उलूक टाइम्स: मतदान
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शनिवार, 20 अप्रैल 2024

शाबाश है ‘उलूक’ खबरची की खबर पर वाह कह के मगर जरूर आता है

 

किससे कहें क्या कहें
यहाँ तो कुछ भी समझ में ही नहीं आता है
ढूंढना शुरू करते हैं
जहां कोई भी अपना जैसा नजर नहीं आता है

सोच में तेरी ही कुछ खोट है ऐसा कुछ लगता है
सबका तुझे टेढ़ा देखना बताता है
सामने वाला हर एक सोचता है अपनी सोच
तुझे छोड़ हर कोई तालियाँ बजाता है  

मतदान करने की बातें सब ने की बहुत की
वोट देने की शपथ लेना दिखाता है
लोग घर से ही नहीं निकले जुखाम हो गया था
ऐसे में वोट देने कौन जाता है

परिवार के लोग ही नहीं दिखे
व्यस्त होंगे प्रचार में कहीं
अपना क्या जाता है
मतदान करवाने वालों की मजबूरी थी
कहना ही था ये भी आता है वो भी आता है

खबर मेरी थी मैंने बुलाये थे मीडिया वाले
चाय नाश्ता कराने में क्या जाता  है
छपा बहुत कुछ था घर की फोटो के साथ था
बस मैं ही नहीं था तो क्या हो जाता है

खबर देते हैं
जाने माने खबरची दुनिया जहां की
अपने घर में बैठ कर समझ में आता है

 वाह रे ‘उलूक’
तेरे घर तेरे शहर में हो रहे को तू देखता है
और अपना मुंह छुपाता है

 शाबाश है खबरचियों की ओर से
खबरची की खबर पर
वाह कह के मगर जरूर आता है

चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

अच्छी तरह से समझ लेना अच्छा होता है जब कोई समझा रहा होता है

समझा कर
जब कोई
बहुत प्यार से
कुछ समझा
रहा होता है
बस अच्छे दिन
आने ही वाले हैं
तुझे और बस
तुझे ही केवल
बता रहा होता है
किसके आयेंगे
कब तक आयेंगे
कैसे आयेंगे
नहीं सोचनी
होती हैं ऐसे में
ऐसी बातें जिनको
सुलझाने में
समझने वाला
खुद ही उलझा
जा रहा होता है
देश सबका होता है
हर कोई देश की
खातिर ही अपने
को दाँव पर
लगा रहा होता है
किसको गलत
कहा जा सकता है
ऐसे में अगर
ये इसके साथ
और वो उसके साथ
जा रहा होता है
मतदाता होने का
फख्र तुझे भी
होना ही है कुछ दिन
तक ही सही
बेकार का कुछ सामान
सबके लिये ही बहुत
काम की चीज जब
हो जा रहा होता है
होना वही होता है
कहते हैं जो
राम के द्वारा
उपर कहीं आसमान में
रचा जा रहा होता है
क्या बुरा है
देख लेना ऐसे में
शेखचिल्ली का
एक सपना जिसमें
बहुमत मत देने
वाले का ही
आ रहा होता है
वो एक अलग
पहलू रहा होता है
बात का हमेशा से ही
समझाने वाला
समझाते समझाते
अपने आने वाले
अच्छे दिनों का
सपना समझा
रहा होता है
समझा कर
कहाँ मिलता है
एक समझाने वाला
ये वाला भी
कई सालों बाद
फिर उसी बात को
समझाने के लिये
ही तो आ जा
रहा होता है ।

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

मतदान दूर है

शतरंंज खेलना
हर किसी को
यहाँ कहाँ आता है
फिर भी कोशिश कर
वो एक बिसात
बिछाता है।
काले या सफेद नहीं
मोहरों को दोनो
ओर से चलाता है
हारना नहीं चाहता है
जीतने वाले को
अपना बताता है।
खेल देखने वालों को
कभी भी पता
नहीं चल पाता है
वो कब इधर और
कब उधर पाला
बदल चला जाता है।
लेकिन किस्मत और
उपर वाले के खेल
को कौन भांप
कभी पाता है
जब अचानक
बिसात का एक
मोहरा अपनी
चाल खुद ब खुद
चलता चला
जाता है
बहुत लम्बा
कितना भी
लम्बा खेल
खेलने वाला
क्यों न हो
अपनी ही
चाल में एक बार
कभी कभी
फंस ही जाता है।