उलूक टाइम्स: खराब
खराब लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
खराब लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 27 जुलाई 2020

खराब समय और फूटे कटोरे समय के थमाये सब को सब की सोच के हिसाब से रोना नहीं है कोई रो नहीं सकता है



समय खराब है बहुत खराब है 

इतना खराब है 
इससे खराब होगा 
कहे बिन कोई रह नहीं सकता है

 खासियत है 
इस खराब समय की
जैसा है ऐसा
कई दशकों तक फिर कभी होगा
पक्का
कोई कह नहीं सकता है

 कुछ हो ना हो
हर किसी के पास इस समय
समय का दिया
किसी ना किसी तरह का
एक फूटा कटोरा है
जो कभी
चोरी हो नहीं सकता है

 किसी कटोरे में भूख है
किसी कटोरे में प्यास है
किसी कटोरे में आस है
किसी कटोरे में विश्वास है

पर है
सबके पास है
एक कटोरा 
है 
जिसे कोई
किसी हाल में भी
खो नहीं सकता है

किसी छोटे का छोटा 
है तो
किसी बड़े का इतना बड़ा 
है कि
सारे कटोरे उस में समा जायें

कटोरों का
ऐसा दुर्लभ महासम्मेलन
फिर कब हो

ऐसा मौका कटोरे वाला खो नहीं सकता है

ज्ञानी समझा रहे हैं
ज्ञानियों की मजबूरी भी है
ज्ञान बाँटना

ना बाँटें
तो खुद उनका ज्ञान
छलकना शुरु हो जाये

सम्भालना ही
 मुश्किल हो जाये
उनको ही गजबजाये

यहाँ वहाँ
खेत खलिहान सड़क मैदान
ज्ञान से लबालब हो जायें

ज्ञान की बाढ़ में
ज्ञानी डूब कर मर खप जायें

मुश्किल ये है
कि
छलछलाता छलबलाता ज्ञान
किसी तरह
थोड़ा सा हर कटोरे में चला जाये

हर किसी के पास
कुछ हो जाये

और आते आते रह गया
अच्छा समय
हौले से धीरे से पास आकर

कटोरे लिये हुओं को खटखटाये

तैयार रहें फिर से आ रहा हूँ
 कटोरा ले कर
इस बार भी दें एक मौका और

याद करते हुऐ
कटोरे में कटोरा
बेटा बाप से भी गोरा

‘उलूक’
ठंड रख मान भी जा
तेरा कुछ नहीं हो सकता है

अपना कटोरा
सम्भाल के किसलिये रखता है
फूटा कटोरा है
चोरी हो नहीं सकता है ।

चित्र साभार: https://blair.holliefindlaymusic.com/

सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

कोई नहीं कोई गम नहीं तू भी यहीं और मैं भी यहीं



साल के दसवें
महीने का
तेरहवाँ दिन

तेरहवीं नहीं
हो रही है कहीं

हर चीज
चमगादड़
नहीं होती है
और उल्टी
लटकती
हुई भी नहीं


कभी सीधा भी
देख सोच
लिया कर

घर से
निकलता
है सुबह

ऊपर
आसमान में
सूरज नहीं
देख सकता क्या

असीमित उर्जा
का भंडार
सौर उर्जा
घर पर लगवाने
के लिये नहीं
बोल रहा हूँ

सूरज को देखने
भर के लिये ही
तो कह रहा हूँ

क्या पता शाम
होते होते सूरज के
डूबते डूबते
तेरी सोच भी
कुछ ठंडी हो जाये

और घर
लौटते लौटते
शाँत हवा
के झौकों के
छूने से
थोड़ा कुछ
रोमाँस जगे
तेरी सोच का

और लगे तेरे
घर वालों को भी
कहीं कुछ गलत
हो गया है

और गलत होने
की सँभावना
बनी हुई है
अभी भी
जिंदगी के
तीसरे पहर से
चौथे पहर की
तरफ बढ़ते हुऐ
कदमों की

पर होनी तो तेरे
साथ ही होती है
‘उलूक’
जो किसी को
नहीं दिखाई देता
किसी भी कोने से
तेरी आँखे
उसी कोने पर
जा कर रोज
अटकती हैं
फिर भटकती है

और तू
चला आता है
एक और पन्ना
खराब करने यहाँ

इस की
भी किस्मत
देश की तरह
जगी हुई
लगती है ।

चित्र साभार: http://www.gograph.com/

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

आदत खराब है कह दिया मत कह देना बस समझ लेना

गरीबों पर किया
जायेगा फोकस
एक दैनिक
समाचार पत्र के
मुख्य पृष्ठ पर
छपा आज का
मुख्य समाचार
और साथ में
फोकस करने
कराने वाले
जनता के सेवक
की तस्वीर से
जब हुआ सामना
एक एक करके
घूमने लगे
जनता के सेवक
अपने घर के
मौहल्ले के शहर के
राज्य और देश के
लिये हाथ में
एक एक मोटा लेंस
जिसके एक तरफ
प्रचंड सूरज और
दूसरी तरफ गरीब
फोकस होता हुआ
और उसके बाद
बनता हुआ
धीरे धीरे
कुछ धुआँ
कुछ कुछ धुँधलाते
धुँधलाते कुछ
जब साफ हुआ
कुछ भी नहीं दिखा
समझ में आने लगा
काम हुआ और
साथ ही साथ
तमाम भी हुआ
एक पंथ दो काज
का उदाहरण देना
बहुत आसान हुआ
ना गरीबी रही
ना गरीब रहा
वाकई जनता के
सेवकों की दूरदृष्टि
ने कुछ मन मोहा
दाल चावल सब्जी
मिलने के बाद
भी जिसने उसे
बिल्कुल नहीं छुआ
रख दिया सम्भाल
कर भविष्य के लिये
बस कुछ तड़का ही
अपने काम के
लिये रख लिया
गरीब की गरीबी
पर फोकस करने
का एक आसान
सा रास्ता ही चुना
हींग लगी ना
फिटकरी और
रंग भी चोखा
सामने सामने बना
गरीब पर फोकस
या फोकस पर गरीब
सिक्का ना इधर गिरा
ना उधर ही गिरा
जनता ने ही
जनता के लिये
जनता के द्वारा
सिक्का खड़ा करने
का संकल्प लेने
का रास्ता फिर से
एक बार चुना
कोई भी चुन
कर आये
दिखा साफ साफ
गरीब पर ही
लगना है इस
बार भी चूना
ठीक नहीं हैं
आसार और
गरीब के फिर से
फोकस पर होना ।

बुधवार, 25 सितंबर 2013

अपने कैलेंडर में देख अपनी तारीख उसके कैलेंडर में कुछ नया नहीं होने वाला है

रोज एक कैलेंडर
नई तारीख का
ला कर यहां लटका
देने से क्या कुछ
नया होने वाला है
सब अपने अपने
कैलेंडर और तारीख
लेकर अपने साथ
चलने लगे हैं आजकल
उस जगह पर तेरे
कैलेंडर को कौन देखेने
आने वाला है
अब तू कहेगा तुझे
एक आदत हो गई है
अच्छी हो या खराब
किसी को इससे
कौन सा फर्क जो
पड़ने वाला है
परेशानी इस बात
की भी नहीं है
कहीं कोई कह रहा हो
दीवार पर नये साल पर
नया रंग होने वाला है
जगह खाली पड़ी है
और बहुत पड़ी है
इधर से लेकर उधर तक
जहां जो मन करे जब करे
लटकाता कोई दूर तक
अगर चले भी जाने वाला है
सबके पास हैं बहुत हैं
हर कोई कुछ ना कुछ
कहीं ना कहीं पर
ला ला कर
लटकाने वाला है
फुरसत नहीं है किसी को
जब जरा सा भी कहीं
देखने कोई किसी और का
कैलेंडर फिर क्यों कहीं
को जाने वाला है
अपनी तारीख भी तो
उसी दिन की होती है
जिस दिन का वो एक
कैलेंडर ला कर यहां
लटकाने वाला है
मुझे है मतलब पर
बस उसी से है जो
मेरे कैलेंडर की तारीख
देख कर अपना दिन
शुरु करने वाला है |

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

आदत अगर हो खराब तो हो ही जाती है बकवास


मैंने
तो सोचा था 
आज तू नहीं आयेगा 

थक
गया होगा 
आराम करने को 
कहीं दूर चला जायेगा 

चार सौ पन्ने 
भर तो चुका है 
अपनी बकवासों से 

कुछ
रह नहीं गया 
होगा
बकाया तेरे पास 
शायद तुझसे अब
कुछ 
नया नहीं कहा जायेगा 

ऎसा
कहाँ हो पाता है 

जब
कोई कुछ भी 
कभी भी कहीं भी 
लिखना शुरु जाता है 

कहीं
ना कहीं से 
कुछ ना कुछ 
खोद के लिखने के 
लिये ले आता है 

अब
इतना बड़ा देश है 
तरह तरह
की भाषाऎं 
हैं बोलियाँ हैं 

हर
गली मोहल्ले के 
अपने तीज त्योहार हैं 

हर गाँव
हर शहर की 
अपनी अपनी  
रंगबिरंगी टोलियाँ हैं 

कोई
देश की बात
को 
बडे़ अखबार तक 
पहुँचा ले जाता है 

सारे
अखबारों का 
मुख्य पृष्ठ उस दिन 
उसी खबर से पट जाता है 

पता
कहाँ कोई 
कर पाता है

कि 
खबर
वाकई में 
कोई एक
सही ले 
कर यहाँ आता है 

सुना
जाता है 
इधर के
सबसे 
बडे़ नेता
को
कोई 
बंदर कह जाता है 

बंदर
की टीम का 
कोई एक सिकंदर 

खुंदक में 
किसी को फंसाने के लिये 
सुंदर सा प्लाट बना ले जाता है 

उधर
का बड़ा नेता 
बंदर बंदर सुन कर
डमरू
बजाना 
शुरु हो जाता है 
साक्षात
शिव का 
रुप हो जाता है 
तांडव
करना 
शुरु हो जाता है 

अब
ये तो बडे़ 
मंच की
बड़ी बड़ी 
रामलीलाऎं होती है 

हम जैसे
कूप मंडूकों 
से
इस लेवल तक 
कहाँ पहुँचा जाता है 

हमारी
नजर तो 
बडे़ लोगों के 
छोटे छोटे चाहने 
वालों तक ही पहुंच पाती है 

उनकी
हरकतों को 
देख कर ही हमारी इच्छाऎं
सब हरी 
हो जाती हैं 

किसी
का लंगोट 
किसी की टोपी
के 
धूप में सूखते सूखते 
हो गये दर्शन की सोच ही

हमें
मोक्ष दिलाने 
के लिये
काफी 
हो जाती हैं 

सबको पता है 

ये
छोटी छोटी 
नालियाँ ही
मिलकर 
एक बड़ा नाला 

और
बडे़ बडे़ 
नाले मिलकर ही 
देश को डुबोने के लिये
गड्ढा 
तैयार करवाती हैं 

कीचड़ भरे
 इन्ही 
गड्ढों के ऊपर 
फहरा रहे
झकाझक 
झंडों पर ही
लेकिन 
सबकी 
नजर जाकर टिक जाती है 

सपने
बडे़ हो जाते हैं 
कुछ सो जाते हैं कुछ खो जाते हैं 

झंडे
इधर से 
उधर हो जाते हैं 

नालियाँ
उसी जगह 
बहती रह जाती हैं 

उसमें
सोये हुऎ 
मच्छर मक्खी 
फिर से भिनभिनाना 
शुरु हो जाते हैं 

ऎसे में
जो 
सो नहीं पाते हैं 
जो खो नहीं जाते हैं 

वो भी
क्या करें 
'उलूक'
अपनी अपनी 
बकवासों को लेकर 
लिखना पढ़ना शुरु हो जाते हैं । 

चित्र साभार: https://www.quora.com/