उलूक टाइम्स: परदे
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शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

‘उलूक’ अच्छा है रात के अँधेरे में देखना दिन में रोशनी को पीटने से

 

सारी खिडकियों पर परदे खींच लेना
और देख लेना
कहीं किसी झिर्री से
घुसने की कोशिश ना कर रही हो रोशनी

फिर इत्मीनान से बैठ कर
उजाले पर एक कविता लिखना

लिखना
बंद कर के किताबें सारी
कोई एक किताब

जिसके सारे पन्नो पर लिखा हो हिसाब
हिसाब ऐसा नहीं
जिसे समझना हो किसी को
हिसाब ऐसा ना हो
जिससे पता चल रहा हो
खर्च किये गए रुपिये पैसे
या हिसाब
किसी रेजगारी को नोटों में बदलने का

वो सब लिख देना
जिसे किसी ने कहीं भी
नजरअंदाज कर देना हो पढ़ लेने से

साथ में लिखना 
कुछ प्रश्न खुद से पूछे गए
जिसका उत्तर पता नहीं हो किसी को भी

ऐसी सभी बातें 
नोट कर लेना किसी नोट बुक में
और जमा करते चले जाना

सूरज पर लिखना चाँद पर लिखना
तारों और गुलाब पर लिखना
नशे पर लिखना शराब पर लिखना

खबरदार
वो कुछ भी कहीं मत लिखना
जो हो रहा हो तेरे आसपास
तेरे घर में तेरे पड़ोस में
तेरे शहर में तेरे जिले में तेरे प्रदेश में
और तेरे बहुत बड़े से
रोज का रोज और बड़े हो रहे देश में

रोज लिखना 
लाल गुलाब हरे पेड़ सुनहरे सपने
या
कुछ गुलाबजामुन
या
कुछ भी ऐसा
जो भटका सके लिखने को
लेखकों को 
और छापने वालों को
उस सब पर
जो लिखा हुआ हो इधर उधर किधर किधर
गली गली शहर शहर

‘उलूक’ रातें अच्छी होती हैं
और वो आँखें भी
जो रात के अन्धेरें में
कोशिश करती है देखने की रोशनी
उन सब से
जो दिन के उजाले में रोशनी पीटते हैं |

चित्र साभार:  https://www.gettyimages.in/


शनिवार, 22 अगस्त 2020

हम लोगों की छवि बनाते हैं लोगों के बारे में लोगों को घर घर जा जा कर समझाते हैं

 
हजूर आप करते क्या हैं

हम करते तो हैं कुछ
लेकिन उस करने का बस वेतन खाते हैं 

बाकि काम बहुत हैं
धन्धों के अंदर के कुछ धन्धों की बात बताते हैं

पता नहीं समझेंगे भी या नहीं
हम लोगों की छवि बनाते हैं
फिर उसे सारे समाज में फैलाते हैं 

वो बात अलग है
अपने घर के सारे आईने
कपड़े में लपेट कर नदी में बहा आते हैं 

हमें अपना चेहरा याद नहीं रहता है
हम सामने वाले का चेहरा चेहरों को याद दिलाते हैं 

समाज नहीं देखता है हमें
हराम की खाते हुऐ सालों साल तक 
हम काम में लगे हुऐ किसी भी आदमी को
हराम का खा रहा है की कहानी का नायक बनवाते हैं 

जमाना हम से चल रहा है
हम जमाने को चलाते हैं 
हम से नहीं चल पाता है जो भी
उसका चलना फिरना बन्द करवाते हैं 

हमारी फोटो अखबार वाले
हमारे घर से ले जाते हैं
सुबह की खबर हम ही छपवाते हैं 
शाम होते ही साथ बैठते हैं हम और वो
काँच के कुछ गिलास टकराते हैं 

बदनाम हम नहीं हो सकते हैं कभी भी
हम बदनाम करवाते हैं 
धन्धे कहाँ बन्द हो रहें हैं हजूर
हम धन्धों के अन्दर भी धन्धे पनपाते हैं 

‘उलूक’ तू लिख और लिख कर इधर उधर चिपका 
हम तेरे जैसे एक नहीं
कई की अपने हिसाब से छवि बना कर
दीवार दीवार चिपकाते हैं 

हम छवि बनाते हैं
हम छवि बना बना कर फैलाते हैं
खुली आँखों पर परदे डलवा कर उजाला बेच खाते हैं । 

चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com/

ulooktimes.blogspot.com २३-०८-२०२०

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शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

मान भी जाया कर इतना मत पकाया कर

अब
अगर
उल्टी
आती है
तो कैसे
कहें उससे
कम आ

पूरा मत
निकाल
थोड़ा सा
छोटे छोटे
हिस्सों में ला

पूरा निकाल
कर लाने का
कोई जी ओ
आया है क्या

कुछ पेट में भी
छोड़ कर आ

लम्बी कविता
बन कर के क्यों
निकलती है
कुछ क्षणिंका
या हाईगा
जैसी चीज
बन के आ जा

अब अगर
कागज में
लिखकर
नहीं होता हो
किसी से
हिसाब किताब
तो जरूरी
तो नहीं ऎसा
कि यहाँ आ आ
कर बता जा

अरे कुछ
बातों को रहने
भी दिया कर
परदे में
बेशर्मों की
तरह घूँघट
अपना उधाड़
के बात बात
पर मत दिखा
रुक जा

वहाँ भी कुछ
नहीं होने वाला
यहाँ भी कुछ
नहीं होने वाला
नक्कार खाने
में कितनी भी
तूती तू बजाता
हुआ चले जा

इस से
अच्छा है
कुछ अच्छी
सोच अपनी
अभी भी
ले बना

मौन रख
बोल मत
शांत हो

अपना भी
खुश रह
हमको भी
कभी चाँद
तारों सावन
बरसात
की बातों
का रस
भी लेने दे

बहुत
पका लिया
अब जा ।