उलूक टाइम्स: बीमारी
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बुधवार, 30 सितंबर 2020

लिखने की बीमारी है इलाज नहीं है चल रही महामारी है है तो मुमकिन है है कहीं किसी लौज में है

 


किस बात का है रोना कहाँ है कोरोना 
सब हैं तो सही और भी मौज में हैं
डर है बस कहीं है खबर में है
खबर अखबार में है
वीर हैं बहुत सारे हैं सब फौज में हैं

दिख नहीं रहा है गिनती कर रहा है
छुपा है घर में और सब की खोज में है
गुलाब उसकी सोच में है
कांटे खुद की सोज में हैं
बात है जो है बस रोज (गुलाब) में है

समझ सब की अपनी है
बात बस खाली हवा में रखनी है
सच है कहीं है किसी हौज में है 

नाटक जरूरी है
तन्खवाह लेकिन
हर पहली तारीख को
खाते में आना बहुत जरूरी है 

हस्पताल है
पर्ची है
चिकित्सक है
बिना बिमारी मरी महामारी है
मुर्दे हैं सारे भोज में हैं

सब को पता है
हर आदमी
कहां है पूछता फिर रहा है
उसकी मजबूरी है
सोच है नोज (नाक) में है

लिखना
‘उलूक’ का
उसकी बीमारी है
इलाज है नहीं
चिकित्सक की कमजोरी है
सारे हैं
सैल्फी की पोज में हैं ।


चित्र साभार: https://www.aegonlif

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

शिकायत करने की हर बात पर बीमारी हो गई हो जिसे उसका इलाज ही नहीं कहीं हो पाता है

मलाई लूटने के
मौके बहुत मिलते हैं
बिल्लियों को
सालों साल तक
एक ही जगह से
दूध लूटने का मौका
कभी कभी आता है
क्यों नहीं सीखते हो
इस बात से
थोड़ा बहुत कुछ
दुकान अपनी बंद कर
कुछ दिनों के
लिये ही सही
सड़क किनारे एक
खोमचा क्यों नहीं
आजकल लगाता है
देने या ना देने
जाने या ना जाने
का दस्तूर बहुत
पुराना हो गया है
थोपे गये कबूतरों
को उड़ाने में
किसी का बताये
तो सही कोई
क्या जाता है
शेर बाघों को
जंगल का रास्ता
दिखा दिखा कर
सियारों ने कर
लिया हो जब
हर शहर गाँव
कस्बों से अपना
मजबूत नाता है
सियार हूँ
सियारों के लिये हूँ
सियारों के द्वारा
सियारों का जैसा
करने और कहने में
फिर काहे को शर्माता है
क्या करेगा
उलूक
तेरे पास भी कुछ
तो काम की
कमी लगती है
दुनियाँ हमेशा से
ऐसे ही चलती है
तू भी पागलों की
तरह रोज एक
ना एक शिकायत
ले कर चला आता है
सोचता भी नहीं है
कुछ भी हो
कैसा भी हो
काम करना निभाना
थोड़ा सा भी
क्या कहीं इस तरह
से छोड़ा जाता है
तेरे लगती रहती
है मिर्ची हमेशा
लगती रहे
पता है तुझे भी
तेरे जैसों को
कौन यहाँ और वहाँ
भी मुँह लगाता है ।  

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

लोकतंत्र के घरों से

एक बड़े से
देश के
छोटे छोटे
लोकतंत्रों
में आंख बंद
और
मुह बंद
करना सीख
वरना भुगत
अरे हम अगर
कुछ खा रहे हैं
तो देश का
लोकतंत्र भी
तो बचा रहे हैं
देख नहीं रहा है
कितनी बड़ी
बीमारी है
एक बड़े
लोकतंत्र
के सफाई
अभियान
की बड़ी सी
तैयारी है
सारी आँखे
लगी हुवी है
भोर ही से
बाबाओं की ओर
बता अगर हम
ही नहीं जाते
जलूस में टोपियां
नहीं दिखाते
तो तुम्हारे
बाबा जी क्या
कुछ कर पाते
सीख कुछ
तो सीख
घर की बात
घर में रख
बाहर जा
अपने को परख
अरे बेवकूफ
खा भी ले
थोड़ी सी घूस
कुछ नहीं जायेगा
थोड़ा जमा करना
थोडा़ बाबा को देना
छोटा पाप कटा लेना
बड़े पुण्य से
एक बड़े लोकतंत्र
को बचा
छोटा लोकतंत्र
अगर डूब भी
जायेगा तेरा
क्या जायेगा
सोच बड़ा अगर
भूल से गया डूब
छोटा क्या कहीं
रह पायेगा
और
तू कल किसको
फिर मुंह दिखायेगा ?