उलूक टाइम्स

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

खुद को खुद बहुत साफ नजर आ रहा होता है लिखा फिर भी कुछ नहीं जा रहा होता है

सब को पता होता है
आसान नहीं होता है
खुद ही लिख लेना
खुद को और दे देना
पढ़ने के लिये किसी
दूसरे या तीसरे को

सब लिखना जानते हैं
लिखते भी हैं

कुछ कम लिखते हैं
कुछ ज्यादा लिखते है
कुछ इसको लिखते हैं
कुछ उसको लिखते हैं

खुद को लिखने की
कितने सोचते हैं
पता नहीं पर
कहीं पर खुद को
लिखते हुऐ
नहीं दिखते हैं

लिखा हुआ
बहुत कुछ होता है
दिखता है
कहा हुआ भी
कम नहीं होता है
सुनाई पड़ता है

खुद पर खुद का
उसमें कितना
कितना होता है
उसे निकाल कर
मापने का कोई
मीटर नहीं होता है

कोई सोचता है
या नहीं पता नहीं
पर कई बार
मन करता है
लिख दिया जाये
सब कुछ

फिर सोच में आता है
कौन पढ़ेगा वो सब
जो किसी के भी
पढ़ने के मतलब
का नहीं होता है

अच्छा होता है
सबका अपना
खाना अपना
पीना होता है

क्या कम नहीं
होता है इस सब
के बावजूद
इसका और
उसका पढ़
लेने का समय
कोई निकाल लेता है

खुद का खुद ही
पढ़ा लिखा जाये
वही सबसे अच्छा
रास्ता होता है

खुदी को कर
बुलंद इतना
खुदा ने यूँ ही
बेकार में नहीं
कहा होता है

खुद पर लिखे पर
खुद से वाह वाह
भी कोशिशों के
बावजूद जब नहीं
कहा जा रहा होता है

उस समय ये
समझ में बहुत
अच्छी तरह आ
रहा होता है

खुद को पढ़वाने
का शौक रखने वाला
हमेशा खुद को
किसी और से ही
क्यों लिखवा
रहा होता है ।

चित्र साभार: http://www.clker.com/

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

'मोतिया’ तू जा चुका था देर से पता चला था कल नहीं लिख सका था आज लिख रहा हूँ क्योंकि तुझ पर लिखना तो बहुत ही जरूरी है


ख्वाब देखने में कोई हर्ज भी नहीं है 
ना ही ख्वाब अपना किसी को बताने में 
कोई लिहाज है 

बहुत पुराना है 

आज तेरे जाने के बाद चूँकि 
आ रहा कुछ याद है 

मैंने जब जब तुझे देखा था 
मुझे कुछ हमेशा ही लगा था 
कि जैसे कोई ख्वाब देखना चाहिये 
और जो बहुत ही जरूरी भी होना चाहिये 

जरूरी जैसे तू और तेरा आना शहर को 
और शहर से वापस अपने गाँव को रोज का रोज
चला जाना बिना नागा 

हमेशा महसूस होता था जैसे 
तुझे यहाँ नहीं कहीं और होना चाहिये था 

जैसे कई लोग पहुँच जाते है 
कई ऐसी जगहों पर 
जहाँ उन्हें कतई नहीं होना चाहिये 

तू भी तो इंटर पास था 
मंत्री वो भी उच्च शिक्षा का 
सोचने में क्या जाता है 

और सच में 

मैंने सच में कई बार 
जब तू सड़क पर बैठा 
अखबार पढ़ रहा होता था 
बहुत गहराई से इस पर सोचा था 

जो लोग तुझे जानते थे या जानने का दावा करते थे
उनकी बात नहीं कर रहा हूँ 

मैं अपनी बात कर रहा हूँ 

तू भी तो मेरा जैसा ही था 
जैसा मैं रोज कुछ नहीं करता हूँ 

तेरी दिनचर्या मेरी जैसी ही तो होती थी हमेशा से 

रोज तेरा कहीं ना कहीं शहर की किसी गली में मिलना 

तेरी हंसी तेरा चलने का अंदाज 
सब में कुछ ना कुछ अनोखा 
तू बुद्धिजीवी था 
ये मुझे सौ आना पता था 

अफसोस 
मैं सोच सोच कर भी नहीं हो पाया कभी भी 
और अभी भी मैं वहीं रह गया 

तू उठा उठा 
और उठते उठते 
कहाँ से कहाँ पहुँच गया 

तेरे चले जाने की खबर देर से मिली 

जनाजे में शामिल नहीं हुआ 
अच्छा जैसा नहीं लगा 

कोई नहीं 
तू जैसा था सालों पहले वैसा ही रहा 
और वैसा ही उसी तरह से 
इस शहर से चला गया 
हमेशा के लिये 

तेरी कमी खलेगी 
जब रोज कहीं भी किसी गली में 
तू नहीं मिलेगा 

पर याद रहेगा 

कुछ लोग सच में बहुत दिनों तक याद रह जाते हैं 

हम उनकी श्रद्धाँजलि सभा नहीं भी कराते हैं 
शहर के संभ्रांत लोगों की भीड़ में 
तब भी । 

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

धीरे से लाईन के अंदर चले जाना बस वहीं का रहता है मौसम आशिकाना

साल भी चौदहवां
दिन भी चौदहवा
दसवीं बार आ गया
फिर इस बार
दो बार और आयेगा
अब चौदहवाँ महीना
तो होता नहीं है जो
चौदाह चौदाह चौदाह
भी हो जायेगा
दिमाग लगाने की
जरूरत नहीं है
इस सब में
ये तो बस बात
शुरु करने को एक
शगूफा छोड़ना है
और जो दिमाग है
बस आज वही कुछ
यहाँ नहीं कहना है
इसलिये ऐसा
कह दिया है
नहीं तो कहने को
वैसे भी बहुत
कुछ होता है
भिखारी की फटी
झोली में तक
फिर भी कौन
नजर डालता है
अंदर कुछ नहीं
भी होता है और
बहुत कुछ
होता भी है
सड़क में लाईन
के पीछे या आगे
या बीच में कहीं भी
रहने की आदत
नहीं होने से
यही सब होता है
सब के लिये
सब कुछ सही
होते हुऐ भी
लाईन से बाहर
सड़क के किनारे से
दूर चलने वाले
की तरह काम की
बातें छूट जाती हैं
बाहर से बहुत सी
चीजें नजर आना
शुरु हो जाती हैं
अभी भी सुधर जा
सब की तरह
किसी भी बात को
बुरा मत बता
वो सब जो
हो रहा होता है
सही हो रहा होता है
क्योंकि वो
हो रहा होता है
चैन से चैन लिखने
की भी सोच
बैचेन आत्मा की
तरह खुद को मत नोच
लाईन में चला जा
कहीं से भी
कभी भी
हाँ में हाँ मिला
गाना गा पर
बस झूम बराबर
झूम तक ही
ये नहीं कि
शराबी भी हो जा
चल अब सुधर जा
सड़क होती है
चलने के लिये
किनारे के मोह से
बाहर निकल आ
लिखने को कोई
 मना नहीं कर रहा है
अंदर जा कर देख
लाईन वाला
हर कोई तेरे से
बहुत अच्छा
लिख रहा है ।

चित्र साभार: http://www.clipartof.com/

सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

कोई नहीं कोई गम नहीं तू भी यहीं और मैं भी यहीं



साल के दसवें
महीने का
तेरहवाँ दिन

तेरहवीं नहीं
हो रही है कहीं

हर चीज
चमगादड़
नहीं होती है
और उल्टी
लटकती
हुई भी नहीं


कभी सीधा भी
देख सोच
लिया कर

घर से
निकलता
है सुबह

ऊपर
आसमान में
सूरज नहीं
देख सकता क्या

असीमित उर्जा
का भंडार
सौर उर्जा
घर पर लगवाने
के लिये नहीं
बोल रहा हूँ

सूरज को देखने
भर के लिये ही
तो कह रहा हूँ

क्या पता शाम
होते होते सूरज के
डूबते डूबते
तेरी सोच भी
कुछ ठंडी हो जाये

और घर
लौटते लौटते
शाँत हवा
के झौकों के
छूने से
थोड़ा कुछ
रोमाँस जगे
तेरी सोच का

और लगे तेरे
घर वालों को भी
कहीं कुछ गलत
हो गया है

और गलत होने
की सँभावना
बनी हुई है
अभी भी
जिंदगी के
तीसरे पहर से
चौथे पहर की
तरफ बढ़ते हुऐ
कदमों की

पर होनी तो तेरे
साथ ही होती है
‘उलूक’
जो किसी को
नहीं दिखाई देता
किसी भी कोने से
तेरी आँखे
उसी कोने पर
जा कर रोज
अटकती हैं
फिर भटकती है

और तू
चला आता है
एक और पन्ना
खराब करने यहाँ

इस की
भी किस्मत
देश की तरह
जगी हुई
लगती है ।

चित्र साभार: http://www.gograph.com/

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

पुराने फटे कपड़े के दो टुकड़े कर दो नये करने वाले हैं

एक पुरानी दीवार के पलस्तर को ढकने वाले हैं पुराने फटे कपड़े के दो टुकड़े कर दो नये करने वाले हैं    
संदर्भ: कुमाऊँ विश्वविद्यालय





खबर
हवा में 
हो तो

खुश्बू 


खुश्बू?
कहना 
ठीक नहीं 

गंध कहना 
सही रहेगा 

सड़ी गली 
चीजों के साथ 
रहते उठते बैठते
आदत 
हो जाती है 

और दुर्गंध भी 
किसी के लिये 
एक सुगँध हो जाती है 
अपनी अपनी नाक से
अपने अपने हिसाब से सूँघना 

हाँ तो
मैं 
कहते कहते 
गंध पर ही अटक गया 

क्या क्या नहीं 
होता है
अपने ही 
आस पास भी 
अटकने के लिये 
ध्यान बंट ही जाता है 

खबर की गंध थी 
आज आ भी गई 
टी वी में अखबार में 
जगह जगह के समाचार में 

एक फटे पैबंद से 
पट चुके कपड़े के 
दिन फिर से फिरने वाले हैं 
सरकार तैयार हो गई है 
दो टुकड़े करके इधर उधर के 
दो चार फटे कपड़ों के साथ
जोड़ जुगाड़ 
कर फिर से 
सिलने वाले हैं 

जिसे नया कपड़ा 
कह कर
उसी 
पुराने नंगे बदन को
फिर से 
ढकने वाले हैं 

जिसके कपड़े 
एक बार फिर से 
आजादी के साठ दशकों के बाद 
काट छाँट करने के लिये
जल्दी 
उतरने वाले हैं 

बहुत खुश हैं 
खुश होने वाले 
लिखने वाले का काम है लिखना 
एक दो पन्ने ‘उलूक’ के 
बही खाते में गीले आटे को 
पोत पात कर चिपकने वाले हैं 

चीटीं ने कौन 
सा उड़ना है 
अगर दिखे भी सामने सामने से 
उसके बदन पर पर निकलने वाले हैं 

जुगाड़ियों का 
क्या जुगाड़ है 
इस सब के पीछे 
क्या सोचना 

जुगाड़ियों के 
दिन फिरते रहते हैं 
जुगाड़ो से एक बार शायद
और भी 
फिरने वाले हैं 

भौंचक्का क्यों 
होता है सुन कर 
अच्छे दिन देश के लिये ही जरूरी नहीं हैं 

एक फटे कपड़े के 
भी दिन फिरने वाले हैं । 

चित्र साभार: http://www.123rf.com/