साल के दसवें
महीने का
तेरहवाँ दिन
तेरहवीं नहीं
हो रही है कहीं
हर चीज
चमगादड़
नहीं होती है
और उल्टी
लटकती
हुई भी नहीं
कभी सीधा भी
देख सोच
लिया कर
घर से
निकलता
है सुबह
ऊपर
आसमान में
सूरज नहीं
देख सकता क्या
असीमित उर्जा
का भंडार
सौर उर्जा
घर पर लगवाने
के लिये नहीं
बोल रहा हूँ
सूरज को देखने
भर के लिये ही
तो कह रहा हूँ
क्या पता शाम
होते होते सूरज के
डूबते डूबते
तेरी सोच भी
कुछ ठंडी हो जाये
और घर
लौटते लौटते
शाँत हवा
के झौकों के
छूने से
थोड़ा कुछ
रोमाँस जगे
तेरी सोच का
और लगे तेरे
घर वालों को भी
कहीं कुछ गलत
हो गया है
और गलत होने
की सँभावना
बनी हुई है
अभी भी
जिंदगी के
तीसरे पहर से
चौथे पहर की
तरफ बढ़ते हुऐ
कदमों की
पर होनी तो तेरे
साथ ही होती है
‘उलूक’
जो किसी को
नहीं दिखाई देता
किसी भी कोने से
तेरी आँखे
उसी कोने पर
जा कर रोज
अटकती हैं
फिर भटकती है
और तू
चला आता है
एक और पन्ना
खराब करने यहाँ
इस की
भी किस्मत
देश की तरह
जगी हुई
लगती है ।
चित्र साभार: http://www.gograph.com/