उलूक टाइम्स

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

थोड़े से शब्दों से पहचान हो जाना, बहुत बुरा होता है ‘उलूक’, कवि की पहचान हो कर बदनाम हो जाना

हर गधे के पास एक कहानी होती है 'उलूक'

कल फिर
कविता से
मुलाकात
हो पड़ी

बीच
रास्ते में
पता नहीं
रास्ता रोककर

ना जाने
क्यों
हो रही थी खड़ी

हमेशा ही
कविता से
बचना चाहता हूँ

फिर भी
पता नहीं

कहाँ
जा कर

किस
खराब
घड़ी में

उसी के
आगे पीछे
अगल बगल
कहीं

अपने को
उलझन में
खड़ा पाता हूँ

समझाते
समझाते
थक जाता हूँ
कवि नहीं हूँ

बस
थोड़ा बहुत
लिखना पढ़ना
कर ले जाता हूँ

सीधे सीधे
भड़ास निकालना
ठीक नहीं होता है

चोर के मुँह
चोर चोर कहकर
नहीं लिपट पाता हूँ

डरना भी
बहुत जरूरी है
सरदारों से भी
और उनके
गिरोहों से भी

नये
जमाने के

इज्जतदारों से

किसी तरह

अलग रहकर

अपनी
इज्जत

लुटने से
बचाता हूँ


बख्श
क्यों नहीं
देते होंगे

कवि
और
उनकी
कविताएं

कुछ एक
शब्दों के
अनाड़ी
खिलाड़ियों को

टूट जाते हैं
जिनसे भूलवश

कुल्हड़
भावनाओं
के यूँ ही
बेखुदी
में कभी
करते हुऐ
बेफजूल
इशारों को

पचने में
सरल सी
बातों से होती
बदहजमी को
जरा सा भी
समझ नहीं
पाता हूँ

कविताओं
की भीड़ से

दूर से ही

बस
उनसे नजरें
मिलाना
चाहता हूँ

कविता
अच्छी लगती है

पढ़ भी
ली जाती है

कभी कभी
थोड़ा बहुत
समझ में भी
आ जाती है

मजबूरियाँ
नासमझी की

बड़ी बड़ी
उलझी हुई 
लटें भी
सुलझा
कर कभी

आश्चर्यचकित

भी कर जाती हैं

पता नहीं
‘उलूक’
की
आड़ी तिरछी
लकीरें
बेशरम सी

क्यों
जान बूझ कर
कविताओं
की भीड़ में
जा जाकर
फिर फिर
खड़ी
हो जाती हैं

बहुत
असहज
महसूस
होने लगता है

ऐसे ही में
जब
एक कविता

सड़क
के बीच
खड़ी होकर
कुछ
रहस्यमयी
मुस्कुराहट
के साथ

कवि और
कविताओं
के बहाने

तबीयत
के बारे में
पूछना शुरु
हो जाती है । 


चित्र साभार:
http://www.poetrydonkey.com/

शनिवार, 10 नवंबर 2018

लिखा हुआ रंगीन भी होता है रंगहीन भी होता है बस देखने वाली आँखों को पता होता है

कुछ
रंगीन
लिखना

ज्यादा
ठीक
होता है
शायद

रंगहीन
कुछ
लिखने से

रंग जो
होते ही
नहीं हैं
कहीं भी

वो रंग

जो
बन भी
नहीं पाते हैं

कुछ
रंगों को
आपस में
मिला देने से

किसलिये लिखने ?

आभास
होना
जरूरी है
आभासी
भी हो तब भी

तितलियाँ
मधुमक्खियाँ
भटक जाती हैं
या
ऐसा प्रतीत होता है

कागज के
फूल पत्तियों पर
उतर आती हैं

हो सकता है
चाह कर
जान बूझ कर
करती हों ऐसा

वर्णान्धता
ओढ़ लेना
कहना

या
प्रयोग करना
कुछ
अजीब सा
लगता है

लेकिन
आँखों को

अपने
मन से
अपने
हिसाब से

देख लेना
सिखा दिया
गया होता है

समय
को पता
नहीं होता है

अपने
आस पास
के फूल भी
दिखते हैं

अपने
आस पास
के फूलों पर
मंडराते
भंवरे भी
साफ साफ
नजर आते हैं

हर आँख
फूल देखे
हर आँख
भँवरे पर
उतर जाये
जरूरी
नहीं होता है

रंगीन
समझने
वालों के लिये
हर रंग का
अन्दाज
अलग होता है

‘उलूक’
रात के काले
और
सुबह के
सफेद रंग
के बीच के

काले सफेद
को ही लिख
लेता कभी

रंगहीन
लिखते
चले जाने से

रंगों को
मुँह फेर ही
लेना होता है

वर्णान्ध होना

रोग भी होता है

रंगों से
बेरुखी हो
तो हो लेना भी
बुरा नहीं होता है ।


चित्र साभार: https://www.tolerance.org/

गुरुवार, 8 नवंबर 2018

जरूरी होता है निकालना आक्रोश बाहर खुद को अगर कोई यूँ ही काटने को चला आता है


फेसबुक पर की  गयी किसी की एक टिप्पणी 
“ मन्दिर के स्थान पर अगर कोई अस्पताल की मांग करता है तो वह श्री राम की कृपा से जल्द ही अस्पताल मे भर्ती होकर इसका लाभ ले लेगा”  
पर

कभी कभी

जानवरों के
स्वभाव से भी

बहुत कुछ
सीखा जाता है


अच्छा नहीं होता है

अपनी सीमा से
 बाहर जाकर

जब कोई
भौंक आता है 

आभासी दुनियाँ
 के तीरंदाज

छोड़ते रहते हैं तीर
 अपनी अपनी
माँदों में घुसकर


राम के मन्दिर
बनाने ना बनाने
के नाम पर

हस्पताल में
भर्ती करवा देंगे राम
की गाली
कोई दे जाता है 

समझ में बस
यही नहीं आ पाता है
कि

राम अपना मन्दिर
अपने ही घर में
खुद क्यों नहीं
बनवा पाता है

बन्दर
बहुत पूज्य होते हैं

हनुमान जी के
दूत होते हैं

बन्दर
कह कर
पुकारना
ठीक नहीं

ऐसे
खुराफातियों को 

इस तरह
की गालियाँ

कोई तो
शातिर है
जो इन सड़क छाप
गुण्डों को
 सिखाता है

एक
बच्ची से
माईक पर
गालियाँ
दिलवा रहा था
एक शरीफ कहीं

उसी तरह
की
तालीम पाया

बहस करने
आभासी दुनियाँ में
चला आता है

मन नहीं करता है
भाग लेने का
बहसों में

ऐसे ही
शरीफों
की टोलियों को

शरीफ एक

जगह जगह बैठा कर

कहीं से
उनसे
अपना चिल्लाना

लोगों तक पहुँचाता है

भगवान
पूजने के लिये होता है

हर घर में
बेलाग बेखौफ
पूजा भी जाता है

राजनीति
सब की समझ में आती है

‘उलूक’
हो सकता है
नासमझ हो

लेकिन
इतना भी नहीं
कि

समझ ना पाये

कौन सा कुत्ता
किस गली का

किसके लिये

किसपर
भौंकने
यहाँ
चला आता है ।

चित्र साभार: https://www.graphicsfactory.com



सोमवार, 5 नवंबर 2018

खाजा को खाजा क्यों कहते हैं पूछ कर राजा से ध्यान भटकाते हैं

दिग्विजय जी के 'उलूक' की
पिछली बकबक 
पर पूछे गये प्रश्न का ‘उलूकोत्तर’

आभारी 
रहता है
     हमेशा

‘उलूक’
आप का

आप
आ ही
जाते हैं

बकवास है
मानते भी हैं

फिर भी
उकसाने को

कवि का
तमगा
टिप्पणी में
चिपका ही जाते हैं

खुद ही
प्रश्नों में
उलझे हुऐ
एक प्रश्न
के सर पर

एक फूल
प्रश्न का
आकर
आप भी
चढ़ा जाते हैं

सोचते
भी नहीं
जरा सा भी

राजाओं
की छोटी
रियासतों में
आज भी लोग
आसरा पाते हैं

चरण वन्दना
पूजन करने पर
उनके हालात
सुधारे जाते हैं

राजा
तब भी
राजा होते थे

आज भी
राजा ही होते हैं

बस राजा
कहलाने में
कुछ जतन
कुछ परहेज
कर जाते हैं

रियासतें
तब भी होती थी
किले आज भी
बनाये जाते हैं

पहले
दिखता था
सब कुछ
अपनी
आँखों से

आज
किसी के
आभासी चश्में

प्रसाद मान
आँखों में
चढ़ाये जाते हैं

राजा का
देखा ही
सबको
दिखता है

काज
अपनी आँखों
से दिखा कर
करने वाले ही

राजा
कहलाये जाते हैं

आप भी
सोचिये
कुछ
राज काज की

काहे
खाजा की
चिन्ता में
अपनी नींद
अपना चैन
उड़ाये जाते हैं

घनतेरस
मनाइये मौज से
मंगल कामनाएं
हम ले के आते हैं

खाजा को
खाजा क्यों
कहते हैं पर
काहे ध्यान
भटकाते हैं

राजा का
बाजा सुनिये
गली मोहल्ले
शहर रास्ते
पौं पौं पौं
चिल्लाते हैं

राजा राजा
राग अलापते
राष्ट्रभक्त
होये जाते हैं

काहे
ग़ंगा में
नहाने का
ऐसा शुभ
मौका गवातें है

खाजा
को खाजा
क्यों कहते हैं
सोच सोच कर
सोये जाते हैं ।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com

रविवार, 4 नवंबर 2018

क्यों कह देता होगा कुछ भी लिखे को कविता कोई कवि नहीं करते बकबक लिखते हैं दिमाग पर लगा कर जोर

कैसे
बनती होगी
एक कविता

रस छन्द
और
अलंकार
से
सराबोर

 कैसे
सोचता होगा
एक कवि

क्या
देखता होगा

और
किस दिशा
की ओर

कौन
पढ़ लेता होगा

आँखें
कवि की खोल
मन में अपने

हो लेता होगा
उतना ही विभोर

इन्द्रियाँ
बस में
होती होंगी
किस की इतनी

अवशोषित
कर लेता होगा

जो केवल
संगीत
छान कर
सारे शोर

किस के
पन्ने में
छपे अक्षर

नजर आना
शुरु
हो जाते होंगे
एक पाठक को

मोती जैसे
लपक रहा हो
चमक देख कर

उनकी
तरफ कोई
गोताखोर

 शायद:

अनन्त में
होता होगा
ध्यान केन्द्रित

दूर बहुत
होते होंगे
जोकर
कलाकार
चोर छिछोर

नजर पड़ती
होगी बस
सारे सफेद
कबूतरों पर

काले कौओं
को समझा कर
ले जाता होगा

समय
कहीं किसी
मोड़ की ओर

सीख:

क्यों
बैठा
रहता होगा
‘उलूक’

करने को
बकवास

देखता
घनघोर
अमावस में भी

फाड़ कर
आँखें चार
किसी पाँचवीं
दिशा की छोर

सीखता
क्यों नहीं होगा
थोड़ा सा भी
हटकर लिखना
अच्छा लिखना

मुँह
मोड़ कर
इधर उधर से

देख देख कर

कहीं
कुछ जमीन
के अन्दर

कुछ
आकाश
की ओर।

चित्र साभार: https://melbournechapter.net