उलूक टाइम्स: उलूक
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गुरुवार, 29 अगस्त 2013

उलूक की पोटली में कूड़ा ही कूड़ा

हवा में तैरती ही हैं हर वक्त 
कथा कहानी कविताऎं

जरूरी कहाँ होता है 
सब की नजर में 
सब के सब ऎसे ही आ ही जायें

सबको पसंद आ जायें
शैतानियाँ बच्चों की चुहुल बाजी 
कहीं कहीं खट्टी कहीं मीठी झिड़कियां

दरवाजे के किनारे से झांकने का
अपना 
एक अलग मजा है 
किसी को दिख रही होती हैं खिकियां 

कोई फर्क नहीं पड़ता है 
जालियों में जाले लगे हो या नहीं 
जब झांकने की आदत हो जाये 
आँख बंद कर 
बंद दरवाजे के अंदर तक झांक लेता है कोई 

किसी को फर्क नहीं पड़ता 
किसी के बच्चों को कोई 
स्कूल अगर पहुँचाने में लगा हो 

क्या होता है अगर सुबह का दूध 
डेयरी से लाकर रोज दे जाने लगा हो 

अपने अपने शौक अपनी अपनी महारथ 

कोई हाथ की सफाई में माहिर 
कोई दिल पर डाके डालने में उस्ताद 
घर में एक अलग बाहर के लिये अलग 

बहुत कम होते हैं मगर होते हैं किताबी कीडे़ 
बस चले तो पढ़ाने वाले को ही खा जायें 

रोज रोज के पूछने का झंझट हो दूर 
एक दिन में ही सारी समस्यायें खुद सुलझ जायें

कोई अगर खाली होती कुर्सियों की 
गिनती कर रहा हो 
तो इसमें किसी के बाप का क्या चला जाता है 

इसके लिये वो झुक झुक कर 
काम आने वाले लोगों को सलाम ठोकना 
शुरु हो जाता है 

जहाँ दिमाग में कुछ 
हिसाब किताब घूम रहा होता है
वो 
लेखाधिकारी आफिस में 
उपस्थित हो या ना हो
उसकी कुर्सी को चूम रहा होता है 

कहीं कृष्ण देख लो कहीं राधा भी होती है
राम के भक्तगण भी मिल जायेंगे 
जरूरत पढ़ने पर रावण के भी काम आयेंगे 

कहीं पत्थर सीमेंट रेता भी होता है
इधर फेंका जाता है उधर काम आ जाता है 

जुगाड़ी भी 
तैरती हुई परीकथा का एक हिस्सा होता है

ऎसा दिखाया जाता है

कुछ कुछ तो ऎसा भी होता है 
जो होता है 
पर उसके ऊपर कुछ भी कहीं नहीं कहना होता है 

कैसे कहे कोई 
उसे कहने के लिये पहले बेशरम होना होता है 

कोई बात नहीं 
ये सब अगर नहीं होता चला जायेगा
तो कहने वाले के लिये भी तो 
कहने के लिये कुछ नहीं रह जायेगा 

आज ही सब कुछ नहीं कहेगा 
कल को कहने के लिये
कुछ नया 
चटपटा उठा कर ले आयेगा 

अपनी अपनी ढपली अपने अपने रागों 
से ही तो मेरा देश 
महान होने की दौड़ लगायेगा 

अब गिरे हुऎ रुपिये को उठाने के लिये
कोई 
तो जोर लगायेगा ।

सोमवार, 1 जुलाई 2013

रुक के आता दो एक दिन और जब यहाँ कुछ भी नहीं हो रहा था

ऎसा भयानक अनघट
चारों ओर धट रहा था
लिखने की किस को
पडी़ थी देखने में ही
अंदर तक जलता हुआ
लावा सा कुछ इधर
से उधर जैसे हो रहा था
नदी में ही था पानी
पानी की जगह पर
ही तो बह रहा था
वैसे भी किसको क्या
पडी़ थी कोई लिखे
या ना लिखे यहाँ
माथे पर लिखे हुऎ
को समय जब बहुत
बेरहमी से धो रहा था
पानी के शोर की
परवाह कौन करता
जब मौका तरह तरह
के शोर करने का बडी़
मुश्किल से हो रहा था
कुत्ता मालिक के गिरते
मकान का पहरा करते
करते कहीं रो रहा था
ग्लोबल पोजिशनिंग
सिस्टम रिमोट सेंसिंग
की शादी में जैसे
नशे में चूर हो रहा था
मौसम अंतरिक्ष पर्यावरण
सब व्यस्त हो रहे थे
हर बात पर शांतिपूर्वक
बहुत शोध हो रहा था
हर कोई निकल निकल
के जोर जोर से इसी
बात को लेकर रो रहा था
प्रयोगशाला में हो रही
परियोजनाओं का झंडा
पत्रिकाओं में फोटो सहित
ना जाने किस जमाने
से स्टोर हो रहा था
ऎसे मेले में जब हर
अनुभवी एक छोटा
सा पौंधा नहीं बहुत ही
बड़ा पेड़ हो रहा था
'उलूक' अच्छा ही किया
कुछ नहीं लिखा दीवार
पर यहाँ आ कर कुछ दिन
हर कोई चैन से था खुश था
और मजे से सो रहा था ।

गुरुवार, 13 जून 2013

सब कुछ कहाँ कहा फिर भी साढे़ तीन का सैकड़ा हो गया

(तीन सौ पचासवीं
पोस्ट 
जो हमेशा की तरह
एक सत्य घटना
पर आधारित है )


स्वीकृत
धन का

एक हिस्सा

कुछ
अलग तरह
से
जिसको खर्च

किया जाता है

कंटिंजेन्सी

कहलाता है

गूगल ट्रांस्लेट

हिन्दी में जिसे
आकस्मिकता
होना बतलाता है

 बहुत ज्यादा

पढ़ लिख लिया
पढ़ाना लिखाना
भी सीख लिया

हाय
किया तो

तूने क्या किया

जब तू
ये पूछने

के लिये जाता है

आक्स्मिक
व्यय
को
कैसे और

किसमें
खर्च
किया
जाता है


आकस्मिक
व्यय
करने
के लिये


कुछ ऎडवांस

लिया जाता है

जिसका

मन में

आ गया तो

कभी बाद में

समायोजन
दे
दिया जाता है

अब
कौन
तुझसे

पूछने
के लिये

आता है

कि तू

उस पैसे से
चाय जलेबी क्यों
खा ले जाता है

कर लिया कर

जो भी तेरे
मन में आता है

रसीद लेने

के लिये तो
स्टेशनरी
की दुकान 
में ही तो
जाता है


मत
सोचा कर
कि

किसी से
पूछने में

तेरा
क्या जाता है


अपने अपने
खर्च
करने
के ढंग को

कोई खुल के
कहाँ बताता है

तेरे से
अगर
इतना 
छोटा सा
समायोजन

ही नहीं हो पाता है

तो काहे
तू इस प्रकार

की जिम्मेदारी

अपने 
कंधों
पर उठाता है


छि :

अफसोस
हो 
रहा है
मुझे तेरी

काबीलियत पर

एक
कंटिजेन्सी
को
तक तू
जब ठिकाने

नहीं लगा पाता है ।

शनिवार, 23 मार्च 2013

बेशरम उलूक है तू नहीं !

सबको
आता है 

बहुत
आता है

हवा देना
किसी भी बात को

नहीं आता है
लेकिन
कह देना
खुद बा खुद
उसी बात को

हर बात पर
ढूँता है वो
एक मुँह

जो कह डाले
खुले आम
उस बात को

उसकी
इसी बात
से वो खास
हो जाता है

कल तक
आम होता है
आज बादशाह
हो जाता है

बात उसकी
कहने वाला
भी बहुत
खास हो
जाता है

वो बहुत
सालों से
इसी तरह
कर रहा है
बातों की बातें

बहुत
बेशरम है वो
लेकिन
कपडे़ शानदार
पहन के आता है

देखने वाले
इज्जत से पेश
आते हैं

सारे के सारे
आस पास वाले
किसी को पता
भी नहीं होता है

घर जाता है
तो तबियत से
जूते खाता है

अब क्या क्या
कहानी सुनाये
‘उलूक’
किस किस को
यहाँ आ के

उसको तो
आदत है
कहने की

जो
किसी से
कहीं नहीं
कभी
कहा जाता है ।

रविवार, 22 अप्रैल 2012

आज छुट्टी है

रोज कुछ कहने को
जरूरी नहीं बनायेगा

भौंपू आज बिल्कुल
नहीं बजाया जायेगा

किसी पर भी उंगली
आज नहीं उठायेगा

'उलूक' आज कोई
गाना नहीं सुनायेगा

आँख बंद रखेगा
और
सीटियां बजायेगा

रविवार है
मौन रखेगा
शांति से
छुट्टी मनायेगा

'चर्चामंच' वालो से
निवेदन किया जायेगा

कोई इस बात की चर्चा
भी वहां नहीं करायेगा

'रविकर' को भी
पता नहीं चलने
दिया जायेगा
देखते हैं आज कैसे
दिल्लगी कर पायेगा

सोमवार से शनिवार
पता रहता है
कोई यहां
देखने नहीं आयेगा

रविवार को कम से कम
बेवकूफ नहीं बन पायेगा

'ऊँ शाँति ऊँ शाँति
शाँति शाँति ऊँ'
वाला कैसेट बजा के
सबको सुनाया जायेगा

एक दिन के लिये
ब्लाग 'उलूक टाईम्स'
में ताला 'हैरीसन' का
लगाया ही जायेगा।