उलूक टाइम्स: वेतन
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शनिवार, 22 अगस्त 2020

हम लोगों की छवि बनाते हैं लोगों के बारे में लोगों को घर घर जा जा कर समझाते हैं

 
हजूर आप करते क्या हैं

हम करते तो हैं कुछ
लेकिन उस करने का बस वेतन खाते हैं 

बाकि काम बहुत हैं
धन्धों के अंदर के कुछ धन्धों की बात बताते हैं

पता नहीं समझेंगे भी या नहीं
हम लोगों की छवि बनाते हैं
फिर उसे सारे समाज में फैलाते हैं 

वो बात अलग है
अपने घर के सारे आईने
कपड़े में लपेट कर नदी में बहा आते हैं 

हमें अपना चेहरा याद नहीं रहता है
हम सामने वाले का चेहरा चेहरों को याद दिलाते हैं 

समाज नहीं देखता है हमें
हराम की खाते हुऐ सालों साल तक 
हम काम में लगे हुऐ किसी भी आदमी को
हराम का खा रहा है की कहानी का नायक बनवाते हैं 

जमाना हम से चल रहा है
हम जमाने को चलाते हैं 
हम से नहीं चल पाता है जो भी
उसका चलना फिरना बन्द करवाते हैं 

हमारी फोटो अखबार वाले
हमारे घर से ले जाते हैं
सुबह की खबर हम ही छपवाते हैं 
शाम होते ही साथ बैठते हैं हम और वो
काँच के कुछ गिलास टकराते हैं 

बदनाम हम नहीं हो सकते हैं कभी भी
हम बदनाम करवाते हैं 
धन्धे कहाँ बन्द हो रहें हैं हजूर
हम धन्धों के अन्दर भी धन्धे पनपाते हैं 

‘उलूक’ तू लिख और लिख कर इधर उधर चिपका 
हम तेरे जैसे एक नहीं
कई की अपने हिसाब से छवि बना कर
दीवार दीवार चिपकाते हैं 

हम छवि बनाते हैं
हम छवि बना बना कर फैलाते हैं
खुली आँखों पर परदे डलवा कर उजाला बेच खाते हैं । 

चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com/

ulooktimes.blogspot.com २३-०८-२०२०

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रविवार, 29 जून 2014

काम की बात काम करने वाला ही कह पाता है

पहली तारीख को
वेतन की तरह
दिमागी शब्दकोश
भी जैसे कहीं से
भर दिया जाता है
महीने के अंतिम
दिनो तक आते आते
शब्दों का राशन
होना शुरु हो जाता है
दिन भर पकता है
बहुत कुछ
ऊपर की मंजिल में
पर शाम होते ही
कुछ कुलबुलाना
शुरु हो जाता है
इसीलिये शायद
अपने आप को
अच्छी बातों में
व्यस्त रखने को
कहा जाता है
सूखे हुऐ पेड़ के
ठूँठ पर बैठे हुऐ
‘उलूक’ से कुछ भी
नहीं हो पाता है
पता नहीं किस तरह
की बेरोजगारी ने
जकड़ा हुआ है उसे
हर शख्स के चेहरे में
उसे एक आईना
लगा हुआ दूर से
ही नजर आता है
कुछ कहने ना कहने
की बात ही नहीं उठती
देखने के लिये उसे
अपना ही चेहरा
बस नजर आता है
हर शाख पै उल्लू बैठा है
किसलिये और क्यों
कहा जाता है
इस बात को इसी तरह
वो बहुत अच्छी तरह
से समझ पाता है
शाम होते होते
दिन भर के पकाये
हुऐ कुछ कुछ में से
कुछ यहाँ बियाबान में
परोसने के लिये
चला आता है
वैसे भी एक ही जैसी
चीजों को दिन भर
देख देख कर कोई भी
बोर हो जाता है
कहते हैं माहौल
बदलने से थोड़ा सा
मूड भी हल्का
हो ही जाता है ।

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

कौन जानता है किस समय गिनती करना बबाल हो जाये

गिनती करना
जरूरी नहीं हैं
सबको ही आ जाये
कबूतर और कौऐ
गिनने को अगर
किसी से कह
ही दिया जाये
कौन सा बड़ा
गुनाह हो गया
अगर एक कौआ
कबूतर हो जाये
या एक कबूतर की
गिनती कौओं
मे हो जाये
कितने ही कबूतर
कितने ही कौऔं को
रोज ही जो देखता
रहता हो आकाश में
इधर से उधर उड़ते हुऐ
उससे कितने आये
कितने गये पूछना ही
एक गुनाह हो जाये
सबको सब कुछ
आना भी तो
जरूरी नहीं
गणित पढ़ने
पढ़ाने वाला भी
हो सकता है कभी
गिनती करना
भूल जाये
अब कोई
किसी और ज्ञान
का ज्ञानी हो
उससे गिनती
करने को कहा
ही क्यों जाये
बस सिर्फ एक बात
समझ में इस सब
में नहीं आ पाये
वेतन की तारीख
और
वेतन के नोटों की
संख्या में गलती
अंधा भी हो चाहे
भूल कर भी
ना कर पाये
ज्ञानी छोड़िये
अनपढ़ तक
का सारा
हिसाब किताब
साफ साफ
नासमझ के
समझ में
भी आ जाये !

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

निविदा खुलने का समय है आया

दस सालों तक
कुछ ना किया हो
बस घर में बैठ के
वेतन लिया हो
ऎसा अनुभव
नहीं बटोर पाया
निविदा निकली थी
अखबारों में
सर्वोच्च पद के लिये
मुझ पति ने
उस पति के आसन
तक पहुँचने का
हाय बहुत सुंदर मौका
यूँ ही है गँवाया
निविदा के कितने
सील बंद लिफाफे
हो चुके हैं जमा
राज्यपिता के संदूक में
अभी तक राज ये
नहीं है खुल पाया
मुख्यमंत्री अब जब
भारी मतों से है
जीत कर आया
आशा जगी है
'ए' क्लास आवेदकों में
जिसने अपना भाग्य
लिफाफे में है
बंद करवाया
चुनाव जीत कर
मुख्यमंत्री घोषणा
है कर आया
ना जाति का है
ना क्षेत्र का है
बस है इसी राज्य का
जिसने है उन्हें जिताया
नवनिर्माण की निविदा
तो है नहीं यह
पुराने निर्माण को
खोदने की ताकत
लेकर देखना है
अब कौन है आया
पता भी तब चलेगी
यह बात हमको
कि सबसे बडी़
बोली कौन है
दे कर के आया ।