
पकाना
ही होता है
समझ में आने
के लिये नहीं
कहा होता है
जो लिखा
होता है
वो सब
समझ में
नहीं आया
होता है
इसीलिये
लिखा होता है
रोज पकाया
जाता है
कुछ ना कुछ
अधपकों के
बस में बस
इतना ही
तो होता है
जो पकाने
के बाद
भी पका
ही नहीं
होता है।
चित्र साभार: Encyclopedia Dramatica
गरम
होता है
उबलता है
खौलता है
कभी
किसी दिन
अपना ही लहू
खुद की
मर्दानगी
तोलता है
अपना
ही होता है
नजदीक का
घर का आईना
रोज कब कहाँ
कुछ बोलता है
तीखे एक तीर
को टटोलता है
शाम होते ही
चढ़ा लेता
है प्रत्यंचा
सोच के
धनुष की
सुबह सूरज
निकलता है
गुनगुनी धूप में
ढीला कर
पुरानी फटी
खूँटी पर टंगी
एक पायजामे
का इजहार
बह गये शब्दों
को लपेटने
के लिये
खींच कर
खोलता है
नंगों की
मजबूरी
नहीं होती है
मौज होती है
नंगई
तरन्नुम में
बहती है
नसों में
हमखयालों
की एक
पूरी फौज के
कदमतालों
के साथ
नशेमन
हूरों की
कायानात के
कदम चूमता है
हिलोरे ले ले
कर डोलता है
‘उलूक’
फिर से
गिनता है
कौए अपने
आसपास के
खुद के
कभी हल
नहीं होने वाले
गणित की नब्ज
इसी तरह कुछ
फितूर में फिर
से टटोलता है ।
चित्र साभार: Daily Mail