उलूक टाइम्स: उल्टी
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सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

कोई नहीं कोई गम नहीं तू भी यहीं और मैं भी यहीं



साल के दसवें
महीने का
तेरहवाँ दिन

तेरहवीं नहीं
हो रही है कहीं

हर चीज
चमगादड़
नहीं होती है
और उल्टी
लटकती
हुई भी नहीं


कभी सीधा भी
देख सोच
लिया कर

घर से
निकलता
है सुबह

ऊपर
आसमान में
सूरज नहीं
देख सकता क्या

असीमित उर्जा
का भंडार
सौर उर्जा
घर पर लगवाने
के लिये नहीं
बोल रहा हूँ

सूरज को देखने
भर के लिये ही
तो कह रहा हूँ

क्या पता शाम
होते होते सूरज के
डूबते डूबते
तेरी सोच भी
कुछ ठंडी हो जाये

और घर
लौटते लौटते
शाँत हवा
के झौकों के
छूने से
थोड़ा कुछ
रोमाँस जगे
तेरी सोच का

और लगे तेरे
घर वालों को भी
कहीं कुछ गलत
हो गया है

और गलत होने
की सँभावना
बनी हुई है
अभी भी
जिंदगी के
तीसरे पहर से
चौथे पहर की
तरफ बढ़ते हुऐ
कदमों की

पर होनी तो तेरे
साथ ही होती है
‘उलूक’
जो किसी को
नहीं दिखाई देता
किसी भी कोने से
तेरी आँखे
उसी कोने पर
जा कर रोज
अटकती हैं
फिर भटकती है

और तू
चला आता है
एक और पन्ना
खराब करने यहाँ

इस की
भी किस्मत
देश की तरह
जगी हुई
लगती है ।

चित्र साभार: http://www.gograph.com/

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

जैसा करेगा वैसा भरेगा, जब नहीं रहेगा तब क्या करेगा?

क्यों
अपने लिये

ओखली
खुद ही
बनाता है

अपना सिर
फिर उसके
अंदर डाल
के आता है

सारे
फिट लोगों
के बीच

अपने को
मिसफिट
जानते बूझते
क्यों बनाता है

जब
देखता है

बिना
रीढ़ की
हड्डियों का
चल रहा है राज

तू
अपनी जबान
की रेल पर

रोक
क्यों नहीं
लगाता है

हर
नया राजा

इस
कलियुग में
पहले वाले राजा से
ताकतवर ही
भेजा जाता है

पहले वाले
राजा के
किये गये
गड्ढों को

जब
वो भी नहीं
पाट पाता है

कोशिश
करता है

गड्ढे को
और
बड़ा
बनाता है


फिर
तेरा स्कूल

एक दिन

पूरा

उसके अंदर

कोई
ना कोई

जरूर घुसा
ले जाता है

फिर
तुझ बेवकूफ

को पता नहीं
क्या हो जाता है

क्यों
थोड़ी
मिट्टी
लेकर
गड्ढे को
पाटने
चला जाता है


समय रहते

किसी

नटवर लाल को

तू भी

गुरू

क्यों नहीं
बनाता है


 माना कि
वेतन तू

अपना खा
ही नहीं पाता है

पर जमाना
ऊपर के 
पैसे
वाले को ही

इज्जत दे पाता है

इस
छोटी सी

बात को
तू क्यों
नहीं
समझ पाता है


देखता नहीं है


तेरे
स्कूल में

तेरे को
क्यों
कोई
मुँह नहीं

कहीं लगाता है

तेरी
सबकी
पैंट में
छेद
दिखाने की

खराब आदत से

हर कोई
परेशान

नजर आता है

किसी को
देखता
है
प्रतिकार

करते हुऎ कभी

जब राजा
उल्टी
बाँसुरी
बजाता है


तरस आता है

चिंता भी होती है
तेरी आदतों पर
मुझको कई बार

ऊपर वाले की

तरफ मेरा हाथ
तेरे लिये ऎसे में
उठ जाता है

क्यों
वो तेरे को

गाँधी के
तीन
बंदरों जैसा
नहीं
बना ले जाता है

जहाँ
निनानवे

लोगों को
कोई
मतलब
नहीं
कुछ
रह जाता है


तू
सौंवा क्यों

अपने को
ऎसे
माहौल में
उखड़वाता है ।