उलूक टाइम्स: इलाज
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बुधवार, 30 सितंबर 2020

लिखने की बीमारी है इलाज नहीं है चल रही महामारी है है तो मुमकिन है है कहीं किसी लौज में है

 


किस बात का है रोना कहाँ है कोरोना 
सब हैं तो सही और भी मौज में हैं
डर है बस कहीं है खबर में है
खबर अखबार में है
वीर हैं बहुत सारे हैं सब फौज में हैं

दिख नहीं रहा है गिनती कर रहा है
छुपा है घर में और सब की खोज में है
गुलाब उसकी सोच में है
कांटे खुद की सोज में हैं
बात है जो है बस रोज (गुलाब) में है

समझ सब की अपनी है
बात बस खाली हवा में रखनी है
सच है कहीं है किसी हौज में है 

नाटक जरूरी है
तन्खवाह लेकिन
हर पहली तारीख को
खाते में आना बहुत जरूरी है 

हस्पताल है
पर्ची है
चिकित्सक है
बिना बिमारी मरी महामारी है
मुर्दे हैं सारे भोज में हैं

सब को पता है
हर आदमी
कहां है पूछता फिर रहा है
उसकी मजबूरी है
सोच है नोज (नाक) में है

लिखना
‘उलूक’ का
उसकी बीमारी है
इलाज है नहीं
चिकित्सक की कमजोरी है
सारे हैं
सैल्फी की पोज में हैं ।


चित्र साभार: https://www.aegonlif

मंगलवार, 16 जून 2015

कब्ज पेट का जैसा दिमाग में हो जाता है बात समझ से बाहर हो जाती है

पेट में
कब्ज हो
बात
चिकित्सक
के समझ में
भी आती है

दवायें
भी होती हैं
प्राकृतिक
चिकित्सा
भी की जाती है

परेशानी का
कारण है
इससे भी
इंकार
नहीं किया
जा सकता है

बात
खुले आम
नहीं भी
की जाती है

पर
कभी कभी
किसी किसी
के बीच
विषय बन कर
बड़ी बहस
के रुप में
उभर कर
सामने से
आ जाती है

गहन
बात है
तभी तो
‘पीकू’ जैसी
फिल्म में तक
दिखाई जाती है

जतन
कर लेते है
करने वाले भी

फिर भी
किसी ना
किसी तरह
सुबह उठने के
बाद से लेकर
दिन भर में
किसी ना किसी
समय निपटा
भी ली जाती है

ये सब
पढ़ कर
समझता है
और
समझ में आता
भी है एक
जागरूक
सुधि पाठक को

यहीं पर
‘उलूक’
की बक बक
पटरी से
उतरती हुई
भी नजर
आती है

बात
कब्ज से
शुरु होती है

वापस
लौट कर
कब्ज पर ही
आ जाती है

प्रश्न
उठ जाये
अगर किसी क्षण
दिमाग में हो रहे
कब्ज की बात
को लेकर

बड़ी
अजीब सी
स्थिति हो जाती है

लिख लिखा
कर भी
कितना
निकाला जाये

क्या
निकाला जाये

उम्र के
एक मोड़
पर आकर

अपने
आस पास
में जब
कोई नई बात
समझने के लिये
नहीं रह जाती है ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शनिवार, 17 अगस्त 2013

डाक्टर के पास जा पर सब कुछ मत बता

तेरे को भी पता 
नहीं क्या क्या
बिमारियां
लग जाती है
जो तेरे डाक्टर
तक को समझ
में नहीं आ पाती हैं
अब जब मर्ज ही
वो नहीं समझ
पायेगा तो इलाज
खाक बता पायेगा
बीमारी समझ में
आ भी जाती पर
तेरी भी तो
मजबूरी है हो जाती
कुछ बातें साफ साफ
नहीं हैं बताई जाती
पेट के अंदर उबल
भी रही हों अगर
तब भी थोड़ा ठंडा
करके ही सामने
है लाई जाती
सीधे सीधे कहने
से तो बबाल
बहुत हो जायेगा
अब हर किसी के
पास होता ही
है कामन सेंस
थोड़ा सा बताने पर
पूरा तो किसी भी
बेवकूफ तक के
समझ में आ जायेगा
इसलिये ऎसे ही
कुछ ना कुछ
बताते अगर
तू चला जायेगा
पेट भी ठीक रहेगा
पब्लिक में कहीं
नहीं गुड़गुडा़ऎगा
रहने दे कोई
जरूरत नहीं है
डाक्टर को
ये बताने की
आजकल तेरे
दिमाग में
घूम रही है
कुत्ते की पूँछ
को सीधा करने की
किसी तरकीब पर
शोध परियोजना
भारत सरकार के
पास भिजवाने की
वैसे भी डाक्टर को
अगर ये बात तू
बताने भी लग जायेगा
डाक्टर तुरंत तुझे
कुत्ते के काटने पर
लगने वाले इंजेक्शन
ही लगवायेगा
तू भी बेकार में
छ : सात हफ्ते तक
हस्पताल के
चक्कर लगायेगा
समझदारी इसी में है
कि तू डाक्टर को
कुछ नहीं बतायेगा
कुत्ते की पूँछ पर
तेरे जो भी मन में आये
कहीं जा के लिख आयेगा 
उसे भी कौन सा
सीधा होना है कभी
बस इतने से ही
तेरा काम बन जायेगा
तेरी शोध परियोजना
का समय भी
बढ़ता चला जायेगा
तुझे देखते ही
तेरा कुत्ता अपनी
टेढी़ पूँछ रोज की
तरह हिलायेगा
समझ गया ना
सब कुछ अब तो
डाक्टर को ये सब
तू जा के नहीं बतायेगा
कुछ बीमारियां
छिपी रहनी चाहिये
कम से कम इतना
तो तू समझ
ही अब जायेगा ।

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

मंदिर और ऎसिडिटी

यहाँ पर
सुबह सुबह
पहले तो
एक मकान
के आगे
नतमस्तक
खड़ा हुआ
नजर आ
रहा था
आज से मंदिर
हो गया है
अखबार में
पढ़कर आ
रहा था
वहाँ पर
बेशरमों के बीच
शरम का एक
मंदिर बनाने
का प्रस्ताव
लाया जा
रहा था
बेशरम को जब
आती थी
शरम तो
ऎसी जगह
में फिर क्यों
जा रहा था
रोनी सी
सूरत ले
हमें बता
रहा था
किताबों में
लिखा हुआ
होता था
जो कभी
वो सब
अब कोई
नहीं सुना
रहा था
जो कहीं
नहीं लिखा
गया है कभी
उसपर दक्ष
हर कोई
नजर आ
रहा था
ताज्जुब की
बात हर
कोई कुछ
भी पचा
ले जा
रहा था
जिसे पच
नहीं पा
रहा था
डाक्टर के
पास जा
ऎसिडिटी का
इलाज करवा
रहा था ।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

बक बक संख्या तीन सौ

ये भी क्या बात है
उसको देख कर ही
खौरा तू जाता है

सोचता भी नहीं
क्यों जमाने के साथ
नहीं चल पाता है

अब इसमें उसकी
क्या गलती है
अगर वो रोज तेरे
को दिख जाता है
जिसे तू जरा सा भी
नहीं देखना चाहता है

तुझे पता है उसे देख
लेना दिन में एक बार
मुसीबत कम कर जाता है
भागने की कोशिश जिस
दिन भी की है तूने कभी
वो रात को तेरे सपने में
ही चला आता है

जानता है वो तुझे बस
लिखना ही आता है
इसलिये वो कुछ ऎसा
जरूर कर ले जाता है
जिसपर तू कुछ ना कुछ
लिखना शुरू हो जाता है

वैसे तेरी परेशानी का
एक ही इलाज अपनी
छोटी समझ में आता है

ऊपर वाले को ही देख
उसे उसके किसी काम पर
गुस्सा नहीं आता है

सब कुछ छोड़ कर तू
उसको ही खुदा अपना
क्यों नहीं बनाता है

खुदा का तुझे पता है
दिन में दिखना छोड़
वो किसी के सपने में
भी कभी कहाँ आता है ।

रविवार, 10 जून 2012

लेखक मुद्दा पाठक


कोई
चैन से 
लिखता है
कोई बैचेनी 
सी दिखाता है

डाक्टर 
के पास 
दोनो ही
में से
कोई 
नहीं जाता है

लिख लेने 
को ही
अपना 
इलाज बताता है 



विषय
हर 
किसी का
बीमारी
है 
या नहीं 
की 
जानकारी 
दे जाता है

कोई मकड़ी 
की
टाँगों में 
उलझ जाता है

कोई किसी 
की
आँखों में 
घुसने का 
जुगाड़ बनाता है

किसी को 
सत्ता पक्ष 
से
खुजली 
हो जाती है

विपक्षियों 
की
उपस्थिति
किसी पर 
बिजली गिराती है

पाठक भी 
अपनी पूरी
अकड़ दिखाता है

कोई क्या 
लिखता है
उस पर 
कभी कभी
दिमाग लगाता है

जो खुद 
लिखते हैं
वो लिखते 
चले जाते हैं

कुछ नहीं 
लिखने वाले

इधर उधर 
नजर मारते
हुवे

कभी 
नजर आ जाते हैं

हर मुद्दे पर 
कुछ ना कुछ
लिखा हुवा 
मिल
ही जाता है

गूगल 
आसानी से 
उसका पता 
छाप ले जाता है

किसी को 
एक
पाठक भी 
नहीं मिल पाता है

कोई सौ सौ 
को लेकर
अपनी ट्रेन 
बनाता है

कुछ भी हो 
लिखना पढ़ना 
बिना रुके
अपने रास्ते 
चलता चला 
जाता है

मुद्दा भी 
मुस्कुराता है

अपने
काम पर 
मुस्तेदी से 
लगा हुवा

इसके बाद
भी 
नजर आता है।