एक नहीं कई कई होते हैं
अपने ही खुद के चारोंओर होते हैं
सीधे खड़े भी होते हैं
टेढ़े मेढ़े भी नहीं होते हैं
गिरते हुऐ भी नहीं दिखते हैं
उठते हुऐ भी नहीं दिखते हैं
संतुलन के उदाहरण
कहीं भी उनसे बेहतर नहीं होते हैं
कहीं भी उनसे बेहतर नहीं होते हैं
ना कुछ सुन रहे होते हैं
ना कुछ देख रहे होते हैं
ना कुछ कह रहे होते हैं
होते भी हैं या नहीं भी
होते हैं जैसे भी हो रहे होते हैं
रोने वाले कहीं रो रहे होते हैं
हँसने वाले कहीं दूसरी ओर खो रहे होते हैं
अजब माहौल की गजब कहानी
सुनने सुनाने वाले अपनी अपनी कहानियों को
अपने अपने कंधों में खुद ही ढो रहे होते हैं
‘उलूक’
समझ में क्यों नहीं घुस पाती है
एक छोटी सी बात
एक छोटी सी बात
कभी भी तेरे खाली दिमाग में
एक लम्बी रीढ़ की हड्डी पीठ के पीछे से
लटकाने के बावजूद
तेरे जैसे एक नहीं
बहुत सारे आस पास के ही तेरे
बिना रीढ़ के हो रहे होते हैं ।
चित्र साभार: www.123rf.com
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
आभार ।
हटाएंsach hai apne hi kandhon pe sb dhona padta hai...sundar prastuti...
जवाब देंहटाएंआभार अपर्णा जी ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-06-2015) को चर्चा मंच के 2000वें अंक "बरफ मलाई - मैग्गी नूडल से डर गया क्या" (चर्चा अंक-2000) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आभार आदरणीय ।
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआभार हिमकर जी ।
हटाएंकई बार तो दूसरों की रीड ही अपनी बता देते हैं कई लोग ... अच्छा व्यंग है ...
जवाब देंहटाएंआभार दिगंबर नासवा जी ।
हटाएंबहुत बढ़िया रचना....बिना रीढ़ के लोग
जवाब देंहटाएंआभार रश्मि जी ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 13 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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