उलूक टाइम्स: घबरा
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शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

घबरा सा जाता है गंदगी लिख नहीं पाता है

कितनी अजीब  
सी बात है
अब है तो है
अजीब ही सही
सब की बाते
एक सी भी तो
नहीं हो सकती
हमेशा ही
कोई खुद
अजीब होता है
उसकी बातों में
लेकिन बहुत
सलीका होता है
कोई बहुत
सलीका दिखाता है
बोलना शुरु होता है
तो अजीब पना
साफ साफ चलता
हुआ सा दिख जाता है
किसी के साथ
कई हादसे ऐसे
होते ही रहते हैं
वो नहीं भी
सोचता अजीब
पर बहुत से लोग
उसे कुछ अजीब
सोचने पर
मजबूर कर देते हैं
थोड़ा अजीब ही
सही पर कुछ अजीब
सा सभी के
पास होता ही है
गंदगी भी होती है
सब कुछ साफ
जो क्या होता है
पर साफ सुथरे
कागज पर जब
कोई कुछ टीपने
के लिये बैठता है तो
गंदगी चेपने की
हिम्मत ही
खो देता है
हर तरफ
सब लोगों के
सफाई लिखे हुए
सजे संवरे कागज
जब नजर आते है
लिखने वाले
के दस्ताने
शरमा शरमी
निकल आते है
अपने आस पास
और अपने अंदर
की गंदगी से
बचे खुचे सफाई
के कुछ टुकड़े
ढूंढ लाते है
सब सब की
तरह लिखा
जैसा हो जाता है
रोज सफाई
लिखने वाले को
तो बहुत सफाई से
लिखना आता है
पर ‘उलूक’ के लिखे
के किनारे में कहीं
एक गंदगी का धब्बा
उस पर खुल कर
ठहाके लगाना
शुरू हो जाता है ।

रविवार, 10 नवंबर 2013

सोच तो होती ही है सोच

अपनी अपनी
होती है सोच

सुबह होते
अंगडाई सी
लेती है सोच

सुबह की
चाय के कप
से निकलती
भाप होती
है सोच

दूध की
दुकान की
लाईन में
हो रही
भगदड़
से उलझ रही
होती है सोच

दैनिक
समाचार
पत्रों के प्रिय
हनुमानों की
हनुमान
चालीसा
पढ़ रही
होती
है सोच

काम पर
जाने के
उतावले पन
में कहीं
खो रही
होती है सोच

दिन
होते होते
पता नहीं क्यों
बावली हो रही
होती है सोच

कहां कहां
भटक रही
होती है
बताने
की बात
जैसी नहीं हो
रही होती है सोच

शाम
होते होते
जैसे कहीं
कुछ खुश
कहीं
कुछ उदास
कहीं
कुछ थकी
कहीं
कुछ निराश
हो रही
होती है सोच

जब घर
को वापस सी
लौट रही
होती है सोच

रात
होते होते
ये भी होता है
जैसे किसी की
किसी से
घबरा रही
होती है सोच

कौन
बताता है
अगर बौरा रही
होती है सोच

सुकून
का पल
बस वही होता है

जब यूं ही
उंघते उंघते
सो जा रही
होती है सोच

पता किसे
कहाँ होता है
सपनों में क्या
आज की रात
दिखा रही है सोच

मुझे
अपनी समझ
में कभी भी
नहीं आती

क्या
तुझे समझ
में कुछ आ
रही है सोच ।