उलूक टाइम्स

सोमवार, 11 अगस्त 2014

किसलिये कोई लिखने लिखाने की दवा का बाजार चुनता है

कौन है जो
नहीं लिखता है
बस उसका लिखा
कुछ अलग सा
इसका लिखा कुछ
अलग सा ही
तो दिखता है
वैसे लिखने लिखाने
की बातें पढ़ा लिखा
ही करता है
वो गुलाब देख
कर लिखता है
जो रोज नहीं
खिलता है
बस कभी कभी
ही दिखता है
किसी का लिखा
पिटने पिटाने के
बाद खिलता है
एक दिन की
बात नहीं होती है
रोज का रोज पिटता है
सेना का सिपाही
नहीं बनता है
कायरों को वैसे भी
कोई नहीं चुनता है
लिखने लिखाने
का मौजू यहीं
और यहीं बनता है
हर फ्रंट पर उसका
सिपाही अपनी
बंदूक बुनता है
गोलियाँ भी
उसकी होती है
लिखने वाला बस
आवाज सुनता है
मार खाने से
पेट नहीं भरता है
मार खा खा कर
शब्द चुनता है
लिखने लिखाने
की बातों का कनिस्तर
बस मार खाने
से भरता है
उनके साये और
आसरे पर
 लिखने वाला
पुरुस्कार चुनता है
सब से हट कर
लिखने का खामियाजा
तिरस्कार चुनता है
एक ही नहीं
सारे के सारे फ्रंट पर
पिट पिटा कर
‘उलूक’ कुछ
तार बुनता है
वहाँ भी नहीं
सुनता है कोई
यहाँ भी नहीं सुनता है
लिखना लिखाना
बहुत आसान होता है
बहुत आसानी से
लिखता है कोई
कुछ भी कभी भी
जो डरते डरते
हुऐ हर जगह
की हार चुनता है
बिना बेतों की
मार चुनता है
लेखक डरता है
डरपोक होता है
लड़ता तो है पर
कलम चुनता है
बस तलवार देख
कर आँखें ही
तो बंद करता है ।

रविवार, 10 अगस्त 2014

कभी उनकी तरह उनकी आवाज में कुछ क्यों नहीं गाते हो



गनीमत है 
कवि लेखक कथाकार गीतकार 
या 
इसी तरह का कुछ हो जाने की सोच 
भूल से भी पैदा नहीं हुई कभी 

मजबूत लोग होते हैं 
लिखते हैं लिखते हैं लिखते चले जाते हैं 
कविता हो कहानी हो नाटक हो या कुछ और 
ऐसे वैसे लिखना शुरु नहीं हो जाते हैं 

एक नहीं कई कोण से शुरु करते हैं 
कान के पीछे से कई बार 
लेखनी निकाल कर सामने ले आते हैं 

कई बार फिर से कान में वापस रख कर 
उसी जगह से सोचना शुरु हो जाते हैं 
जहाँ से कुछ दिन पहले हो कर 
दो चार बार कम से कम पक्का कर आते हैं 

लिखने लिखाने के लिये
आँगन होना है दरवाजा होना है खिड़की होनी है 
या बस खाली पीली किसी एक सूखे पेड़ पर यूँ ही पूरी 
नजर गड़ा कर वापस आ जाते हैं 

एक नये मकान बनाने के तरीके होते हैं कई सारे 
बिना प्लोट के ऐसे ही तो नहीं बनाये जाते हैं 

बड़े बड़े बहुत बड़े वाले जो होते हैं 
पोस्टर पहले से छपवाते हैं 
शीर्षक आ जाता है बाजार में 
कई साल पहले से बिकने को 

कोई नहीं पूछता बाद में 
मुख्य अंश लिखना क्यों भूल जाते हैं

सब तेरी तरह के नहीं होते ‘उलूक’ 
तुम तो हमेशा ही बिना सोचे समझे 
कुछ भी लिखना शुरु हो जाते हो 

पके पकाये किसी और रसोईये की रसोई का भात 
ला ला कर फैलाते हो 

विज्ञापन के बिना छपने वाले 
एक श्रेष्ठ लेखकों के लेखों से भरा हुआ अखबार बन कर 

रोज छपने के बाद 
कूड़े दान में बिना पढ़े पढ़ाये पहुँचा दिये जाते हो 

बहुत चिकने घड़े हो यार 
इतना सब होने के बाद भी 
गुरु फिर से शुरु हो जाते हो ।

शनिवार, 9 अगस्त 2014

बचपन से चलकर यहाँ तक गिनती करते या नहीं भी करते पर पहुँच ही जाते

दिन के आसमान
में उड़ते हुऐ चील
कौओं कबूतरों के झुंड
और रात में
आकाश गंगा के
चारों ओर बिखरे
मोती जैसे तारों की
गिनती करते करते
एक दो तीन से
अस्सी नब्बे होते जाते
कहीं थोड़ा सा भी
ध्यान भटकते
ही गड़बड़ा जाते
गिनती भूलते भूलते
उसी समय लौट आते
उतनी ही उर्जा और
जोश से फिर से
किसी एक जगह से
गिनती करना
शुरु हो जाते
ऐसा एक दो दिन
की बात हो
ऐसा भी नहीं
रोज के पसंदीदा
खेल हो जाते
कोई थकान नहीं
कोई शिकन नहीं
कोई गिला नहीं
किसी से शिकवा नहीं
सारे ही अपने होते
और इसी होते
होते के बीच
झुंड बदल जाते
कब गिनतियाँ
आदमी और
भीड़ हो जाते
ना दिखते कहीं
तारे और चाँद
ना ही चील के
विशाल डैने
ही नजर आते
थकान ही थकान
मकान ही मकान
पेड़ पौँधे दूर दूर
तक नजर नहीं आते
गिला शिकवा
किसी से करे या ना करें
समझना चाह कर
भी नहीं समझ पाते
समझ में आना शुरु
होने लगता यात्रा का
बहुत दूर तक आ जाना
कारवाँ में कारवाँओं
के समाते समाते
होता ही है होता ही है
कोई बड़ी बात फिर
भी नहीं होती इस सब में
कम से कम अपनापन
और अपने अगर
इन सब में कहीं
नहीं खो जाते ।
  

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

समझौते होते हैं सब समझते हैं करने वाले बेवकूफ नहीं होते हैं

अपनी अच्छाइयों को
अपनी चोर जेबों
में छुपाये हुऐ
बस उसी तरह
जैसे छुपाना आसान
होता है अंधेरे में
अपनी परछाइयों को
समझौतों के तराजू
लिये फिर रहे हैं
गली गली
मजाल है कि
कोई पलड़ा
ऊँचा और कोई
नीचा हो जाये
तराजू भी हर
एक के पास
एक से समझौता ब्राँड
कहीं कोई चूक नहीं
हर एक के चेहरे पर
एक मुखौटा उसी तरह से
बचाव की मुद्रा में जैसे
लगा लेता है वैल्डिंग
करते समय आँखें
बचाने के लिये कोई
अच्छाई की शरम
गीली करती हुई जेबें
और समझौतों की
बेशर्मी से गरम होकर
खौलती फड़कती नसें
मेरी भी आदत में
आदतन शामिल
हो चुकी है उसी तरह
जिस तरह बंद
हो चुकी हों गीता कुरान
बाईबिल और रामायण
पढ़ने की कोशिश
करते करते किसी की
भारी बोझिल होते होते
आँखे और हर तरफ
फैल चुका हो चारों ओर
काला होता हुआ
सफेद कोहरे
में लिपटा हुआ
एक समझौता
एक ताबूत में
एक और कोशिश
हर किसी की
ताबूत के ढक्कन को
चाँदी से मढ़ कर
चमकदार बना देने की
ताकि गीली होती
चोर जेब से गिरती
शरम की गीली
ओस की बूँदे
साफ करती रहें
झूठ की चमक को
और सलामत रहे
हर किसी की
कुछ अच्छाई उसकी
चोर जेब में
बची रहे सड़ने से
समझौतों की सड़न से
बचते बचाते हुऐ
और समझौते होते रहें
यूँ ही मुखौटों की आड़ में
एक दूसरे के मुखौटों
की कतार के बीच
अच्छाइयाँ बची रहें
मिलें नहीं कभी
किसी की किसी से
समझौता करने
कराने के लिये
या खुद एक समझौता
हो जाने के लिये
अच्छाइयाँ
हर किसी की
होने के लिये ही
होती है बस
ताकी सनद रहे ।

बुधवार, 6 अगस्त 2014

बारिशों का पानी भी कोई पानी है नालियों में बह कर खो जाता है

खुली खिड़कियों
को बरसात
के मौसम में
यूँ ही खुला
छोड़ कर
चले जाने
के बाद
जब कोई
लौट कर
वापस
आता है
कई दिनों
के बाद
गली में
पाँवों के
निशान तक
बरसते पानी
के साथ
बह चुके
होते हैं
पता भी
नहीं चलता है
किसी के आने
और
झाँकने का भी
दरवाजे भी
कुछ कुछ
अकड़ चुके
होते है
बहुत सारे
लोग
बहुत सारे
लोगों के
साथ साथ
आगे पीछे
होते होते
कहीं से
कहीं की
ओर निकल
चुके होते हैं
वहम होने
या
ना होने का
हमेशा वहम
ही रह
जाता है
जब कोई
गया हुआ
वापस लौट
कर आता है
जहाँ से
गया था
वहाँ पहुँच
कर बस
इतना ही
पता चल
पाता है
पता नहीं
किसी ने
पता लिख
दिया था
उस का
उस जगह का
जहाँ उसे
लगता था
वो है
उस जगह पर
लौट कर
खुद अपने
को ही बस
नहीं ढूँढ
पाता है
हर कोई
अपने अपने
पते को
लेकर
अपनी अपनी
चिट्ठी

खुद के
लिये ही

लिखता हुआ
नजर आता है
ना पोस्ट आफिस
होता है जहाँ
ना ही कोई
डाकिया
कहीं दूर
दूर तक
नजर आता है
‘उलूक’
बहुत ही
जालिम है ये
सफेद पन्ना
काला नहीं
हो पाता है
अगर कभी
तो कोई
भी झाँकने
तक नहीं
आता है
काँटा
चुभा रहना
जरूरी है
पाँव के
नीचे से
खून दिखना
भी जरूरी
हो जाता है
तेरा पता तुझे
पता होता है
खुद ही खोना
खुद ही ढूँढना
खुद को यहाँ
हर किसी को
इतना मगर
जरूर
आता है ।